अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: अपने ही बनाए आंकड़ों के जाल में उलझती सरकार

By अमिताभ श्रीवास्तव | Published: November 28, 2020 11:45 AM2020-11-28T11:45:10+5:302020-11-28T12:09:54+5:30

भारत में कोरोना संक्रमण से निपटने के लिए सरकारी और प्रशासनिक नेतृत्व भरोसेमंद माना गया. वैज्ञानिक तथा विशेषज्ञ नेपथ्य में रहे. इसका क्या असर अब दिख रहा है?

Amitabh Srivastava's blog: Coronavirus and Government getting trapped in its own data | अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: अपने ही बनाए आंकड़ों के जाल में उलझती सरकार

कोरोना महामारी से निपटने में क्यों हो रही है चूक (फाइल फोटो)

Highlightsशुरुआत से ही कोरोना से निपटने के लिए सरकारी और प्रशासनिक नेतृत्व को ही भरोसेमंद माना गयाअब आम आदमी के लिए कोरोना महामारी प्रशासनिक गतिविधि होकर रह गई है, ये महंगा साबित हो रहा है

बीते मंगलवार को जब आठ राज्यों के मुख्यमंत्रियों से कोरोना संक्रमण के हालात पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बातचीत कर रहे थे, तब उनका हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर को टोकना अचानक हुआ वाकया नहीं था.

उसमें साफ था कि सरकार अब आंकड़ों में उलझने की बजाय बीमारी से निपटने की तैयारी करना चाहती है. मगर मुख्यमंत्री खट्टर का आंकड़ों की किताब को खोलना आश्चर्यजनक नहीं था, क्योंकि बीते आठ-नौ माह आंकड़ों से कोराना संक्रमण के हालात बयां किए गए.

उन्हें वैज्ञानिक कसौटी पर कसने या समझकर नीति बनाने पर जोर नहीं दिया गया. अब जैसे ही दूसरी और तीसरी कोविड-19 की लहर चली तो गणितीय दावे बेमायने लगने लगे हैं. यहां तक कि आंकड़ों की कहानी भी अच्छी नहीं लग रही है.

कोरोना से लड़ाई में कहां हुई चूक?

शुरुआत से ही देश में कोरोना संक्रमण से निपटने के लिए सरकारी और प्रशासनिक नेतृत्व भरोसेमंद माना गया. वैज्ञानिक तथा विशेषज्ञ नेपथ्य में रहे. कई माह तक केंद्र और राज्यों के मंत्री ही कोरोना का हाल बताते रहे.

उनके बाद प्रशासनिक स्तर पर संभागीय आयुक्त, जिलाधिकारी या स्थानीय निकायों के प्रमुख कोरोना के खिलाफ लड़ाई के सेनापति बने रहे.

उन्हें पुलिस और अन्य सुरक्षा एजेंसियों का सहयोग मिला. कुछ दिनों में नतीजे भी अच्छे सामने आए, जिन्हें आंकड़ों के माध्यम से समझा दिया गया. सारे संकट का विश्लेषण गणितीय ढंग से हो गया. संक्रमण दर, मृत्यु दर, स्वस्थ होने की दर, नए-पुराने मरीज और कुल मरीजों की स्थिति से परिस्थिति का आकलन हुआ.

कमोबेश मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र जैसे राज्य आंकड़ों की बाजीगरी में उत्साहित दिखे. इन राज्यों के आंकड़ों में अक्तूबर माह में स्थिति नियंत्रण में दिखी.

मगर जैसे ही नवंबर माह आरंभ हुआ पहले दिल्ली और उसके बाद अन्य राज्यों में हालात बिगड़ने लगे, जिसका दोष त्यौहारों को दिया गया. किंतु वास्तविकता यह थी कि कोरोना मामलों का कम होना या स्थायी रूप से घटना महज भ्रम था.

विशेषज्ञ कोरोना को लेकर कई बार दे चुके थे चेतावनी

विशेषज्ञ अनेक बार चेतावनी दे चुके थे कि कोरोना कभी भी सिर उठाकर किसी भी इलाके को संकट में डाल सकता है. इसका उदाहरण अमेरिका और यूरोप के देशों में दिखा. इसलिए फिर सरकार सक्रिय हुई तो उसे आंकड़ों की बाजीगरी अर्थहीन लगी जिसमें हरियाणा के मुख्यमंत्री फंस गए.

