सुशांत झा का ब्लॉग: मुजफ्फरपुर ने उघाड़ दी ‘सुशासन’ की सीमाएं

By सुशांत झा | Published: June 20, 2019 12:05 PM2019-06-20T12:05:19+5:302019-06-20T12:49:34+5:30

बिहार में चमकी बुखार (एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम) से अभी तक 144 बच्चों की मौत हो चुकी है। इस गर्मी में बिहार में 275 लोगों की लू लगने से मौत हो चुकी है। इंसेफेलाइटिस से पीड़ित 500 से ज्यादा बच्चों का इलाज जारी है।

Bihar Muzaffarpur Acute Encephalitis Syndrome Chamki Bukhar and Nitish Kumar Sushasan Limits | सुशांत झा का ब्लॉग: मुजफ्फरपुर ने उघाड़ दी ‘सुशासन’ की सीमाएं

जीतनराम माँझी के संक्षिप्त कार्यकाल को छोड़ दिया जाए तो नीतीश कुमार साल 2005 से लगातार बिहार के मुख्यमंत्री

कभी-कभार आपदा, दुर्घटना और अक्सर चुनाव के वक्त जो बिहार के लोगों की तस्वीर टीवी पर दिखाई जाती है, वो कैसी लगती है? दुबले-पतले स्त्री-पुरुष, सींक से दिखते बच्चे, कोटर में धंसी आंखों वाले बुजुर्ग और झोपड़ी वाले गांव जहां की गलियां सूनी दिखती हैं क्योंकि वहां के नौजवान पलायन कर गए हैं। वहां अब क्रिकेट मैच नहीं होते क्योंकि एक टीम के लायक बच्चे नहीं है। वहां गांव में पहले जैसा साप्ताहिक कीर्तन नहीं होता क्योंकि ढोल और झाल बजाने वाले हाथ नहीं बचे हैं।  

ये बिहार की एक तस्वीर है और बड़ी तस्वीर है। वहां सिर्फ सड़के बनी हैं और 21वीं सदी में जाकर बिजली लगी है। बाकी भगवान भरोसे है। यह कहानी बिहार से हो रहे पलायन, कुपोषण और गरीबी की है जिसे हर पांच साल पर एहसास दिला दिया जाता है कि ये सरकार तुम्हारे द्वारा चुनी गई है। 

बिहार के अस्पतालों में अभी भी पर्याप्त डॉक्टर नहीं है। दवाई नहीं है, सुविधाएं नहीं है। लेकिन ये बातें तो हम बचपन से देखते आ रहे हैं। आखिर नया क्या है जिस पर हंगामा हो रहा है? 

बिहारियों को प्राइवेट नर्सिंग होम और क्लिनिक में इलाज करवाने की आदत है। वे तो बिना सरकार के पिछले कई दशकों से जी रहे थे। आखिर ऐसा क्या हो गया कि पूरा सिस्टम उघड़ गया है? 

बिहार में डेढ़ करोड़ पर एक अस्पताल

बिहार के अस्पताल में <a href='https://www.lokmatnews.in/topics/chamki-fever/'>चमकी बुखार</a> से पीड़ित बच्चे और उनके अभिभावक।
बिहार के अस्पताल में चमकी बुखार से पीड़ित बच्चे और उनके अभिभावक।
जब बिहार की आबादी 4-5 करोड़ थी और दुनिया में प्रदूषण कम था, उस समय भी गरीब मरते थे। लेकिन उस समय की गरीबी ऐसी भयावह थी कि भोजन तक जुटाना मुश्किल था। मीडिया का प्रसार नहीं था, इंटरनेट नहीं था और समाजिक जागरूकता बहुत कम थी। ऐसे में हजारों मौतें तो होती थीं लेकिन उसे गिनने वाला कोई नहीं था। 

आज उसे कोई गिन रहा है। दिक्कत ये है। उसे उजागर किया जा रहा है और उन गरीबों की हालत भोजन-वस्त्र के स्तर पर तो सुधर गई है लेकिन इन दशकों में वे निजी अस्पतालों-नर्सिंग होम में इलाज करवा पाने की स्थिति में नहीं रह गए हैं। अब निजी अस्पताल-क्लिनिक में इलाज का मतलब हजार-पांच सौ का मामला नहीं है। यह सीधे लाखों का मामला है जिस हैसियत में बिहार क्या देश के अधिकांश लोग नहीं हैं।

