जवाहर सरकार का ब्लॉगः आखिरकार ध्वस्त हुई भाजपा की अजेयता
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 14, 2018 05:13 AM2018-12-14T05:13:44+5:302018-12-14T05:13:44+5:30
आखिरकार, भाजपा पहले भी एक बार वाजपेयी के नेतृत्व में सत्ता में आई थी, लेकिन उसने हिंदू बहुसंख्यकवाद के चेहरे को इस तरह से प्रकट नहीं किया था. सबसे अधिक परेशान करने वाली बात यह कि अपराधियों में इस बात का कोई भय ही नहीं कि उन्हें दंडित किया जाएगा.
जवाहर सरकार
जब नरेंद्र मोदी 2014 में सत्ता में आए, तो यह न सिर्फ अविश्वसनीय था बल्कि बेहद आश्चर्यजनक भी. 1984 के बाद से तीस वर्षो में कोई भी अकेली पार्टी ऐसे बहुमत के साथ चुनाव नहीं जीत सकी थी. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में 404 सीटें जीतने वाली कांग्रेस पार्टी महज 44 सीटों पर सिमट गई. मोदी ने चुनावी भविष्यवाणियों को खारिज करते हुए, 282 सीटों पर जीत हासिल कर अपनी पहले की सीटों की संख्या को दोगुना कर लिया.
उन्होंने कुल वोटों में से प्रभावशाली 31 प्रतिशत वोट हासिल किए और यहां तक कि मुस्लिमों के एक वर्ग ने भी उन्हें वोट दिया. दोनों स्टॉक मार्केट में उछाल आया और भारतीय रुपए में भी- जो उनकी स्वीकृति का प्रमाण था. इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय मीडिया ने मोदी की ऐसी छवि के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कि भारत का नेतृत्व उन्हीं के हाथों में होना चाहिए. कॉर्पोरेट क्षेत्र स्पष्ट रूप से उनके पक्ष में था, क्योंकि मुख्यमंत्री के रूप में अपने बारह वर्ष से अधिक के कार्यकाल में उन्होंने बड़ी मेहनत से अपनी व्यापार-अनुकूल छवि बनाई थी. सोशल मीडिया को उन्होंने अपना ब्रह्मास्त्र बनाया और अपने लाभ के लिए उसका पूरा इस्तेमाल किया, खासतौर पर उन युवाओं के बीच, जिनका बदलाव और रोजगार के लिए उनकी ओर झुकाव था.
लेकिन उनके सत्ता में आने के बाद जो कुछ हुआ, उससे उन अनगिनत भारतीयों को निराशा हुई, जिन्होंने बदलाव और विकास के लिए वोट दिया था. जो धर्मनिरपेक्ष संविधान और उसमें निहित बहुलता तथा स्वतंत्रता के पक्षधर थे, उनके लिए भी इन मूल्यों को कुचले जाते देखना दर्दनाक था. हालांकि अपने चुनाव अभियान में भाजपा ने हिंदू राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के संदर्भो को सीधे उठाने से परहेज किया था, लेकिन एक बार सत्ता में आने के बाद, दक्षिणपंथी तत्वों ने ऐसा जहर उगलना शुरू किया, जैसा पहले नहीं देखा गया था.
आखिरकार, भाजपा पहले भी एक बार वाजपेयी के नेतृत्व में सत्ता में आई थी, लेकिन उसने हिंदू बहुसंख्यकवाद के चेहरे को इस तरह से प्रकट नहीं किया था. सबसे अधिक परेशान करने वाली बात यह कि अपराधियों में इस बात का कोई भय ही नहीं कि उन्हें दंडित किया जाएगा.
मुख्यधारा का अधिकांश मीडिया जहां इसका मूकदर्शक बना रहा, वहीं सोशल मीडिया की दुनिया में उन्मत्त ट्रोल्स और फर्जी समाचार गढ़ने वालों ने वाट्सएप्प, फेसबुक और ट्विटर पर कब्जा कर लिया. नेहरू, इंदिरा और ‘राजवंश’ के बारे में पूर्वनियोजित ढंग से जहर फैलाया गया. घृणा के इस अच्छी तरह से वित्तपोषित उद्योग ने मुख्यधारा के मीडिया से परहेज किया, क्योंकि इससे उनके दावों का खुलासा हो जाता और कानूनी कार्रवाई भी की जा सकती थी. योगी आदित्यनाथ जैसे मुख्यमंत्री ने अधिक जहर उगला और हत्या करने वाले कथित गोरक्षकों को सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया. इसका नतीजा पूर्वनियोजित हिंसा और स्थानीय दंगों की एक श्रृंखला के रूप में सामने आया.
राष्ट्रीय स्तर पर, यह एक वन मैन शो था, जैसा भारत ने पहले कभी नहीं देखा था. हर मंत्रलय प्रधानमंत्री द्वारा ही चलाया जाता प्रतीत होता था और लोगों को सारे बड़े लाभ मानो अकेले उनके द्वारा दिए गए थे, क्योंकि उन्हीं के मुस्कुराते हुए बड़े-बड़े होर्डिग हर जगह लगे थे. इस साल मई में, एक आरटीआई में खुलासा हुआ कि केंद्र सरकार ने 4346 करोड़ रु. केवल खुले प्रचार में खर्च किए और कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता कि सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों और सार्वजनिक वित्त पोषित संगठनों ने छवि के निर्माण में कितना पैसा लगाया होगा.
नोटबंदी के कारण छोटे उद्योगों और स्वरोजगार करने वालों को सर्वाधिक नुकसान उठाना पड़ा. यहां तक कि थोड़ा बेहतर वर्ग भी इस मार की जद में आया. इसके बाद संसद में एक जुलाई 2017 की आधी रात को जीएसटी की घोषणा की गई. जीएसटी ने व्यापार और उद्योग को ऐसे बंधनों में जकड़े रखा जिससे वे महीनों तक उबर नहीं पाए और अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा. इससे लोगों में क्षोभ पैदा हुआ और संसद के उपचुनावों में उन्होंने इसे प्रकट भी किया, जिसमें भाजपा की हार-दर-हार हुई. इससे भी भाजपा ने कुछ नहीं सीखा. यहां तक कि अपने गृहक्षेत्र गुजरात में भी मोदी बस किसी तरह से जीत हासिल करने में कामयाब हुए. इसके बाद, निरंतर प्रचार के बावजूद उन्होंने कर्नाटक जैसे प्रमुख राज्य को खो दिया.
सिर्फ हिंदीबेल्ट के राज्यों छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश को खोने के बाद ही उन्होंने ‘मैं नम्रता से स्वीकार करता हूं’ जैसे शब्दों का उच्चारण किया है. लेकिन हम जानते हैं कि उन्होंने भारत को मुख्य विपक्षी दल से मुक्त करने की शपथ ली है. लेकिन जो लोकतंत्र को फिर से लाने की कोशिश कर रहे हैं वे ‘भाजपामुक्त भारत’ की इच्छा कभी नहीं कर सकते. हम सब चाहते हैं कि भाजपा ताजा चुनावी फैसले से अगले छह माह के लिए सबक ले और 2014 में किए गए अपने वादे के कम से कम छोटे से हिस्से को तो पूरा करने की कोशिश करे.