अश्वनी कुमार का ब्लॉग: हिरासत में अत्याचारों का थमना जरूरी
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: June 26, 2019 06:24 AM2019-06-26T06:24:20+5:302019-06-26T06:24:20+5:30
‘टॉर्चर अपडेट : इंडिया’ रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार ने संसद में दी गई अपनी जानकारी में एक अप्रैल 2017 से 28 फरवरी 2018 के बीच हिरासत में 1674 मौतों (1530 न्यायिक हिरासत में और 144 पुलिस हिरासत में) की पुष्टि की है.
संयुक्त राष्ट्र द्वारा 26 जून को अत्याचार पीड़ितों के समर्थन में मनाया जाने वाला दिवस घोषित किया गया है. यह दिन उन लोगों को याद करने का अवसर है जिन्होंने अकल्पनीय पीड़ा सही और मनुष्यता का मखौल उड़ाने वाले कस्टोडियल टॉर्चर के खिलाफ सामूहिक विवेक को जागृत किए जाने पर जोर दिया. हाल ही में पंजाब में एक आरोपी की हिरासत में मौत और गुजरात के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को पुलिस हिरासत में मौत के मामले में सजा ने हिरासत में अत्याचार किए जाने के सवाल पर राष्ट्रीय बहस को फिर से ताजा कर दिया है.
मानवीय गरिमा और बुनियादी अधिकार, जो इसे परिभाषित करते हैं, ऐसा राजनैतिक- नैतिक विचार है, जिसे सार्वभौमिक स्वीकृति मिली है. सुप्रीम कोर्ट ने गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार को ‘संवैधानिक मूल्यों के शिखर पर..’ रखा है, जिसे ‘हमारी मानवता की स्वाभाविक विरासत’ माना जाना चाहिए. (एम. नागराज, 2016).
भारत सरकार के विधायी और कार्यकारी अंग, जो मानव अधिकारों के लिए प्रतिबद्धता की घोषणा करते हैं, हिरासत में अत्याचार के अपराध को खत्म करने के अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करने में सफल नहीं हुए हैं.
1997 में अत्याचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित प्रस्ताव के पक्ष में भारत द्वारा हस्ताक्षर करने के बावजूद, इस अपराध को हमारे घरेलू कानूनों के अंतर्गत कोई विशिष्ट अपराध नहीं ठहराया गया है. इस संबंध में हम उन कुछ अप्रतिष्ठित देशों की सूची में हैं, जिन्होंने अपने घरेलू कानूनों के अभाव में संयुक्त राष्ट्र के करार का पालन नहीं किया है.
इस बीच, भारत में हिरासत में अत्याचार का सिलसिला निरंतर जारी है. 2018 की एशियन सेंटर फार ह्यूूमन राइट्स की ‘टॉर्चर अपडेट : इंडिया’ रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार ने संसद में दी गई अपनी जानकारी में एक अप्रैल 2017 से 28 फरवरी 2018 के बीच हिरासत में 1674 मौतों (1530 न्यायिक हिरासत में और 144 पुलिस हिरासत में) की पुष्टि की है. जबकि आमतौर पर माना जाता है कि देश में हिरासत में अत्याचार के हजारों मामलों का पता ही नहीं चलता. हिरासत में अत्याचार की इन घटनाओं ने ही भारत से भाग कर बाहर जाने वालों को प्रत्यर्पण के विरोध में यह दलील देने में सक्षम बनाया है कि आपराधिक मामलों की जांच के दौरान उन पर अत्याचार किया जाएगा.
हिरासत में अत्याचार की बार-बार होने वाली घटनाओं को देखते हुए, उम्मीद है कि मोदी सरकार प्राथमिकता से कस्टोडियल टॉर्चर के खिलाफ एक व्यापक कानून बनाएगी, ताकि सभी को गरिमा के साथ जीवन जीने का संवैधानिक अधिकार मिले. आखिरकार ‘सबका विश्वास’ और ‘सबका सम्मान’ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. यह वास्तव में स्वतंत्रता के अनुमोदन और मानवीय गरिमा की दिशा में महत्वपूर्ण
कदम होगा.