अभय कुमार दुबे का ब्लॉग : विजय रुपाणी और योगी आदित्यनाथ का फर्क

By अभय कुमार दुबे | Published: September 16, 2021 03:45 PM2021-09-16T15:45:59+5:302021-09-16T16:04:46+5:30

गुजरात में भाजपा की सरकारें एंटी-इनकम्बेंसी का सामना कर रही हैं. गुजरात में भाजपा के लिए मुद्दतों से वोट कर रही पटेल बिरादरी इस बात से आहत है कि किसी पटेल को मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया जाता. दूसरी तरफ इस्तीफा दे चुके मुख्यमंत्री विजय रुपाणी को कोरोना महामारी के कुप्रबंधन का दोषी माना जाता है.

bjp facing anti incumbency in gujarat and changing the cm | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग : विजय रुपाणी और योगी आदित्यनाथ का फर्क

फोटो सोर्स - सोशल मीडिया

Highlightsमुख्यमंत्री विजय रुपाणी को कोरोना महामारी के कुप्रबंधन का दोषी योगी को हटाने से मौजूदा मुश्किलों में बढ़ोत्तरी योगी के साथ देश की नौ फीसदी ठाकुर बिरादरी जुड़ गई है

क्या ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ को पलटने के लिए ‘कम्युनल’ राजनीति का इस्तेमाल करने से फायदे की कोई गारंटी मिल सकती है? यानी क्या सरकार से नाराज वोटरों को मनाने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से कोई गारंटीशुदा लाभ हो सकता है? इस सवाल को उत्तर प्रदेश के संदर्भ में भी पूछा जाना चाहिए और गुजरात के संदर्भ में भी. उप्र के चुनाव छह महीने दूर हैं और गुजरात के तकरीबन सवा साल. भाजपा ने इन दोनों राज्यों के लिए अलग-अलग रवैया अख्तियार किया है. गुजरात में उसने मुख्यमंत्री बदल दिया है, लेकिन उप्र में वह मुख्यमंत्री बदलने के पक्ष में नहीं है. इसमें कोई शक नहीं कि दोनों ही राज्यों में भाजपा की सरकारें एंटी-इनकम्बेंसी का सामना कर रही हैं. गुजरात में भाजपा के लिए मुद्दतों से वोट कर रही पटेल बिरादरी इस बात से आहत है कि किसी पटेल को मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया जाता. दूसरी तरफ इस्तीफा दे चुके मुख्यमंत्री विजय रुपाणी को कोरोना महामारी के कुप्रबंधन का दोषी माना जाता है. कुछ समय पहले जब भाजपा ने एक अंदरूनी सर्वेक्षण कराया तो पता चला कि पार्टी की हालत खराब है.

पार्टी अच्छी तरह से जानती है कि गुजरात में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जितना हो सकता था, उतना 2002 के सांप्रदायिक दंगे के दौरान हो चुका है. गुजरात पहले से ही हिंदू बहुसंख्यकवादी राजनीति के शिखर मुकाम तक पहुंच चुका है. यानी सांप्रदायिकता के तिलों से अब कोई तेल नहीं निकलने वाला. भाजपा को सुशासन देना चाहिए था, जो उसने नहीं दिया. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सात साल में भाजपा ने तीसरी बार मुख्यमंत्री बदला है. पहले आनंदीबेन पटेल को हटाया गया, अब रूपाणी को. याद रखना चाहिए कि पिछला चुनाव (2017) रूपाणी के नेतृत्व में लड़ा गया था और भाजपा सौ सीटों तक भी नहीं पहुंची थी. उसी समय मौका था कि रूपाणी को हटा दिया जाता. लेकिन, ऐसा नहीं किया गया. गुजरात की राजनीति और प्रशासन को दिल्ली से रिमोट कंट्रोल के जरिये चलाया जाता रहा. और अब कुशासन का ठीकरा रूपाणी के दरवाजे पर फोड़ा जा रहा है. 
उत्तर प्रदेश में जब योगी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया गया था, उस समय ऊंची जातियां, यादवों को छोड़ सभी पिछड़ी जातियां और जाटवों को छोड़ सभी दलित जातियां कमोबेश भाजपा में विश्वास जता चुकी थीं.

