अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: महाराष्ट्र पर किसी का मालिकाना हक नहीं है श्रीमान!

By Amitabh Shrivastava | Published: February 16, 2022 05:48 PM2022-02-16T17:48:21+5:302022-02-16T17:51:22+5:30

मराठवाड़ा में औरंगाबाद जैसे शिवसेना के गढ़ की महानगर पालिका में उसे बहुमत कभी नहीं मिला. विधानसभा चुनाव में भी शहर की तीनों सीटें जीतना उसके बस की बात नहीं थी.

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शिवसेना सांसद संजय राऊत के बयान सच्चाई के करीब नहीं! (फाइल फोटो)

अक्सर जब कोई व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में आता है तो उससे उम्मीद की जाती है कि वह और अधिक परिपक्व होकर निखरेगा. यदि पत्रकारिता के क्षेत्र से कोई व्यक्ति राजनीति में आता है तो वह और अधिक निखर कर सामने आता है, क्योंकि उसका दायरा और संवाद कई गुना बढ़ जाता है. मगर महाराष्ट्र के वरिष्ठ मराठी पत्रकार और शिवसेना सांसद संजय राऊत इन दिनों जिस तरह के बयान देने लगे हैं, उनसे तो लगता है कि वह कभी सच्चाई के करीब थे ही नहीं. या फिर राजनीति उन्हें उनका मूल धर्म भूलने पर मजबूर कर रही है.

शिवसेना सांसद राऊत का अपनी पार्टी के अंदाज में बोलना तो उनका राजनीतिक स्वरूप माना जा सकता है. वह महाराष्ट्र के दादा खुद को बताते हैं. मगर राज्य की पहचान शिवसेना से है या फिर शिवसेना का मतलब महाराष्ट्र है, तो यह बात आसानी से पचाई नहीं जा सकती है. वह भी तब, जब शिवसेना से अलग होकर तीन बड़े नेता या तो अपनी पार्टी बना चुके हैं या फिर किसी दूसरे दल में जा बैठे हैं. साफ है कि पचास साल से अधिक के समय में पार्टी अपने कर्मठ और निष्ठावान नेताओं को संभाल नहीं पाई, तो वह पूरे महाराष्ट्र पर अपना दावा कैसे ठोंक सकती है. 

वर्ष 1969-70 के उपचुनाव में परेल से पहला विधानसभा चुनाव जीतने वाली शिवसेना वर्ष 1990 के विधानसभा चुनाव में 52 सीटें जीत पाई थी और उसे विपक्ष के नेता का पद हासिल हुआ. इसके बाद भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन के बाद वर्ष 1995 के विधानसभा चुनाव में 73 सीटें मिलीं, जो पार्टी की सबसे बड़ी सफलता रही. किंतु महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों के मुकाबले आधी सीटें भी नहीं थीं. 

फिर भी यह आंकड़ा दोहराना शिवसेना के लिए मुश्किल रहा. भाजपा के साथ गठबंधन में चुनाव रहा हो या फिर अकेले चुनाव लड़ने की नौबत, शिवसेना 70 सीटों के भीतर तक ही सिमटी रही. यदि इन सीटों के विस्तार में जाया जाए तो ज्यादातर जीत मुंबई, मराठवाड़ा और कोंकण से मिली. वर्तमान परिदृश्य में कोंकण के तत्कालीन नेता नारायण राणो पार्टी को छोड़ चुके हैं और वह अपना खुद का वजूद बना चुके हैं. 

हालांकि वह भाजपा के सदस्य हैं, मगर उनकी अपनी पार्टी भी है. इसी प्रकार मुंबई में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे भी अलग होकर अपनी पार्टी बना चुके हैं. यद्यपि उनकी पार्टी राजनीतिक रूप से जीत का सेहरा बांधने में असफल है, मगर वह शिवसेना को नुकसान पहुंचाने में समर्थ हैं. मराठवाड़ा में भी अनेक नेताओं ने पार्टी छोड़ी है और अनेक को पराजय का मुंह भी देखना पड़ा. 

