गठबंधन का पोस्टमॉर्टमः 'बुआ और बबुआ' के मेल से कैसे बिगड़ रहा है बीजेपी का खेल? 

By बद्री नाथ | Published: January 12, 2019 12:40 PM2019-01-12T12:40:30+5:302019-01-12T12:46:47+5:30

बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने शनिवार को साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन का ऐलान किया। पढ़ें इस फैसले का क्या होगा असर...

Analysis of BSP and SP alliance in Uttar Pradesh: Why BJP should worry in Lok Sabha | गठबंधन का पोस्टमॉर्टमः 'बुआ और बबुआ' के मेल से कैसे बिगड़ रहा है बीजेपी का खेल? 

गठबंधन का पोस्टमॉर्टमः 'बुआ और बबुआ' के मेल से कैसे बिगड़ रहा है बीजेपी का खेल? 

करीब 25 साल पहले जुदा हुए दो दल, दिल न मिलने के बाद भी अब एक हो गए हैं। आज देश के सबसे बड़े सूबे के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों अखिलेश यादव और मायावती के संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस ने अब तक चल रही अटकलों पर हकीकत की मुहर भी लगा दी है। इससे पहले दोनों दल मीडिया के सामने आकर कहते तो रहे हैं लेकिन समझौते पर लगातार अनिश्चितता बनी रही है। गोरखपुर और फूलपुर चुनाव में मायावती ने जिस गर्मजोशी के साथ इस गठबंधन के पक्ष में अपने सारे को-ओरडीनेटर्स को लामबंद किया था वैसा फूलपुर चुनाव में नहीं देखने को मिला था।

गोरखपुर और फूलपुर में मिली हार के बाद हुए राज्य सभा चुनाव में  मायावती समर्थित राज्यसभा उम्मीदवार को राजा भैया और उनके करीबी  बाबागंज के विधायक के द्वारा वोट ने देने के बाद के प्रेस कांफ्रेंस में  मायावती के गुस्से और बीजेपी के द्वारा किये गए प्रहार (अखिलेश बस लेना जानते हैं देना नहीं) के बाद ऐसा लगा था कि ये गठबंधन खटाई में पड़ सकता है लेकिन मायावती ने अखिलेश की अनुभवहीनता (अगर मैं अखिलेश की जगह होती तो पहले आंबेडकर के पक्ष में वोट डलवाती) बताकर गठबंधन को आगे जारी रखने की बात कहकर बीजेपी खेमे में आई ख़ुशी को पल भर में ब्रेक लगा दिया था।

इस दरमियान तमाम उतार चढ़ाव के बाद भी यह गठबंधन अब परवान चढने जा रहा है। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा उत्तर प्रदेश में हमेशा सामाजिक समीकरणों के साधने की स्थिति में ही चुनाव जीतती रही हैं। चाहे 2007 में बसपा की विजय हो या 2012 में अखिलेश की बिजय इसमें सामाजिक समीकरणों का बनाना इन दोनों दलों के जीत का कारण रहा। लेकिन 2014 के बाद बीजेपी नें इनके सामाजिक समीकरण में सेंध (कई कांग्रेसी और बसपाई नेताओं को बीजेपी नेताओं को बीजेपी में ज्वाइन कराया गया) लगाकर बस इनके कोर वोट बैंक में ही सीमित कर दिया था और दोनों दलों के पक्ष में  मुस्लिम समाज के वोटों के बटवारे से नतीजा ये रहा कि उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश दोनों 2014 और 2017 दोनों चुनावों में बुरी तरह से हारे।

पिछले लोकसभा चुनाव की बात करें तो मायावती के दल को जहाँ 19.6 प्रतिशत वोट पाकर जीरो सीट मिले थे तो सपा नें  22.5 प्रतिशत वोट पाकर मात्र 5 सीटें जीतनें में सफलता हासिल की थी। वहीँ बीजेपी ने 42.2 फ़ीसदी वोटों के साथ 71 सीट जीतने में कामयाबी हासिल की थी। बीजेपी की सहयोगी दल अपना दल (अनुप्रिया ) ने भी बीजेपी के साथ गठबंधन करके 2 सीटें जीती थी। इन चुनावी जीत और हार में बीजेपी के सामाजिक समीकरण को साधने में मिली सफलता रही थी। इस लोक सभा चुनाव नतीजों के बाद भी बसपा और सपा की दूरियाँ बनी रही।
 