दरअसल कोरोना का गणित और उससे खिलाफ लड़ाई अलग-अलग हैं. कोविड-19 का आरंभिक मुकाबला आंकड़ों के सहारे हुआ, जिसकी सीधी वजह सरकारी और प्रशासनिक नेतृत्व था.

बार-बार यह सिद्ध हो चुका है कि नई महामारी की पहेली सुलझी नहीं है और इसमें वैज्ञानिकों या बीमारी का अध्ययन कर रहे विशेषज्ञों की राय और निर्देशों पर ही आगे बढ़ा जा सकता है. मगर सरकार और प्रशासन उसकी भूमिका परदे के पीछे तक सीमित रखते आए.

चिकित्सकों और विशेषज्ञों की अनदेखी पड़ी भारी

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया जैसे चिकित्सक हों या फिर भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान संस्थान से जुड़े डॉ. रमन गंगाखेड़कर जैसे विशेषज्ञ हों, इन्हें समय-समय अपनी स्वतंत्र राय को व्यक्त करने का अधिकार दिया नहीं गया. यही स्थिति दूसरे चिकित्सकों और विशेषज्ञों की रही.

इसका नतीजा यह हुआ कि जब संक्रमण घटा तो प्रशासन ने अपनी पीठ थपथपाकर लोगों को अनेक तरह की छूट दे दी. हालांकि छूट या खुलापन में अनेक प्रकार की आशंकाएं थीं, जिन्हें वैज्ञानिकों की राय से समझना और लोगों को शिक्षित करना जरूरी था.

लॉकडाउन में सब कुछ बंद से नियंत्रण के बाद सब कुछ खुलने के बाद के हालात पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण आवश्यक था, क्योंकि बार-बार विशेषज्ञ कोरोना संबंधी चेतावनियां दे रहे थे. किंतु सामाजिक दबाव और प्रशासनिक कार्य पद्धति के आगे वैज्ञानिक दृष्टिकोण और चिकित्सकीय सोच पीछे रह गई.

अब परिणाम यह है कि कहीं दूसरी तो कहीं तीसरी लहर दिख रही है. अब पांच फीसदी से कम संक्रमण दर, एक फीसदी से कम मृत्यु दर की बात हो रही है, जो बीमारी के आरंभ में ही दुनियाभर के विशेषज्ञों ने कह दी थी. अब स्वस्थ होने की दर को दरकिनार किया जा रहा है, जबकि पहले वह कोरोना पर विजय का प्रतीक थी.

सरकार अपने ही आंकड़ों के जाल में फंस गई!

असल बात यह कि पहले ही सरकार, प्रशासन और विशेषज्ञ के घालमेल से बच कर स्वतंत्र मोर्चे तैयार करने चाहिए थे. भविष्य की आशंका, संभावना और चेतावनी के लिए स्वतंत्र कार्य व्यवस्था बनाई जानी थी.

मगर सरकार को लगा कि विशेषज्ञों को प्रमुखता देने की बजाय उसके अधीन प्रशासन ही जनता को समझाने में सफल होगा. प्रशासन व्यवस्था को तो अच्छी तरह से चलाया, किंतु बीमारी के जानकारों से जनता को चौकन्ना नहीं कराया.

लिहाजा आम आदमी के लिए कोरोना भी प्रशासनिक गतिविधि हो गई. प्रशासन के लिए कोरोना प्रशासनिक तंत्र का एक चुनौतीपूर्ण कार्य हो गया, जिसके चलते सिर्फ परिस्थितियों के इर्द-गिर्द ही ताना-बाना बनता बिगड़ता रहा. इसका परिणाम सामने है.

आठ माह बाद सरकार अपने ही आंकड़ों के जाल में फंस चुकी है, जिससे निकलने के लिए उसे रास्ते की तलाश है, जो विशेषज्ञों के नेतृत्व में ही बन सकता है, बशर्ते उन्हें अग्रिम भूमिका मिले. समय रहते सरकार की रणनीति में बदलाव आए, तभी अगली लहरों को कारगर ढंग रोका जा सकता है. अन्यथा आंकड़ों के खेल में कोरोना को करतब दिखाने से रोकना मुश्किल होगा.

Web Title: Amitabh Srivastava's blog: Coronavirus and Government getting trapped in its own data

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