विदर्भ और खानदेश में बहुत अच्छे हालात हैं, यह कहना भी बहुत मुश्किल है. पश्चिम महाराष्ट्र में पहले से ही राष्ट्रवादी कांग्रेस का वर्चस्व है. इसलिए वहां दाल गलना मुश्किल ही है. मराठवाड़ा में औरंगाबाद जैसे शिवसेना के गढ़ की महानगर पालिका में उसे बहुमत कभी नहीं मिला. विधानसभा चुनाव में भी शहर की तीनों सीटें जीतना उसके बस की बात नहीं थी. हाल के लोकसभा चुनाव में शिवसेना को हराकर ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने एक संदेश पहले ही दे दिया है.

चूंकि किसी भी राजनीतिक दल की स्थिति उसकी चुनावी सफलता और उसमें मिले मतों पर तय की जाती है. इस लिहाज से भी शिवसेना ने कोई बहुत बड़ा परिवर्तन सामने लाया हो, ऐसा भी नहीं हुआ. चुनावी इतिहास में शिवसेना को वर्ष 1995 में अपने अब तक के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन में 16.39 प्रतिशत मत मिले थे, जिनसे उसने 73 सीटें जीती थीं. 

उससे पहले वर्ष 1990 में पहली बार 52 सीटों के जीतने के समय 15.94 प्रतिशत मत ही उसे हासिल हो पाए थे. इसी प्रकार वर्ष 1999 में 17.33 प्रतिशत, वर्ष 2004 में 19.97 प्रतिशत, वर्ष 2009 में 16.25 प्रतिशत, वर्ष 2014 में 19.35 प्रतिशत और बीते चुनाव में 16.41 प्रतिशत मत उसे मिले थे. 

कम मतों पर तर्क देने के लिए कहा जा सकता है- शिवसेना ने ज्यादातर चुनाव भाजपा के साथ गठबंधन में लड़े और उसके तालमेल के अनुपात में उसे मत मिले. मगर वर्ष 2014 का चुनाव पार्टी को आईना दिखाने के लिए पर्याप्त है, जिसमें उसे 282 सीटों पर चुनाव लड़ने पर 19.35 प्रतिशत ही मत मिले और सीटें 63 पर ही सिमट गईं.

ताजा परिस्थितियों में शिवसेना एक सरकार की मुखिया है और दो अपने घोर विरोधी राजनीतिक दलों के समर्थन के साथ चल रही है. वह भी एक ऐसी मजबूरी, जिसमें सरकार बनाने का दावा ठोंकते समय राजभवन में कांग्रेस के समर्थन-पत्र के लिए उसे इंतजार करना पड़ा हो. अतीत में अपनी सीढ़ियां चढ़वाने में माहिर और दूसरों को इंतजार करने के लिए मजबूर करने वाली पार्टी के नए परिदृश्य में तेवर अलग नजर आए हैं. 

सत्ता के लिए समझौता करने की खुली कहानी के बीच समूचे राज्य में अपनी दादागीरी और अपनी पहचान को ही राज्य की पहचान बताना किसी मराठी मानुष के गले उतरने वाली बात नहीं है. वह भी उस समय, जब वह गठबंधन सरकार का सर्कस रोज देखता हो. 

बावजूद इसके एक प्रतिष्ठित मराठी अखबार से अपना कैरियर आरंभ करने वाले सांसद संजय राऊत एक मुखपत्र के कार्यकारी संपादक बनकर तथ्यों को नजरअंदाज कर बयान देंगे तो उन्हें केवल राजनीति कैसे माना जाएगा. उसे एक पत्रकार की राजनीतिक मजबूरी कहना अनुचित होगा. 

बेशक यह माना जा सकता है कि दबाव में राजनीति हो सकती है, मगर किसी के दबाव में पत्रकार की भाषा और सोच बदल नहीं सकती है. फिलहाल शायर बशीर बद्र के अंदाज में यही कहा जा सकता है -
कुछ तो मजबूरियां रही होंगी,
यूं कोई बेवफा नहीं होता।
जी बहुत चाहता है सच बोलें,
क्या करें हौसला नहीं होता।।

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