विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन जरूरी

By विश्वनाथ सचदेव | Published: October 12, 2019 07:31 AM2019-10-12T07:31:47+5:302019-10-12T07:31:47+5:30

कल तक घना था यह पेड़/ सर पर तना था यह पेड़/ अब सिर्फ तना है/ झड़े नहीं हैं पत्ते, झाड़ दिए गए हैं/ इस ठंूठ के संदर्भ नए नए हैं/ जहां यह पेड़ था

Balance between development and environment is important | विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन जरूरी

विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन जरूरी

Highlights हाल ही में मुंबई में आयोजित एक साहित्यिक कार्यक्र म में इस कविता को याद किया गया थासंदर्भ मुंबई की आरे कॉलोनी में दो हजार से अधिक वृक्षों को काटे जाने का था.

कल तक घना था यह पेड़/ सर पर तना था यह पेड़/ अब सिर्फ तना है/ झड़े नहीं हैं पत्ते, झाड़ दिए गए हैं/ इस ठंूठ के संदर्भ नए नए हैं/ जहां यह पेड़ था, जहां अब तना है/ वहां अब सीमेंट के पेड़ का नक्शा बना है/ ऐसे ही झरती हैं पत्तियां/ सिमटती हैं संस्कृतियां/ पत्थर की सभ्यताएं ऐसे ही जनमती हैं/ पेड़ जब तना बन जाता है, बना दिया जाता है/ तब उस पर कोई परिंदा नहीं आता है’.

यह कविता बरसों पहले लिखी गई थी. तब जरूर कोई हरा-भरा पेड़ कटा होगा, जिसने परिंदे की चीख को जन्म दिया होगा. हाल ही में मुंबई में आयोजित एक साहित्यिक कार्यक्र म में इस कविता को याद किया गया था. संदर्भ मुंबई की आरे कॉलोनी में दो हजार से अधिक वृक्षों को काटे जाने का था.

यह ‘आरे कालोनी’ वस्तुत: महानगर के बीचोबीच ‘बसा’ एक जंगल है. मुंबई वाले इसे शहर को फेफड़ा कहते हैं. सीमेंट के जंगल में खुलकर सांस लेने का एक माध्यम- एक अवसर. मुंबई के ‘नेशनल पार्क’ से जुड़ा यह इलाका शहर में हरे-भरे जंगल का अहसास ही नहीं देता, सीमेंट के जंगल से एक प्रकार की मुक्ति भी देता है. पर अब इस जंगल पर खतरे के बादल ही नहीं मंडरा रहे, उस दिन तो बादल फट भी पड़ा था. एक हादसा हुआ था वहां. मुंबई से प्यार करने वाले इसे ‘कत्ले आम’  कह रहे हैं.  उन्हें बचाने की कोशिश करने वाले गुहार ही लगाते रह गऐ. और मजे की बात यह है कि यह सारा ‘हत्याकांड’  विकास के नाम पर हुआ है.

हुआ यूं कि मुंबई की यातायात की समस्या के हल के लिए और पर्यावरण की रक्षा के नाम पर मेट्रो रेल का जाल बिछाया जा रहा है. संभव है कल इसका परिणाम अच्छा भी निकले, पर आज तो मुंबई का दम घुटने का खतरा मंडरा ही रहा है.मेट्रो वाले इस आरे कॉलोनी के एक बड़े इलाके में मेट्रो रेल के लिए विशाल शेड बना रहे हैं. और इसके लिए ढाई हजार से अधिक पेड़ों को काटना जरूरी हो गया है.पर्यावरण की चिंता करने वाले नागरिकों, जिनमें युवाओं और विद्यार्थियों की संख्या अधिक है, ने मेट्रो के इस कार शेड के खिलाफ एक अभियान छेड़ रखा है. पिछले एक अर्से से पर्यावरण की चिंता करने वाले ये लोग ‘आरे बचाओ’ आंदोलन चला रहे हैं, पर उच्च न्यायालय के एक आदेश ने इस आंदोलन को विफल बना दिया है. जंगल काटने का विरोध करने वालों ने संबंधित अधिकारियों के खिलाफ उच्च न्यायालय में एक मुकदमा दायर कर रखा था.इसी पर फैसला सुनाते हुए अदालत ने कह दिया है कि ‘आरे कालोनी’ जंगल है ही नहीं!  

