विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः चुनावों का स्तर गिरना चिंताजनक
By विश्वनाथ सचदेव | Published: December 12, 2018 10:05 AM2018-12-12T10:05:44+5:302018-12-12T10:05:44+5:30
स्वतंत्नता-प्राप्ति के सात दशक बाद इस तरह की स्थिति जनतंत्न में विश्वास करने वालों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए . नागरिकों की सतत जागरूकता जनतंत्न की सफलता की सबसे महत्वपूर्ण शर्त है. जागृत जनमत का मतलब जनता को अपनी मुट्ठी में समझने वाले नेताओं को यह बताते-जताते रहना है कि वह उसकी कथनी-करनी पर नजर रखे हुए है.
पांच राज्यों में चुनाव-प्रक्रिया पूरी हो चुकी. मतगणना भी हो गई. हारने-जीतने वाले अपने-अपने आकलनों में लगे हैं. नए राजनीतिक समीकरणों की बातें हो रही हैं. आगे आने वाले आम-चुनावों की संभावनाओं की आहटें सुनने लगे हैं राजनीतिक दल और राजनीति के खिलाड़ी. इस सारी गहमागहमी के बीच एक सवाल और भी है, जिस पर गौर किया जाना जरूरी है- यह सवाल है, इन चुनावों में देश ने क्या खोया और क्या पाया? हकीकत यह है कि जहां एक ओर मतदान के बढ़े हुए आंकड़े जनतंत्न के प्रति मतदाता की बढ़ी हुई आकांक्षाओं और उसके बढ़ते विश्वास का संकेत दे रहे हैं, वहीं दूसरी ओर चुनाव-प्रचार में राजनेताओं और राजनीतिक दलों का घटता स्तर जनतांत्रिक व्यवस्था के प्रति नई आशंकाओं को भी जन्म दे रहा है.
यह सही है कि चुनाव लड़ने वाले हर प्रत्याशी का उद्देश्य चुनाव जीतना ही होता है, और इसमें कुछ गलत भी नहीं है, पर किसी भी कीमत पर जीत के इस खेल में वस्तुत: जनतंत्न की हार ही होती है. पिछले एक अर्से में चुनाव-प्रचार में अपनाए गए तरीकों के औचित्य पर लगातार चर्चा हुई है. बार-बार यह बात कही गई है कि प्रत्याशियों को कुछ करने-कहने से पहले मर्यादाओं का ध्यान रखना चाहिए.
बार-बार इस को दुहराया गया है कि जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा चुनाव जीतने से कम महत्वपूर्ण नहीं है. सब यह जानते हैं कि चुनाव जीतने-हारने के बाद सत्ता की राजनीति की बिसात पर न जाने कितने और कैसे समझौते करने पड़े. ऐसे में चुनाव-प्रचार के दौरान कही गई बातें, लगाए गए आरोप, सामान्यत: आंख मिलाने में भी संकोच का कारण बन सकते हैं.
हमारे राजनेताओं को ऐसी चीजों से फर्क नहीं पड़ता. पर जनतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से देखें तो हमारे नेताओं का यह बेलगाम आचरण अस्वीकार्य होना चाहिए. पिछले कुछ दशकों में चुनाव-प्रचार का स्तर लगातार गिरा है. कोई भी राजनीतिक दल इस गिरावट से बचा नहीं दिख रहा. संवैधानिक और जनतांत्रिक मूल्यों की इस गिरावट के प्रति चिंता होनी चाहिए. राजनेता तो नहीं पूछेंगे, लेकिन मतदाताओं को यह सवाल जरूर पूछना चाहिए कि उन चुनावों का मतलब क्या है जिनमें संवैधानिक मूल्यों के परखच्चे उड़ाए जाते हैं?
आरोप-प्रत्यारोप चुनाव-प्रचार का स्वाभाविक हिस्सा हैं. आरोप तो लगेंगे ही, लेकिन क्या यह जरूरी नहीं है कि आरोप बेबुनियाद न हों? जिस तरह की अशिष्ट और असंयत भाषा का प्रयोग इस बार हमारे राजनेताओं ने किया है, उसे देखकर आश्चर्य भी होता है, और दुख भी होता है. बेहतर होता कि चुनाव नीतियों के आधार पर लड़े जाते, पर हमने तो ये चुनाव किसी के गोत्न, किसी के मंदिर जाने-न-जाने, किसी की कथित नीची जाति तक सीमित कर दिए.
स्वतंत्नता-प्राप्ति के सात दशक बाद इस तरह की स्थिति जनतंत्न में विश्वास करने वालों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए . नागरिकों की सतत जागरूकता जनतंत्न की सफलता की सबसे महत्वपूर्ण शर्त है. जागृत जनमत का मतलब जनता को अपनी मुट्ठी में समझने वाले नेताओं को यह बताते-जताते रहना है कि वह उसकी कथनी-करनी पर नजर रखे हुए है. दुर्भाग्य से, नेतृत्व का व्यवहार यह बता रहा है कि उसे ऐसा नहीं लग रहा. दुर्भाग्य के इस साये को हटाना जरूरी है. यह तभी होगा जब नेता सचमुच सेवक की भूमिका में आ जाएं.