अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: खंडित जनादेश पर इतना ताव ठीक नहीं!
By अमिताभ श्रीवास्तव | Published: November 1, 2019 07:16 AM2019-11-01T07:16:07+5:302019-11-01T07:16:07+5:30
दस दिन पहले राज्य की 288 सदस्यीय विधानसभा के लिए हुए चुनाव में किसी भी दल ने पूरी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा. भारतीय जनता पार्टी ने जहां अपने सहयोगियों के साथ 165 सीटों पर चुनाव लड़ा और 25.75 प्रतिशत वोट हासिल किए, वहीं दूसरी ओर शिवसेना ने 126 सीटों पर चुनाव लड़कर 16.41 प्रतिशत मत पाए. e
महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव से जनादेश मिलने के बाद एक सप्ताह बीतने जा रहा है, लेकिन नई सरकार का कोई ठिकाना नजर नहीं आ रहा है. हर दल कुछ इस अंदाज में तुर्रा दिखा रहा कि वही इस नए जनादेश का सही हकदार है. यदि यह बात सच मानी भी जाए तो किसी दल की सत्ता के लिए पहल नजर नहीं आ रही है.
साफ है कि राज्य की जनता ने एक बार फिर एक खंडित जनादेश दिया है और सभी दलों को अपनी नाराजगी का स्पष्ट संदेश दिया है.
दस दिन पहले राज्य की 288 सदस्यीय विधानसभा के लिए हुए चुनाव में किसी भी दल ने पूरी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा. भारतीय जनता पार्टी ने जहां अपने सहयोगियों के साथ 165 सीटों पर चुनाव लड़ा और 25.75 प्रतिशत वोट हासिल किए, वहीं दूसरी ओर शिवसेना ने 126 सीटों पर चुनाव लड़कर 16.41 प्रतिशत मत पाए.
इसी प्रकार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) को 122 सीटों पर चुनाव लड़कर 16.71 प्रतिशत मत मिले. इसी प्रकार कांग्रेस ने 147 स्थानों पर अपनी किस्मत आजमाई और 15.7 फीसदी मत हासिल किए. यदि इन मतों को कुछ माह पहले हुए लोकसभा चुनावों से तुलना कर देखा जाए तो भाजपा ने 27.59 प्रतिशत, कांग्रेस ने 16.27 प्रतिशत, शिवसेना ने 23.29 प्रतिशत और राकांपा ने 15.52 प्रतिशत मत पाए थे. साफ है कि भाजपा, कांग्रेस और राकांपा दोनों चुनावों में अपने मतों के आस-पास रहे, जबकि शिवसेना के मतों में लोकसभा से विधानसभा चुनाव तक पहुंचने में लगभग 6.5 प्रतिशत की गिरावट आई.
पांच साल पीछे जाकर यदि मतों के हिसाब-किताब को पिछले विधानसभा चुनाव से मिलाकर देखा जाए तो वर्ष 2014 में भाजपा 31.15 प्रतिशत, शिवसेना 19.80 प्रतिशत, कांग्रेस 18.10 प्रतिशत और राकांपा 17.96 प्रतिशत मत पा सकी थीं. इस नजरिये से पिछले चुनाव से शिवसेना-कांग्रेस लगभग साढ़े तीन, राकांपा एक प्रतिशत पीछे रही, जबकि भाजपा साढ़े पांच प्रतिशत कमजोर हुई.
ये आंकड़े साफ करते हैं कि ताजा चुनाव में सभी प्रमुख दलों की लोकप्रियता में गिरावट दर्ज हुई. भाजपा और शिवसेना के मामले में यह माना जा सकता है कि उनके मतों की गिरावट सत्ता विरोधी माहौल का परिणाम थी, किंतु कांग्रेस और राकांपा के मतों में कमी की सीधी वजह समझ पाना आसान नहीं है. इन सबके बावजूद राकांपा की 54 सीटों को जीतने के चर्चे हैं. कांग्रेस का दो सीटें बढ़ाकर 44 तक पहुंचना एक उपलब्धि है.
भाजपा का 122 से 105 पर आ जाना मुख्यमंत्री और सत्ता के लिए मजबूत दावा है. वहीं 63 से शिवसेना का 56 पर आने के बावजूद सत्ता का रिमोट अपने हाथ में रखना भी एक उपलब्धि है.
साफ है कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव का परिणाम एक खंडित जनादेश के रूप में सबके सामने है. यह पहला मौका नहीं है, जब किसी एक दल को सरकार बनाने का मौका नहीं मिला है. ये हालात वर्ष 1990 से एक समान हैं. राज्य की जनता ने बीते दो दशक में कांग्रेस और राकांपा या फिर भाजपा और शिवसेना को गठबंधन के रूप में बहुमत प्रदान किया है. हालांकि राज्य में राकांपा का जन्म कांग्रेस के विरोध में हुआ और भाजपा तथा शिवसेना की आपसी तनातनी भगवा गठबंधन की स्थायी पहचान है. वर्तमान परिस्थितियों में राज्य में कोई दल अपनी ताकत पर न तो सरकार बना सकता है और न ही समझौते बिना राजनीति कर सकता है.
अतीत के आलोक में देखा जाए तो शिवसेना ने राज्य में सबसे अच्छा प्रदर्शन वर्ष 1995 में किया था, जब उसे 73 सीटें मिली थीं. उस समय भी वह राज्य की सबसे बड़ी पार्टी नहीं थी, लेकिन मुख्यमंत्री उसी का बना, क्योंकि उस समय भाजपा कमजोर स्थिति में थी और समर्थन देने के लिए मजबूर थी. इसी प्रकार कांग्रेस से अलग होकर बनी राकांपा का सबसे अच्छा प्रदर्शन वर्ष 2004 में 71 सीट हासिल करने का था, जो वर्ष 2009 में गिर कर 62 हुआ और 2014 में 41 हुआ. ताजा चुनाव में आंकड़ा 54 पर पहुंच गया है. सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बावजूद वर्ष 2004 में राकांपा मुख्यमंत्री पद की दावेदारी से पीछे हट गई थी. भाजपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2014 में 122 सीटें हासिल करने का था. इसके पहले उसे सर्वाधिक 65 सीटें वर्ष 1995 में मिली थीं.
वर्तमान समीकरणों और हालात के बीच यदि इतिहास, विचारधारा, राजनीतिक सोच और प्रदर्शन को मिलाकर देखा जाए तो राज्य का हर राजनीतिक दल संख्याबल के गिरावट के दौर से गुजर रहा है. मगर जिस तरह से विधानसभा चुनाव परिणाम सामने आए और उनका विश्लेषण किया गया, ऐसा माहौल तैयार किया गया कि राज्य में हर राजनीतिक दल ने अपने-अपने झंडे गाड़ दिए हैं, जबकि वस्तुस्थिति वैसी नहीं थी.
जमीनी सच यह है कि हर पार्टी को मतदाता ने सबक सिखाया है. इसलिए अब जरूरत आत्ममंथन और खंडित जनादेश के मायने समझने की है. अभी यह मानना होगा कि 20 फीसदी से कम मतों के आधार पर सत्ता का ख्वाब देखना कुछ नाजायज-सी स्थिति है. ऐसे में यदि किसी संकल्पना को आधार प्रदान करना है तो समझदारी, दूरगामी दृष्टि और निजी स्वार्थो के त्याग से ही संभव हो पाएगा. केवल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ताव मारने की सोच से काम नहीं चल पाएगा. महाराष्ट्र के हितों में कुर्सी पाना सार्थक माना जाएगा. अन्यथा जनादेश बेमायने हो जाएगा.