बिहार में लगभग डेढ़ करोड़ की आबादी पर एक मेडिकल कॉलेज हैं और आबादी के हिसाब से डॉक्टरों की संख्या दुनिया में संभवत: सबसे कम है। उन कॉलेजों में प्रोफेसर नहीं हैं और नए मेडिकल कॉलेज दसियों साल से बन रहे हैं जो पूरा होने का नाम ही नहीं लेते। बिहार में एक कॉलेज-अस्पताल या पुल औसतन 10 साल में बनता है और वो 20-25 साल में टूट भी सकता है (पटना का गांधी पुल इसका उदाहरण है। वो कहानी फिर कभी)। 

अस्पताल का कारोबार

आज से करीब दो-ढाई दशक पहले जब मैं पटना में पढ़ता था तो उस समय बिहार में प्रमुख रूप से तीन कारोबार थे। एक प्राइवेट अस्पतालों-निर्सिंग होम का जाल, प्राइवेट कोचिंग और तीसरा अपरहण उद्योग। अपहरण उद्योग दरअसल अपने इन्हीं दो सहोदर कारोबार के मुखियाओं को लूटने के लिए पैदा हुआ था जिसे बिहार की कानून-व्यवस्था सहयोग करती थी। मुझे याद है कि दरभंगा के सारे मशहूर डॉक्टर(जिनकी अपनी निजी प्रैक्टिस थी) अपने घर में कम से कम एक आईपीएस दामाद लाना चाहते थे और उसके लिए भारी दहेज देते थे। दरअसल वे अपने लिए सुरक्षा का इंतजाम करते थे। बिहार के अन्य शहरों मे भी यही हाल था। 

मुझे याद नहीं कि बिहार में रहते समय मैं कब किसी सरकारी अस्पताल गया था। हमने बचपन से सिर्फ निजी अस्पताल, निजी क्लिनिक या नर्सिंग होम देखे थे। जिला-स्तरीय सरकारी अस्पतालों में जानवर टहलते थे। अत्यधिक गरीब लोग जो निजी डॉक्टरों का खर्च बर्दाश्त नहीं कर पाते वहीं सरकारी अस्पताल जाते। वो हालत अभी भी नहीं सुधरी है।

मैं जब पटना आया तो पीएमसीएच वहां का यों तो बड़ा अस्पताल था लेकिन उसकी भी हालत ठीक नहीं थी। ये वो दौर था जहां हर महीने मध्य बिहार में रणवीर सेना और माओवादियों के बीच हो रहे संघर्ष में गाड़ियों से भर-भरकर लाशें पीएमसीएच आती थीं और अखबार की सुर्खियां बनती थी। लेकिन बिहार में ऐसा कुछ नहीं था कि वहां के मरीज वहीं रहकर इलाज करवाएं। मुझे याद है मेरे गांव के लोग सन् 90 के दशक में भी इलाज करवाने दिल्ली के एम्स तक चले आते थे चूंकि बिहार के गांव खाली होकर दिल्ली में बसने लगे थे। 

नीतीश कुमार ने 15 सालों में क्या किया?

<a href='https://www.lokmatnews.in/topics/nitish-kumar/'>नीतीश कुमार</a> सरकार इससे पहले मुजफ्फरपुर शेल्टर होम केस और भागलपुर सृजन घोटाले के कारणों सवालों के घेरे में आ चुकी है।
नीतीश कुमार सरकार इससे पहले मुजफ्फरपुर शेल्टर होम केस और भागलपुर सृजन घोटाले के कारणों सवालों के घेरे में आ चुकी है।
सवाल ये है कि लोगों को नीतीश कुमार की सरकार ने करीब पंद्रह सालों में क्या किया? और लोगों ने बार-बार उनको क्यों जिताया? इसका जवाब विपक्षी दलों की उन करतूतों में है जिन्होंने बिहार में दशकों राज किया था और वहां सड़कें नहीं थी और बिजली के तार तक नहीं थे। नीतीश ने सड़क-बिजली और कानून-व्यवस्था तो ठीक कर दी, लेकिन स्वास्थ्य, शिक्षा और उद्योग में फिसड्डी रहे। नीतीश बिजली और सड़क के बल पर बार-बार चुनाव जीतते रहे लेकिन अब अस्पतालों में मरते गरीब बच्चे उनसे न्याय मांग रहे हैं। 

बिहार को प्रशासन में नवाचार की जरूरत है। उसे बिजली-सड़क-कानून से ऊपर उठकर कुछ अलग सोचने की जरूरत है। पंद्रह सालों में लालू यादव के समाजिक न्याय की सीमाएं स्पष्ट दिखने लगी थी, अब पंद्रह सालों में नीतीश कुमार के सुशासन की सीमाएं स्पष्ट दिखने लगी हैं। 

Web Title: Bihar Muzaffarpur Acute Encephalitis Syndrome Chamki Bukhar and Nitish Kumar Sushasan Limits

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