विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: शासन में दिखनी चाहिए जनता की भागीदारी
By विश्वनाथ सचदेव | Published: June 19, 2020 09:34 AM2020-06-19T09:34:27+5:302020-06-19T09:34:27+5:30
कोविड-19 से महामारी से जूझने में हम लगातार कमजोर सिद्ध हो रहे हैं. जिस तरीके से लॉकडाउन लागू करने में विलंब किया गया और फिर बिना पूरी तैयारी के जिस तरह से 4 घंटे के नोटिस पर लागू कर दिया गया, वह अपरिपक्वता का ही एक उदाहरण है.
कोविड-19 महामारी के संकट से आज सारी दुनिया जूझ रही है, शायद इसीलिए इस लड़ाई में मिल रही विफलताएं हमें कुछ मोर्चो पर हो रही हार मात्न लग सकती हैं, पर हकीकत यही है कि यह संकट लगातार गहराता जा रहा है. कोविड-19 के साथ जुड़े डर से आज सारा देश आक्रांत है. पर यही अकेला संकट नहीं है देश के सामने. आर्थिक मोर्चे पर भी हम लगातार कमजोर होते जा रहे हैं. कोविड-19 से उत्पीड़ित श्रमिक वर्ग के पलायन के वास्तविक परिणाम अब सामने आ रहे हैं, जब फिर से खुल रही फैक्ट्रियों में कारीगर नहीं दिख रहे. खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिल रहे. बेरोजगारी का आलम यह है कि बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने कर्मचारियों से पल्ला छुड़ा रही हैं. प्राप्त आंकड़ों के अनुसार मई के महीने में देश की बेरोजगारी दर 23.5 प्रतिशत थी, यह अब तक की सर्वाधिक बेरोजगारी है. ग्रामीण क्षेत्नों में तो यह बेरोजगारी 25.09 प्रतिशत तक पहुंच गई. इसका मतलब है ग्रामीण भारत में हर चौथा व्यक्ति बेरोजगार है.
अच्छे दिनों का एक सपना दिखाया था भाजपा की सरकार ने
पता नहीं, हममें से कितनों को यह हकीकत पता है कि देश में 20 से 30 की उम्र के पौने तीन करोड़ लोग आज बेरोजगारी की मार ङोल रहे हैं- यह वही युवा पीढ़ी है जिसकी उपस्थिति को कुछ अरसा पहले तक देश की ताकत बताया जा रहा था! अच्छे दिनों का एक सपना दिखाया था भाजपा की सरकार ने. यह अपने आप में एक विडंबना है कि अब उस सपने की बात कोई नहीं कर रहा. सन 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पहली बार भाजपा की एक मजबूत सरकार देश में बनी थी. यह अच्छे दिनों के सपनों वाली सरकार थी. 5 साल बाद जब 2019 में फिर प्रधानमंत्नी मोदी ने जनता का विश्वास जीता तो यह उनके इस तर्क का परिणाम था कि परिवर्तन में समय लगता है. एक अप्रत्याशित बहुमत के साथ भाजपा के नेतृत्व में फिर से केंद्र में एक ऐसी सरकार अस्तित्व में आई जिसके सामने कोई ऐसा विपक्ष नहीं था, जो सरकार के लिए किसी प्रकार की बाधा बन पाता.
पर इस सबके बावजूद पिछले छह-सात वर्षो में उस बुनियादी बदलाव का कोई संकेत देश में नहीं दिखा, जिसकी नई सरकार से अपेक्षा थी. यह बुनियादी बदलाव आर्थिक, औद्योगिक मोर्चो पर अपेक्षित है. पर इसके बजाय भाजपा सरकार ने धारा 370, तलाक कानून, मंदिर जैसे मुद्दों के आधार पर जनता को संतुष्ट करने का आसान रास्ता चुना. ये मुद्दे आकर्षक तो हैं पर उन अच्छे दिनों की परिभाषा नहीं बन सकते, जिनके आश्वासन के आधार पर भाजपा को इतना भारी समर्थन मिला था.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का तो यह भी कहना है कि यह सफलता भाजपा की नहीं, नरेंद्र मोदी की थी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत अच्छे वक्ता हैं. सच तो यह है कि यह उनके चुनावी भाषणों का ही परिणाम था कि चुनावों में भाजपा को इतनी बड़ी सफलता मिल सकी. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का तो यह भी कहना है कि यह सफलता भाजपा की नहीं, नरेंद्र मोदी की थी. जहां तक उनकी सरकार की उपलब्धियों का सवाल है, पिछले कार्यकाल में वे और उनके साथी लगातार यह कहते रहे कि कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकार इतना गड़बड़झाला छोड़ गई थी कि उसे सुलझाने में ही अधिकांश समय बर्बाद हो गया. इस तरह की बात हर नई सरकार करती है, और इसमें कुछ सच्चाई भी होती है. पर इसका बहाना बनाकर कोई भी सरकार अपनी विफलता की सच्चाई पर लंबे अरसे तक पर्दा नहीं डाले रह सकती. अंतत: उसे अपनी लकीर लंबी करनी ही होती है. पर सरकार की ओर से ऐसी कोई कारगर कोशिश होती दिखाई दे नहीं रही.
कोविड-19 से ही बात शुरू करें. इस महामारी से जूझने में हम लगातार कमजोर सिद्ध हो रहे हैं. जिस तरीके से लॉकडाउन लागू करने में विलंब किया गया और फिर बिना पूरी तैयारी के जिस तरह से 4 घंटे के नोटिस पर लागू कर दिया गया, वह अपरिपक्वता का ही एक उदाहरण है. फिर जिस तरह प्रवासी श्रमिकों की समस्या से निपटने के लिए राज्य सरकारों से तारतम्य बिठाए बिना एक के बाद दूसरे और अधिकांश आधे-अधूरे कदम उठाए गए, वह भी किसी परिपक्व नेतृत्व का उदाहरण तो नहीं ही है.
यह सही है कि केंद्र में भाजपा की सरकार बहुत भारी बहुमत वाली है. पर इस जनसमर्थन के नाम पर संघीय व्यवस्था वाले देश में राज्यों के अधिकारों की उपेक्षा तो नहीं होनी चाहिए. आज जिस तरह के संकटों से देश गुजर रहा है, उसमें केंद्रीय नेतृत्व से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राज्य सरकारों के सहयोग से मिल-जुल कर काम करने वाली नीति अपनाएगा. पर जिस तरह भाजपा ने बंगाल या ओडिशा में आगामी चुनावों की लड़ाई शुरू कर दी है, उससे तो यही लगता है कि केंद्रीय नेतृत्व का पूरा समर्थन उसे प्राप्त है. इसे राष्ट्रीय हितों की अनदेखी ही कहा जा सकता है.
राष्ट्रीय हितों का ही तकाजा है कि चीन, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश जैसे पड़ोसियों से हमारे संबंध बेहतर होते. इस दिशा में दिखावे तो बहुत हुए, पर हकीकत यह है कि इस संकट की गहराई को ही नहीं समझा जा रहा. आज नेतृत्व से अपेक्षा है कि वह सपने साकार करने का विश्वास जनता को दिलाए. दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं दिख रहा. जनतंत्न जनता का शासन होता है. सपने देखने और सपने पूरा करने, दोनों में जनता की पूरी भागीदारी होनी चाहिए. अच्छे नेतृत्व की कसौटी यह है कि वह जनता को इस भागीदारी के लिए तैयार करे.