अवधेश कुमार का ब्लॉग: आर्थिक क्षेत्र में विदेशी मोर्चे पर बढ़ती चुनौतियों से निपटना जरूरी

By अवधेश कुमार | Published: April 10, 2021 03:12 PM2021-04-10T15:12:19+5:302021-04-10T15:16:04+5:30

अमेरिका से गहरे होते रिश्तों के कारण रूस ने भी भारत को लेकर नकारात्मक टिप्पणियां हाल के दिनों में की हैं. क्वाड की बैठक हुई तो रूसी विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव ने बयान दिया कि पश्चिमी ताकतें चीन-विरोधी खेल में भारत को घसीट रही हैं. रूस की यह टिप्पणी न तो सही थी और न उचित ही.

Avadhesh Kumar's blog: It is important to deal with the growing challenges on the foreign front | अवधेश कुमार का ब्लॉग: आर्थिक क्षेत्र में विदेशी मोर्चे पर बढ़ती चुनौतियों से निपटना जरूरी

सांकेतिक तस्वीर (फाइल फोटो)

पिछले कुछ समय में अंतर्राष्ट्रीय पटल पर ऐसा कुछ घटित हो रहा है जिससे विदेश नीति में रुचि रखने वाले भारतीयों की चिंता बढ़ी होगी. इनमें सबसे अंतिम घटना चीन और ईरान के बीच 25 वर्षीय सामरिक समझौता है.

इसके अनुसार चीन ईरान में 400 अरब डॉलर का निवेश करेगा और दोनों के बीच के व्यापार को 600 अरब डॉलर करने का लक्ष्य रखा गया है. चीन-ईरान समझौता अमेरिका के लिए चुनौती है क्योंकि नाभिकीय समझौते को रद्द कर अमेरिका के पूर्व ट्रम्प प्रशासन ने उसको प्रतिबंधित किया हुआ है.

प्रतिबंधों के बीच कोई देश ईरान से समझौता कर रहा है तो उसे मालूम है कि यह अमेरिका को दी गई चुनौती है. हालांकि जो बाइडेन के अमेरिकी राष्ट्रपति पद ग्रहण करने के बाद उम्मीद की जा रही है कि ईरान पर लगे प्रतिबंध हटेंगे.

दोनों के बीच बातचीत हो रही है लेकिन अमेरिका ने अभी तक इसे लेकर कोई स्पष्ट बयान नहीं दिया है. प्रतिबंध हटाने के बावजूद अमेरिका ईरान के नाभिकीय कार्यक्रमों को लेकर अपनी सोच बदल नहीं सकता. अमेरिकी प्रतिबंध ईरान के अलावा रूस पर हैंऔर चीन भी व्यापार के मामलों में उसके आंशिक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है.

चीन और रूस दोनों का कहना कि अमेरिका जितनी जल्दी हो सके ईरान पर लगाए गए प्रतिबंध बिना शर्त वापस ले. इसके मायने यही हैं कि दोनों देश अमेरिका के विरुद्ध गोलबंदी को आगे बढ़ाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं. यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि चीन, रूस और ईरान के अलावा पूर्व में तुर्की तथा पाकिस्तान एक साथ आ रहे हैं. प्रश्न है कि भारत के लिए ये चुनौतियां कितनी बड़ी हैं?

भारत के लिए चीन कितनी बड़ी चिंता का कारण है, पड़ोस में वह क्या कर रहा है, धरती, समुद्र और आकाश के साथ संपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय पटल पर वह कैसी चुनौतियां पेश कर रहा है इसे बताने की आवश्यकता नहीं. ईरान के चाबहार बंदरगाह और उससे जुड़ने वाली परिवहन व्यवस्था के निर्माण में भारत काफी पूंजी लगा चुका है.

चीन ईरान-भारत चाबहार समझौते के पक्ष में कभी नहीं रहा. भारत के लिए यह केवल व्यापारिक और आर्थिक नहीं बल्कि रणनीतिक रूप से भी काफी महत्वपूर्ण है. अगर चीन अपनी घोषणा के अनुरूप अगले 25 वर्षो तक ईरान के हर क्षेत्र में भारी निवेश करेगा तो जाहिर है वह दूसरे देशों को रणनीतिक रूप से प्रभावी न होने देने की भी कोशिश करेगा. चीन अफगानिस्तान से लेकर पश्चिम एशिया, मध्य एशिया सब जगह अपने पांव पसार रहा है और इससे भारत की मुश्किलें बढ़ रही हैं. 

