ब्लॉग: लालबहादुर शास्त्री में नैतिकताएं ही नहीं, दृढ़ता भी गजब की थी

By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: January 11, 2024 10:28 AM2024-01-11T10:28:33+5:302024-01-11T10:34:14+5:30

लाल बहादुर शास्त्री में नैतिकताएं ही नहीं, दृढ़ता भी गजब की थी। उन्होंने 11 जनवरी, 1966 को ताशकंद समझौते पर दस्तखत किया था।

Blog: Lal Bahadur Shastri not only had morals but also had amazing determination | ब्लॉग: लालबहादुर शास्त्री में नैतिकताएं ही नहीं, दृढ़ता भी गजब की थी

फाइल फोटो

Highlightsलाल बहादुर शास्त्री ने 11 जनवरी 1966 को ताशकंद समझौते पर दस्तखत किया थाताशकंद समझौते पर दस्तखत के कुछ ही घंटों बाद शास्त्रीजी का रहस्यमय परिस्थितियों में निधन हो गया थाआज भी लाल बहादुर शास्त्री की सादगी, नैतिकता और ईमानदारी की चर्चा होती है

सन् 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच चले लंबे युद्ध के बाद 11 जनवरी, 1966 को यानी आज के ही दिन सोवियत संघ के ताशकंद में (जो अब उज्बेकिस्तान में है) दोनों देशों के बीच शांति का समझौता हुआ तो दोनों ही पक्षों के शांतिकामियों ने चैन की सांस ली लेकिन इस समझौते के लिए वहां गए भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का समझौते पर हस्ताक्षर के कुछ ही घंटों बाद रहस्यमय परिस्थितियों में निधन हो गया।

आज भी उस प्रसंग की चर्चा चलने पर शास्त्रीजी के प्रति लोगों की भावनाएं इस कदर उमड़ आती हैं कि जितने मुंह उतनी बातें हो जाती हैं। अलबत्ता, उनके व्यक्तित्व के दूसरे पहलुओं की चर्चा करें तो उनकी सादगी, नैतिकता और ईमानदारी के अप्रतिम होने को लेकर कतई कोई दो राय सामने नहीं आती।

चुनावी नैतिकताओं का मामला हो तो कई बार बड़े से बड़े नेता भी विचलित होते देखे गए हैं लेकिन शास्त्रीजी इनको लेकर भी अप्रतिम सिद्ध होते हैं। इसका एक किस्सा यों है कि 1957 में उत्तर प्रदेश की इलाहाबाद सीट से चुने गए शास्त्रीजी 1962 में फिर इसी सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी थे। चुनाव प्रचार के एक-दो दिन ही बचे थे और मुकाबला कड़ा न होने के बावजूद अपने सारे मतदाताओं तक पहुंचने की ख्वाहिश में वे दिन-रात एक किए हुए थे।

इसी क्रम में उन्होंने देखा कि उनके विरुद्ध चुनाव लड़ रहे एक प्रत्याशी की जीप बीच रास्ते में खराब हो गई है। उन दिनों न आजकल जितनी जीपें व कारें हुआ करती थीं कि फौरन दूसरी का इंतजाम हो जाए और न ही यातायात के साधन इतने सुगम थे कि दूर-दराज के इलाकों में सुविधापूर्वक पहुंचा जा सके। हां, आजकल जितनी राजनीतिक कटुता भी नहीं थी।

शास्त्री जी ने प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी को परेशानी में पड़ा देख अपनी जीप रुकवाई। खुद उधर से गुजर रही अपने एक समर्थक की जीप में बैठ गए और अपनी जीप प्रतिद्वंद्वी को दे दी। एक समर्थक ने इस पर ऐतराज जताया तो बोले, ‘हमारे विरोधी मतदाताओं से अपनी बात कहने नहीं जा सकें तो चुनावी मुकाबला बराबरी का नहीं रह जाएगा न, ऐसा नहीं होना चाहिए।’

उनकी नैतिकताएं ही नहीं, दृढ़ता भी गजब की थी। इसे यों समझ सकते हैं कि ताशकंद में पाकिस्तान से समझौते के दौरान उनकी और जनरल अयूब की दो छोटी-छोटी बैठकों में कोई परिणाम नहीं निकला, क्योंकि शास्त्रीजी को युद्ध में भारतीय सेना द्वारा जीती हुई जमीन लौटाना हरगिज मंजूर नहीं था लेकिन बाद में वे इस पर सहमत हो गए तो अयूब ने कश्मीर पर जोर देना शुरू कर दिया। इधर शास्त्रीजी संकल्पित थे कि कश्मीर पर कोई चर्चा नहीं ही करनी है और उन्होंने अपने इस दृढ़संकल्प के आगे जनरल अयूब की एक नहीं चलने दी।

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