भीड़ में खोया मतदाता, सत्ता में सिमटता लोकतंत्र, कुमार प्रशांत का ब्लॉग

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 6, 2021 03:08 PM2021-04-06T15:08:39+5:302021-04-06T15:14:36+5:30

वेस्ट बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में चुनाव हो रहा है. एनडीए गठबंधन और यूपीए गठजोड़ में टक्कर है.

assembly election 2021 baba saheb bhim rao ambedkar Lost voters crowd shrinking democracy in power Kumar Prashant's blog | भीड़ में खोया मतदाता, सत्ता में सिमटता लोकतंत्र, कुमार प्रशांत का ब्लॉग

चुनावों को लोकतंत्र के शिक्षण का महाकुंभ बनाया जाता लेकिन यह बनता गया विषकुंभ! (file photo)

Highlightsसभी दलों ने अपने यहां बाहुबली-आरक्षण कर लिया. हर पार्टी के पास अपने-अपने बाहुबली होने लगे.चुनाव विशेषज्ञों के ‘जादू’ से जीते जाने लगे.

कुमार प्रशांत

स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव से चलें हम और अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव का हंगामा मचा है, उस तक का सिलसिला देखें तो हमारे लोकतंत्न की तस्वीर बहुत डरावनी दिखाई देने लगी है.

अब हो यह रहा है कि हमारे लोकतंत्र में किसी को भी न लोक की जरूरत है, न मतदाता की. सबको चाहिए भीड़- बड़ी-से-बड़ी भीड़, बड़ा-से-बड़ा उन्माद, बेतहाशा शोर! लोकतंत्न को भीड़तंत्न में बदल कर सभी दल व सभी नेता मस्त हैं. सबसे कद्दावर उसे माना जा रहा है जो सबसे बड़ा मजमेबाज है.

कुछ ऐसा ही आगत भांप कर संविधान सभा में बाबासाहब आंबेडकर ने कहा था कि लोकतंत्र अच्छा या बुरा नहीं होता है. वह उतना ही अच्छा या बुरा होता है जितने अच्छे या बुरे होते हैं उसे चलाने वाले! कोई 70 साल पहले हमारी लोकतांत्रिक यात्ना यहां से शुरू हुई थी कि हमें अपने मतदाता को मतदान के लिए प्रोत्साहित करना पड़ता था.

मुट्ठी भर धनवान मतदान करने जाने में अपनी हेठी समझते थे तो सामान्य मतदाता इसे व्यर्थ समझता था. यह दौर लंबा चला लेकिन सिमटता भी गया. फिर हमने चुनाव आयोग का वह शेषन-काल देखा जब आयोग की पूरी ताकत बूथ कैप्चरिंग को रोकने और आर्थिक व जातीय दृष्टि से कमजोर वर्गों को बूथ तक नहीं आने देने के षड्यंत्न को नाकाम करने में लगती थी. यह दौर आया और किसी हद तक गया भी.

फिर वह दौर आया जब बाहुबलियों के भरोसे चुनाव लड़े व जीते जाने लगे. फिर बाहुबलियों का भी जागरण हुआ. उन्होंने कहा कि दूसरों को चुनाव जितवाने से कहीं बेहतर क्या यह नहीं है कि हम ही चुनाव में खड़े हों और हम ही जीतें भी? राजनीतिक दलों को भी यह सुविधाजनक लगा. सभी दलों ने अपने यहां बाहुबली-आरक्षण कर लिया. हर पार्टी के पास अपने-अपने बाहुबली होने लगे.

फिर हमने देखा कि बाहुबलियों के सौदे होने लगे. सांसदों-विधायकों की तरह ही बाहुबली भी दल-बदल करने लगे. लेकिन बढ़ते लोकतांत्रिक जागरण, मीडिया का प्रसार, चुनाव आयोग की सख्ती, आचार संहिता का दबाव आदि-आदि ने बाहुबलियों को बलहीन बनाना शुरू कर दिया. वे जीत की गारंटी नहीं रह गए. यहां से आगे हम देखते हैं कि चुनाव विशेषज्ञों के ‘जादू’ से जीते जाने लगे.

होना तो यह चाहिए था कि चुनावों को लोकतंत्र के शिक्षण का महाकुंभ बनाया जाता लेकिन यह बनता गया विषकुंभ! लोकतांत्रिक आदर्श व मर्यादाएं गंदे कपड़ों की तरह उतार फेंकी गईं. सबके लिए राजनीति का एक ही मतलब रह गया : येनकेन-प्रकारेण सत्ता पाना और सत्ता पाने का एकमात्न रास्ता बना चुनाव जीतना!