अमेरिका से गहरे होते रिश्तों के कारण रूस ने भी भारत को लेकर नकारात्मक टिप्पणियां हाल के दिनों में की हैं. क्वाड की बैठक हुई तो रूसी विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव ने बयान दिया कि पश्चिमी ताकतें चीन-विरोधी खेल में भारत को घसीट रही हैं. रूस की यह टिप्पणी न तो सही थी और न उचित ही.

ऐसा नहीं है कि इसके पूर्व भारत ने कभी रूस या पूर्व सोवियत संघ की इच्छाओं के विपरीत बयान नहीं दिया या कदम नहीं उठाया. भारत सोवियत संघ मैत्नी के रहते हुए भी अफगानिस्तान में सोवियत की लाल सेना की कार्रवाई का भारत ने समर्थन नहीं किया. भारत को कुछ संकेत देने के लिए ही सर्जेई लावरोव ने भारत के साथ पाकिस्तान की यात्रा की है.

चीन का बयान ज्यादा आक्षेपकारी था. उसने यहां तक कहा था कि भारत ब्रिक्स और एससीओ यानी शंघाई सहयोग संगठन के लिए नकारात्मक साबित हो रहा है. चीन का स्पष्ट बयान हमारे लिए इस बात की चेतावनी है कि वह भारत के विरुद्ध अपनी हरसंभव कोशिशें जारी रखेगा. इसमें भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार भी शामिल है. 

रूस ने अफगानिस्तान को लेकर पिछले दिनों जो सम्मेलन बुलाया उसमें भारत को आमंत्रित नहीं किया गया जबकि पाक उसमें आमंत्रित था. इसके विपरीत अमेरिका में अफगानिस्तान की शांति वार्ता में भारत को निमंत्रित किया गया है. रूस की नीति संतुलित नहीं है. 

भारत के लिए पश्चिम एशिया में अपने हितों की रक्षा के साथ प्रशांत क्षेत्न में अपनी उपस्थिति और सक्रियता सशक्त करना, हिंद महासागर में सामरिक स्थिति को सुदृढ़ बनाए रखना तथा दक्षिण एशिया के देशों विशेषकर श्रीलंका, मालदीव आदि के द्वीपीय इलाकों में सतर्क रहना अत्यावश्यक है. इन क्षेत्नों में अगर कोई चुनौती है तो चीन.

चीन हर जगह ऐसी गतिविधियां कर रहा है जिससे केवल क्षेत्नीय ही नहीं, विश्व शांति को खतरा पैदा हो सकता है. हिंद महासागर का जिस सीमा तक सैनिकीकरण हो चुका है उसमें भारत के पास उसकी प्रतिस्पर्धा में शामिल रहने के अलावा कोई चारा नहीं है.

इसमें अमेरिका के दिएगोगार्सिया जैसे सैन्य अड्डे तक प्रवेश भारत की जरूरत है और वहां तक पहुंच हो रही है. रूस या चीन कोई भी चुनौती उत्पन्न करें, भारत इससे अलग नहीं हो सकता. जब भी कोई देश खुलकर बेहिचक सामरिक हितों को साधता है तो विरोध और दबाव बढ़ता है.

भारत तो विश्व शांति और राष्ट्रों के सहअस्तित्व के लक्ष्य का ध्यान रखते हुए अपना विस्तार कर रहा है जबकि चीन के लिए इसके कोई मायने नहीं. भारत के लिए ईरान के मामले में चीन समस्याएं पैदा करेगा, रूस भी संभव है कई मामलों में हमारे विरोध में रहे, पाकिस्तान, तुर्की जैसे देश तो होंगे ही, कुछ और देश भी उनके साथ आ सकते हैं. निश्चित रूप से भारतीय रणनीतिकार इसके लिए कमर कस रहे होंगे. जरूरी है कि राजनीतिक दल विदेशी मोर्चे पर एकजुट रहें.

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