आलोक मेहता का ब्लॉग: संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करें राजनेता

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 19, 2019 10:55 AM2019-11-19T10:55:08+5:302019-11-19T10:55:08+5:30

संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार केंद्र में प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी मंत्री तथा प्रदेशों में मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी मंत्री राष्ट्रपति तथा राज्यपाल की अनुकंपा पर निर्भर हैं. सरकार किसी की भी हो गंभीर स्थिति  होने पर प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री को नियुक्त करने अथवा उनकी बर्खास्तगी तक का अधिकार राष्ट्रपति और राज्यपाल के पास होता है.

Alok Mehta's Blog: Politicians Follow Constitutional Limits | आलोक मेहता का ब्लॉग: संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करें राजनेता

आलोक मेहता का ब्लॉग: संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करें राजनेता

एक बार फिर राज्यपाल के निर्णय पर आरोप और विवाद छिड़ा है.  यह पहला अवसर नहीं है जब सरकार के गठन  अथवा बचाव को लेकर विवाद पैदा हुआ हो. सबसे गंभीर  विवाद आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव की चुनी हुई सरकार को तत्कालीन राज्यपाल रामलाल द्वारा बर्खास्त किए जाने पर पैदा हुआ था. रामाराव अपने विधायकों को लेकर राष्ट्रपति के दरवाजे पर गुहार लगाने पहुंच गए थे और उन्हें पुन: सत्ता सौंपी गई. राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रपति तथा प्रादेशिक स्तर पर राज्यपाल से संवैधानिक महत्ता के साथ उनके संरक्षण की अपेक्षा हर क्षेत्र, वर्ग और पार्टी को होती है.

कुछ लोग इन पदों को शोभा तथा सलाह का पद बताकर ब्रिटेन की महारानी की तुलना करते हैं, लेकिन भारत में वास्तविकता भिन्न है. सारे विवादों के बावजूद कठिन परिस्थितियों में राष्ट्रपति तथा राज्यपालों ने निष्पक्षता के साथ महत्वपूर्ण फैसले सुनाए हैं. उन्होंने साबित किया है कि सत्ता की लगाम कसी जा सकती है.

बहुत कम लोग इस बात को याद रखते हैं कि संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार केंद्र में प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी मंत्री तथा प्रदेशों में मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी मंत्री राष्ट्रपति तथा राज्यपाल की अनुकंपा पर निर्भर हैं. सरकार किसी की भी हो गंभीर स्थिति  होने पर प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री को नियुक्त करने अथवा उनकी बर्खास्तगी तक का अधिकार राष्ट्रपति और राज्यपाल के पास होता है. प्रदेशों में विधानसभा में बहुमत स्पष्ट न होने के कारण कई बार  राज्यपालों ने सरकारों को हटाया और नई सरकारें बनाई. निश्चित रूप से ऐसे विवाद न्यायालय में भी पहुंचे हैं और यही लोकतंत्र की ताकत है.

 बहुमत के आकलन का अधिकार राज्यपालों के पास होता है.   इसलिए हर राजनीतिक दल की कोशिश होती है कि सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन राष्ट्रपति की अनुकंपा- संरक्षण का लाभ उसे मिले. असलियत यही है पिछले दशकों के दौरान कांग्रेसी,  समाजवादी, भाजपाई राजनीति में वर्षों तक सेवा करने वाले नेता राज्यपालों के पद पर आसीन हुए हैं. लेकिन  कुर्सी  की ऊंचाई बढ़ते ही क्या उनके दिल-दिमाग, विचार, व्यवहार बदल सकते हैं? इसी तरह प्रशासनिक व पुलिस सेवा में 40 - 50 साल  बिता  चुके अफसर  किसी शीर्ष नेता की पसंदगी और अनुकंपा को क्या भुला सकते हैं?  

हाल ही में कर्नाटक विधानसभा के अध्यक्ष द्वारा असंतुष्ट विद्रोही विधायकों के इस्तीफे स्वीकार करने में पहले आनाकानी और फिर उनकी बर्खास्तगी के साथ 5 वर्ष चुनाव के लिए अयोग्य करार देने के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने अनुचित बता दिया. वैसे भी इस्तीफा देने  से रोकने का प्रयास भी पूर्वाग्रह माना जा रहा था. सुप्रीम कोर्ट की राहत से वे नेता चुनाव के मैदान में उतरने जा रहे हैं. इसी कर्नाटक राज्य में खदानों से करोड़ों रु पए के खनिज अवैध ढंग से बेचे जाने के आरोपों से घिरे मंत्री को हटाने की तत्कालीन राज्यपाल हंसराज भारद्वाज की सलाह पर बड़ा बवाल मचा था और राष्ट्रपति से हस्तक्षेप का आग्रह किया गया था.

राज्यपालों के पास विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति का पद भी  रहता है. इसलिए कुलपतियों की नियुक्तियों, बर्खास्तगी और  राज्य सरकार की  पसंदगी को लेकर विवाद उठते रहे हैं.  पश्चिम बंगाल में इन दिनों इसी तरह के गंभीर आरोप-प्रत्यारोप सामने आए हैं.  दिल्ली में तो आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लगभग 5 वर्ष से उपराज्यपाल और केंद्र सरकार के खिलाफ निरंतर अभियान ही चलाते रहे. ऐसी स्थिति पिछले दशकों में किसी राज्य में नहीं दिखाई दी. विपरीत विचार वाली राज्य सरकार और राज्यपाल रहने पर सरकार के कई निर्णय और विधानसभा में पारित किए गए

विधेयक महीनों तक फाइलों में पड़े रहते हैं. लोकतंत्र का तकाजा यही है कि वैचारिक मतभेदों के बावजूद संविधान की परंपरा, गरिमा  तथा जनता के हित सर्वोपरि हों. यंू पिछले अनुभव इस बात के भी प्रमाण देते हैं कि समय-समय पर राष्ट्रपति अथवा राज्यपालों ने महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री को सही सलाह दी है और उसका लाभ भी मिला है. हाल के वर्षों में  माओवादी हिंसा और आतंकवादी घटनाओं को रोकने के लिए शीर्ष पदों पर बैठे नेताओं का अच्छा तालमेल होने का लाभ मिला है. यही नहीं, न्यायपालिका और सेना ने भी लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

इस दृष्टि से भी राज्यपाल या राष्ट्रपति की अनुकंपा और संरक्षण लाभदायक है. सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति यदि पूरी तरह गैर राजनीतिक ढंग से विचार करने लगें तो जनहित और लोकतंत्र की रक्षा कैसे संभव होगी? संविधान निर्माताओं ने ऐसी व्यवस्था की है कि हर क्षेत्र में सत्ता का संतुलन बना रहे. शीर्ष पदों पर बैठे नेताओं का ही दायित्व है कि वे  संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करें और भविष्य के लिए ऐसी मिसाल बनाएं जिससे लोकतंत्र अधिक स्वस्थ और सुरक्षित रह सके. 

Web Title: Alok Mehta's Blog: Politicians Follow Constitutional Limits

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