चालीस फीसदी वोटों और सवा तीन सौ सीटों के साथ मुख्यमंत्री बनाए गए योगी से उम्मीद थी कि वे कम से कम जातिवादी राजनीति से तो परहेज करेंगे ही. मेरा ख्याल है कि भाजपा आलाकमान ने जब उन्हें चुना था, तो यही सोचा भी होगा. जातियों की प्रतियोगिता से बेहाल पड़े उप्र को एक ऐसे मुख्यमंत्री की जरूरत थी भी जो जातियों से परे उठकर शासन-प्रशासन सुनिश्चित कर सके. योगी में एक और संभावना थी कि वे आर्थिक दृष्टि से ईमानदार मुख्यमंत्री हो सकते थे. यह दूसरी संभावना योगीजी ने साकार करके भी दिखाई-उनके ऊपर एक भी पैसे की बेईमानी का आरोप नहीं लगा. लेकिन, उनके मुख्यमंत्रित्व में जमकर जातिवाद हुआ. इस लिहाज से वे जातिवाद करने वाले ब्राrाण, यादव और जाटव मुख्यमंत्रियों से भिन्न साबित नहीं हुए.

नतीजा यह निकला कि भाजपा ने एक बहुजातिगत हिंदू एकता का जो जबरदस्त समीकरण बनाया था, वह गड़बड़ा गया. साथ में योगीजी सुशासन भी नहीं दे पाए. वे धमकाने व दमन करने वाली एक ‘बाहुबली’ सरकार चलाते रहे. उन्होंने स्वयं तो पैसा नहीं खाया, पर वे एक ईमानदार और स्वच्छ प्रशासन की गारंटी नहीं कर पाए. ऊपर से जब किसान आंदोलन शुरू हुआ (जो योगीजी की गलती न होकर केंद्र सरकार की गलतियों का नतीजा है) तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश (जो भाजपा का गढ़ था) भी हिल गया. आज इस हिस्से में जाट, गूजर और मुसलमान मतदाता भाजपा विरोधी गोलबंदी करते हुए दिख रहे हैं. ठाकुरवाद के कारण ब्राrाण वोटर नाराज हैं, अतिपिछड़े और अतिदलित नेता भी नाखुश हैं.

सवाल यह है कि क्या भाजपा आलाकमान को ये हालात नहीं दिखाई दे रहे हैं. मेरा मानना है कि दिखाई दे रहे हैं. समस्या यह है कि योगी को हटाने से मौजूदा मुश्किलों में बढ़ोत्तरी होते हुए दिख रही है. योगी के साथ देश की नौ फीसदी ठाकुर बिरादरी जुड़ गई है. अगर उन्हें हटाया गया तो ये वोट भी नाराज हो जाएंगे. दूसरे, योगी आलाकमान के उस तरह से ताबेदार नहीं हैं जैसे विजय रूपाणी थे. वे अगर क्रोध में आ गए तो भाजपा को नुकसान पहुंचा सकते हैं. इसलिए भाजपा आलाकमान ने उप्र में एंटी-इनकम्बेंसी का मुकाबला योगी के नेतृत्व में ही करने का फैसला किया है. क्या इसके लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया जाएगा?

मुजफ्फरनगर की किसान महापंचायत में राकेश टिकैत द्वारा लगाए गए ‘अल्लाह हू अकबर और हर-हर महादेव’ के मिले-जुले नारे के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो 2013 के सांप्रदायिक दंगे का दोहराव मुमकिन नहीं लग रहा. ऐसे ध्रुवीकरण के लिए भाजपा को प्रदेश का कोई दूसरा कोना चुनना पड़ेगा. और, अगर ध्रुवीकरण हुआ तो योगी सरकार की बदनामी भी होगी. पिछले दंगे तब हुए थे जब भाजपा की सरकार नहीं थी. इन हालात से नहीं लगता कि गुजरात और उप्र के चुनावों में भाजपा किसी बड़ी सांप्रदायिक दुर्घटना को अंजाम देने की कोशिश करेगी.

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