किसने, कैसे और क्यों चुनाव जीता, यह देखना-पूछना सबने बंद कर दिया और जो जीता उसके लिए नारे लगाए जाने लगे : हमारा नेता कैसा हो.. विनोबा भावे ने हमारे चुनावों के इस स्वरूप पर बड़ी ही मारक टिप्पणी की : यह आत्म-प्रशंसा, परनिंदा और मिथ्या भाषण का आयोजन होता है. अब किसी ने इसे ही यूं कहा है : चुनाव जुमलेबाजी की प्रतियोगिता होती है.

जिन पांच राज्यों में चुनाव चल रहे हैं वहां से कैसी-कैसी आवाजें आ रही हैं, सुना है आपने? कोई धर्म की आड़ ले रहा है, कोई जाति की गुहार लगा रहा है, कोई अपने ही देशवासी को बाहरी कह रहा है तो कोई अपना गोत्न और राशि बता रहा है. कोई किसी की दाढ़ी पर तो कोई किसी की साड़ी पर फब्ती कस रहा है. साम-दाम-दंड-भेद कुछ भी वर्जित नहीं है इन चुनावों में.

सार्वजनिक धन से सत्ता खरीदने का बेशर्म खेल चल रहा है लेकिन न चुनाव आयोग को, न अदालत को, न राष्ट्रपति को ही लगता है कि संवैधानिक नैतिकता का कोई एक धागा उनसे भी जुड़ता है! आप ध्यान से सुनेंगे तो भी नहीं सुन सकेंगे कि कोई कार्यक्रमों की बात कर रहा है, कोई विकास का चित्न खींच रहा है, कोई मतदाताओं का विवेक जगाने की बात कर रहा है.

सभी मतदाता को भीड़ में बदलने का गर्हित खेल खेल रहे हैं ताकि मानवीय विकृतियों-कमजोरियों का बाजार अबाध चलता रह सके. हमारा लोकतंत्न अब इस मुकाम पर पहुंचा है कि किसी भी पार्टी को मतदाता की जरूरत नहीं है. सजग, ईमानदार, स्व-विवेकी मतदाता सबके लिए बोझ बन गया है, उससे सबको खतरा है. नागरिकों का जंगल बना कर उनका शिकार करना सबके लिए आसान है.  

चुनावी प्रक्रिया को भ्रष्ट कर दिया गया है. चुनाव आयोग एक ऐसी विकलांग संस्था में बदल गया है जिसके पास भवन के अलावा अपना कुछ भी बचा नहीं है. 2014 और 2019 के आम चुनाव के बारे में चुनाव आयोग ने ही हमें बताया है कि 2014 के चुनाव में देश भर में 300 करोड़ रुपए पकड़े गए जो मतदाताओं को खरीदने के लिए भेजे जा रहे थे.

1.50 करोड़ लीटर से अधिक शराब, 17 हजार किलो से अधिक ड्रग्स पकड़े गए तथा दलों का अपवाद किए बिना 11 लाख लोगों के खिलाफ काररवाई हुई जिन्हें दलों ने ‘अपना कार्यकर्ता’ बना रखा था. 2019 के आम चुनाव में इस दिशा में अच्छा ‘विकास’ देखा गया जब 844 करोड़ नकद रुपयों की जब्ती हुई, 304 करोड़ रुपयों की शराब, 12 हजार करोड़ रुपयों के ड्रग्स आदि पकड़े गए.

यह भारत सरकार की अपराध शाखा के आंकड़े नहीं हैं, चुनाव आयोग के लोकतांत्रिक आंकड़े हैं.  क्या ये आंकड़े ही हमें नहीं बताते हैं कि स्वतंत्न, लोकतांत्रिक चुनाव करवाने की कोई दूसरी व्यवस्था हमें सोचनी चाहिए? अगर चुनाव आयोग राष्ट्रपति व सर्वोच्च न्यायालय से ऐसा कुछ कहे तो यह पराजय की स्वीकृति नहीं, इलाज की दिशा में पहल कदम होगा.

लोकतंत्र का मतलब ही है कि इसकी पहली व अंतिम सुनवाई लोक की अदालत में हो. लेकिन वह तो भीड़ बन कर, भीड़ में खो गया है. दुष्यंत कुमार के शब्दों में- कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप / जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही.

Web Title: assembly election 2021 baba saheb bhim rao ambedkar Lost voters crowd shrinking democracy in power Kumar Prashant's blog

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे