ब्लॉग: राजनीति में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति खतरनाक

By विश्वनाथ सचदेव | Published: January 17, 2022 11:18 AM2022-01-17T11:18:56+5:302022-01-17T11:24:54+5:30

ऐसा नहीं है कि चुनावों में धार्मिक भावनाओं को उभारने और उनका चुनावी-लाभ उठाने का काम पहले नहीं होता था, पर पिछले कुछ वर्षो में यह खतरनाक प्रवृत्ति लगातार बढ़ी है.

assembly elections 2022 politics communal polarization | ब्लॉग: राजनीति में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति खतरनाक

ब्लॉग: राजनीति में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति खतरनाक

Highlightsउत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों की सरगर्मी तेज हो रही है.ऐसे मुद्दे हवा में उछाले जा रहे थे, जिन्हें सिर्फ अनुचित कहा जा सकता है.ऐसा ही एक मुद्दा धार्मिक और जातीय आधार पर समाज का ध्रुवीकरण है.

इधर कोरोना का संकट गहरा रहा है, उधर उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों की सरगर्मी तेज हो रही है. चुनावों की तारीखें घोषित होने के बाद से चुनाव-प्रचार में तेजी आना स्वाभाविक था. 

ऐसा नहीं है कि इससे पहले चुनाव-प्रचार का काम नहीं हो रहा था, सभी दल इस संदर्भ में पूरी कोशिश में लगे थे. यह आसानी से देखा जा सकता था कि जिसके पास जितने साधन थे, वह उसी के अनुसार प्रचार-कार्य में लगा था. 

इस प्रचार-कार्य पर उंगली तो उठाई जा सकती है, पर यह कहना सही नहीं होगा कि सब कुछ गलत हो रहा था. लेकिन यह भी सही है कि जिन मुद्दों पर जोर दिया जाना चाहिए था वे कहीं हाशिये पर थे और ऐसे मुद्दे हवा में उछाले जा रहे थे, जिन्हें सिर्फ अनुचित कहा जा सकता है.

ऐसा ही एक मुद्दा धार्मिक और जातीय आधार पर समाज का ध्रुवीकरण है. देश का प्रबुद्ध नागरिक पहले भी ध्रुवीकरण की इस प्रवृत्ति से चिंतित था, आज भी है.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का हाल ही में दिया गया एक बयान इसका ताजा उदाहरण है. उन्होंने एक चुनावी-सभा में राज्य में चुनावी-लड़ाई को ‘अस्सी प्रतिशत बनाम बीस प्रतिशत’ के बीच मुकाबले का नाम दिया है. 

हालांकि, उन्होंने यह कहकर अपने मंतव्य पर एक पर्दा डालने का प्रयास भी किया है कि उनके विरोधी बीस प्रतिशत में वे लोग हैं जिनका रिश्ता ‘आपराधिक गतिविधियों’ से है, पर यह बात समझने के लिए किसी उच्च स्तरीय गणित की आवश्यकता नहीं है कि देश में और उत्तर प्रदेश में भी, धार्मिक आधार पर जनसंख्या का बंटवारा अस्सी प्रतिशत और बीस प्रतिशत ही है.

मुख्यमंत्री योगी और उनके समर्थक भले ही बीस प्रतिशत की कुछ भी व्याख्या करें, पर देश की बीस प्रतिशत आबादी के प्रति उनका रुख किसी से छिपा नहीं है.

राजनेताओं को भले ही यह सौदा फायदे का लगता हो, पर उनका यह चुनावी गणित सारे देश की समरसता और एकता का संतुलन बिगाड़ने वाला है. ऐसा नहीं है कि चुनावों में धार्मिक भावनाओं को उभारने और उनका चुनावी-लाभ उठाने का काम पहले नहीं होता था, पर पिछले कुछ वर्षो में यह खतरनाक प्रवृत्ति लगातार बढ़ी है.

समूची राजनीति को मात्र चुनावी लाभ की नजर से देखने वाले हमारे राजनेताओं को उन मुद्दों की कोई चिंता नहीं है जिनका देश की जनता के हितों से सीधा रिश्ता है. 

आज देश के सामने बेरोजगारी एक गंभीर समस्या है. सरकार के सारे दावों के बावजूद देश में बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ रही है. ऐसा ही दूसरा मुद्दा महंगाई है. 

आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले दो सालों में देश में मध्यम वर्ग का आकार सिकुड़ा है, अर्थात मध्यम वर्ग वाले एक सीढ़ी नीचे उतर गए हैं. यह वही वर्ग है जो महंगाई की मार सबसे ज्यादा झेल रहा है. 

आखिर क्या कारण है कि महंगाई और बेरोजगारी हमारे राजनीतिक दलों को, विशेषकर सत्ता में बैठे राजनेताओं को चिंतित नहीं करती? क्यों हमारे राजनेता मतदाताओं को कभी धार्मिक उन्माद की खुराक देते हैं और कभी संस्कृति के नाम पर राष्ट्रवाद की भावनाएं भड़काने की कोशिश करते हैं?

मतदाताओं को हिंदू-मुसलमान में बांटना कोई गलती नहीं, एक अपराध है. गंभीर अपराध. खुलेआम अस्सी प्रतिशत बनाम बीस प्रतिशत की बात करके हमारे नेता यही अपराध कर रहे हैं

सवाल उठता है कि धर्म राजनीति का विषय बने ही क्यों? कोई किस विधि से पूजा-अर्चना करता है, यह उसका निजी निर्णय है. व्यक्ति की अपनी आस्था होती है, अपनी श्रद्धा होती है. 

इस आस्था श्रद्धा का राजनीतिकरण किसी के फायदे की चीज हो सकती है, पर इस प्रवृत्ति के चलते घाटे में हम ही रहते हैं, हम यानी ‘भारत के लोग’ जिन्होंने अपने संविधान में सेक्युलर होने की शपथ ली है. जिन्होंने सोच-समझकर देश के हर नागरिक को समानता का अधिकार दिया है. 

धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग के नाम पर भारतीय समाज को बांटने की कोई भी कोशिश हमारे संविधान का उल्लंघन है, अपराध है. और यह सब कुछ होते हुए देखते रहना भी एक अपराध से कम नहीं है. सह-अस्तित्व हमारे राष्ट्रीय चरित्र की गौरवशाली परंपरा और विशेषता है. 

आज यदि कोई सबके विकास की बात करता है तो उसका सिर्फ यही अर्थ हो सकता है कि एक अरब तीस करोड़ भारतवासी साथ मिलकर विकास की राह पर आगे बढ़ें. 

चुनाव एक व्यवस्था है जो हमने अपने लिए स्वीकारी है, हम चुनाव के लिए नहीं बने इसलिए चुनाव में सफलता के लिए यदि हमें यानी भारतीयों को बांटने की कोशिश की जाती है तो इस कोशिश का हर संभव तरीके से विरोध होना चाहिए. 

सवाल अस्सी बनाम बीस का नहीं, पूरे सौ का है. राजनेताओं से निवेदन है देश के मतदाता को भारतीय बना रहने दें.

Web Title: assembly elections 2022 politics communal polarization

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