एन. के. सिंह का ब्लॉग: जीरो बजट खेती में शंकाओं पर भी गौर करें
By एनके सिंह | Published: September 18, 2019 05:36 AM2019-09-18T05:36:43+5:302019-09-18T05:36:43+5:30
मोदी-2 सरकार में कृषि को लेकर एक नया भाव पैदा हुआ है जो शायद ‘सन 2022 तक किसानों की आय दूनी करने और बार-बार दोहराने’ के दबाव के कारण है.
अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने और फिर हाल ही में विश्व मंच से बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण-प्रतिरोधी कन्वेंशन’ में शामिल देशों के 14 वें सम्मलेन में भारत की ‘जीरो बजट’ खेती की योजना का संकल्प दोहराया. लेकिन देश के लब्ध-प्रतिष्ठित दर्जनों कृषि वैज्ञानिकों ने प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पंजाब सिंह के नेतृत्व में नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद्र व भारतीय कृषि शोध परिषद (आईसीएआर) महानिदेशक त्रिलोचन महापात्न की मौजूदगी में एक कांफ्रेंस में न केवल इसे खारिज किया है बल्कि इस योजना पर अमल से अनाज उत्पादन और उत्पादकता के भारी नुकसान की चेतावनी भी दी है. ‘वापस मूल की ओर’ (बैक-टू-बेसिक्स) के सिद्धांत के तहत जीरो बजट खेती की योजना इस बजट में घोषित की गई. लेकिन इन वैज्ञानिकों ने कहा कि जो पद्धति इस खेती में अपनाने की योजना है उसके बारे में न तो कोई प्रामाणिक आंकड़ा है, न ही वह वैज्ञानिक कसौटी पर कसा गया है.
कृषि की इस पद्धति के पीछे सन 2022 तक किसानों की आय दूनी करने के वादे का दबाव है. यह योजना इस सिद्धांत पर आधारित है कि पौधों को फोटो-सिंथेसिस के लिए जरूरी नाइट्रोजन, कार्बन डाईऑक्साइड, धूप और पानी प्रकृति मुफ्त में देती है, केवल उसे हासिल करने का तरीका मालूम होना चाहिए. बाकी दो प्रतिशत पोषण माइक्रो बैक्टीरिया (जीवाणु) को जड़ों के भीतर सक्रिय करने से मिल सकता है जो देशी गाय के मूत्न, गोबर, गुड़, दाल आदि के घोल के छिड़काव से मिल सकेगा. जबकि वैज्ञानिकों का कहना है कि हवा में बड़ी मात्र में नाइट्रोजन जरूर है लेकिन यह मुफ्त में उपलब्ध नहीं होता, न ही पौधों को उपलब्ध हो सकता है, जब तक उसे अमोनिया या यूरिया के रूप में न दिया जाए अर्थात रासायनिक खाद के रूप में.
मोदी-2 सरकार में कृषि को लेकर एक नया भाव पैदा हुआ है जो शायद ‘सन 2022 तक किसानों की आय दूनी करने और बार-बार दोहराने’ के दबाव के कारण है. शायद मोदी सरकार को यह मालूम है कि किसानों की आय कम रहने का सबसे बड़ा कारण उत्पादकता न बढ़ना है. लिहाजा सरकार अब परंपरागत खेती की ओर उन्मुख होने का इरादा बना रही है- देशी बीज, देशी खाद और देशी बाजार. इसके संकेत सरकार के 5 जुलाई के बजट की पूर्व-संध्या पर संसद में जारी आर्थिक सर्वेक्षण को पढ़ने से और प्रधानमंत्री के हाल के तमाम भाषणों से मिलते हैं. लेकिन उपरोक्त कांफ्रेंस में शंका व्यक्त करने वाले वैज्ञानिकों में से कई मोदी काल में ही कृषि विभाग में महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं. सरकार के लिए इस रिपोर्ट पर चर्चा के बाद ही जीरो बजट खेती को जमीन पर लाना मुनासिब होगा.