दोपहर को तीन बजे यह आदेश आया और शाम को सात बजे से ही ‘पेड़ों की हत्या’  का काम प्रारंभ हो गया. मेट्रो रेल वाले वादियों को ऊंची अदालत में जाने का समय ही नहीं देना चाहते थे. देखते ही देखते सैकड़ों पेड़  ‘तना’ यानी ठूंठ बना दिए गए. सांस लेती पत्तियों वाली संस्कृतियां मिटने की प्रक्रि या है यह-- पत्थर की सभ्यताएं ऐसे ही जनमती हैं.‘आरे’  के पेड़ों के ‘कत्ले आम’  की खबर मिलते ही पर्यावरण-प्रेमी बड़ी संख्या में वहां जुटने लगे थे. वे कटे हुए पेड़ों का मातम मना रहे थे. बूढ़े पेड़ों की इस आकस्मिक और पीड़ा देने वाली मौत पर आंसू बहा रहे थे. हाथ जोड़कर पेड़ काटने वालों से प्रार्थना कर रहे थे- आने वाली पीढ़ियों का गला मत घोंटो.

पर सब व्यर्थ था. शासन की सारी ताकत ‘विकास’  के नाम पर तबाही का मंजर जुटाने में लगी थी. चारों तरफ पुलिस तैनात कर दी गई थी. जहां पेड़ कट रहे थे, वहां आंसू बहाने के लिए भी कोई नहीं जा सकता था. शासन इस आंसुओं को नाटक मान रहा है और इसे विकास-विरोधी घोषित करके देश का दुश्मन बता रहा है. उसका तर्क है कि जितने पेड़ कटेंगे, उससे अधिक लगाकर क्षति-पूर्ति कर दी जायेगी.

यह सही है कि विकास के लिए इस तरह की कार्रवाई करनी पड़ सकती है, पर सही यह भी है कि विकास के नाम पर पर्यावरण की रक्षा की उपेक्षा मनुष्यता के संकट का एक कारण भी बन सकती है. पर्यावरणवादियों का कहना है कि आरे कालोनी वाले इस मामले में बेहतर विकल्प उपस्थित हैं, कार-शेड इस जगह के बजाए अन्यत्र अथवा इस जगह के पास ही किसी ऐसी जगह पर बन सकता है, जहां हरे-भरे पेड़ों को काटने की विवशता न हो.पर कथित विकासवादी ऐसे किसी पर्याय के बारे में सोचना भी जरूरी नहीं समझ रहे.

वे अदालती निर्णय की ताकत के सहारे अपना उद्देश्य पूरा करने में जुट गए हैं- उनके लिए यह पर्याप्त है कि अदालत ने आरे कालोनी को जंगल नहीं माना है- और जो जंगल ही नहीं है, उसकी रक्षा का क्या मतलब? सवाल राजनीतिक नफे-नुकसान का भी नहीं है. शिवसेना ने पेड़ों के इस तरह कटने को तो गलत बताया है, पर वह इस सवाल का जवाब नहीं देना चाहती कि सरकार में तो वह अब भी है, फिर क्यों यह गलत काम होने दिया जा रहा है? इस बात का क्या अर्थ है कि यदि हमारी सरकार बनी तो यह कार्य रोक देंगे? तब तक क्या बहुत देर नहीं हो जाएगी? हुक्मरान यह क्यों भूल जाते हैं कि पेड़ जब तना बना दिया जाता है तो उस पर कोई परिंदा नहीं आता? सवाल जीवन को बचाने का है, दांव पर जीवन लगा है.इसकी रक्षा के लिए जागरूक वर्ग को आपराधिक चुप्पी तोड़नी होगी. सवाल पेड़ों को बचाने का नहीं, जीवन को बचाने का है.

Web Title: Balance between development and environment is important

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