2017 में होने वाले यूपी विधान सभा चुनाव में दोनों दलों ने अपना पूरा जोर बीजेपी के खिलाफ  मुस्लिम वोटों को साधने में लगाया था। मुस्लिम वोटों को साधने के लिए मायावातीं ने जहाँ सबसे ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को विधान सभा में टिकट दिया वहीँ दूसरी तरफ  सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था। लेकिन इन दोनों दलों के द्वारा बनाये गए रणनीति को बीजेपी ने एंटी हिन्दू करार दिया और इस संदेश को जनता के बीच पहुँचाने में भी सफल रहे। इसका नतीजा ये रहा कि कांग्रेस ने जिस सीट पर अपने उम्मीदवार नहीं उतारे उन सीटों पर सवर्ण मतदाताओं ने गठबंधन के वजाय बीजेपी को वोट दिया और मुस्लिम वोटों का सपा और बसपा दोनों में विभाजन हुआ था।

इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण हम सहारनपुर की देवबंद सीट पर बीजेपी प्रत्याशी की जीत में देख सकते हैं। 
इस गठबंधन व जातीय राजनीति को समझने के लिए हमें यहाँ के जातिगत समीकरण को समझने की जरूरत होगी जातिगत आकड़ों पर अगर नजर डालें तो उत्तर प्रदेश की आबादी में यादव जाति के लोगों की आबादी 8.2 % है वहीँ दलित समाज की आबादी 20-23 प्रतिशत है, मुस्लिम समाज 19 % है ब्राह्मण 10.5 % है क्षत्रिय, भूमिहार जाट, कुर्मी, राजभर, सोनकर, निषाद आदि जातियां 5% से नीचे पर राजनितिक रूप से प्रभावशाली रही हैं। 

पिछले चुनावों में बनिया, क्षत्रिय, भूमिहार, बड़े स्तर पर ब्राह्मण मतदाताओं के अलावा गैर यादव और गैर जाटव अनुसूचित जातियों के वोटों के बूते बीजेपी उत्तर प्रदेश के 40 प्रतिशत से ज्यादा वोट अर्जित कर रही है। विगत उपचुनावों में भी बीजेपी को अकेले चुनाव में हरा पाना इन दोनों दलों के लिए मुश्किल नहीं नामुमकिन काम था। 
इन्ही हारों से सबक लेते हुए बीएसपी और एसपी नें तमाम चुनौतियों के बाद भी गठबंधन कर रही हैं। इस गठबंधन की मुख्य वजह सपा व बसपा के कोर वोटर्स (यादव और जाटव ) के साथ-साथ मुस्लिम मतदाताओं को भाजपा के खिलाफ लामबंद करना है। 

अखिलेश यादव तो इसके लिए हर प्रकार के घाटे उठाने तक की बात कर रहे हैं। कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण के समय सभी मुख्य भाजपा विरोधी दलों के नेताओं की उपस्थिति से यह लग रहा था कि कांग्रेस की अगुवाई में सारे दल लोकसभा चुनाव में उतरने जा रहे हैं लेकिन विगत विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की अगुवाई में चुनाव लडेगा पर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधान सभा चुनावों में सपा व बसपा के कांग्रेस के एक  साथ चुनाव लड़ने की संभावना पर विराम लग गए थे। 

आज की प्रेस कॉन्फ्रेंस में मायावती ने स्पष्ट किया यूपी की 80 लोकसभा सीटों पर सपा 38 और बसपा 38 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। रायबरेली और अमेठी दो सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ी गई हैं। हालांकि कांग्रेस पार्टी से कोई गठबंधन हीं है। जो बीएसपी व सपा आज कांग्रेस को मात्र 2 सीटों पर गठ्बन्धन में शामिल करने के जुगत में थे उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि यही कांग्रेस यूपी लोस चुनाव 2009 में बसपा के बराबर यानि कि 21 सीट जीतने में सफल रही थी। रही बात गठबंधन के नियमो की तो वर्तमान  गठबंधन के नियमों के अनुसार कांग्रेस को कम से कम 8 सीटें मिलनी चाहिए थीं (2 कांग्रेस की जीती सीटें और 6 जिनपर कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही थी) पर कांग्रेस को 2 सीटें देकर इस गठबंधन में शामिल कर पाना असंभव है। इसलिए अब कांग्रेस के पास 3 विकल्प बचे हैं।

कांग्रेस या तो अकेले चुनाव लड़े, या फिर शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़े या फिर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के साथ-साथ  बीजेपी से नाराज चल रहे एस बी एस पी + अपना दल कृष्णा + मुख्तार अंसारी की कौमी एकता दल को साथ लेकर चुनाव लड़े तो इस समीकरण के लिहाज से  जिन सीटों पर सपा के उम्मीदवार नहीं होंगे भावी बागियों के सहारे  शिवपाल फैक्टर मजबूत हो सकता है।

यही बात बसपा के उम्मीदवार न उतारे जाने वाली सीटों पर भी देखने को मिल सकता है। जिन सीटों पर सपा के उम्मीदवार को टिकट नहीं मिलता है उन  सीटों पर सपा के मतदाता कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन का रुख कर सकते हैं इस परिस्थिति में बहुत सी सीटों पर मुकाबले त्रिकोणी होने के आसार हैं।

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