आलोक मेहता का ब्लॉग: शहरी पलायन से चमक सकती है भारत की तस्वीर

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 19, 2020 07:13 AM2020-04-19T07:13:07+5:302020-04-19T07:13:07+5:30

Alok Mehta's blog over migrants leave during coronavirus Lockdown: India's picture can shine through urban migration | आलोक मेहता का ब्लॉग: शहरी पलायन से चमक सकती है भारत की तस्वीर

आलोक मेहता का ब्लॉग: शहरी पलायन से चमक सकती है भारत की तस्वीर

आं धी-तूफान के बाद शीतल हवा, साफ पानी, सुबह की चमकती रोशनी और मेहनत से तैयार फसल या इमारत का अलग आनंद होता है. अमृत मंथन के दौरान देवताओं को जहर के अलावा बहुत कुछ उल्टा-पुल्टा सामान मिला और बाद में अमृत निकला. इसलिए पिछले दिनों कोरोना के आतंक, अफवाह, मजदूरी और खाने के संकट से हजारों श्रमिकों के कष्टमय पलायन का दर्द सबने महसूस किया है. इसी तरह घरों, दफ्तरों, अस्पतालों, बाजारों में कोरोना कहर की काली छाया के साथ हजारों लोगों ने जीवन, समाज, शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था की नई दिशाओं के लिए सोचना शुरू किया. काली घटा के हल्के अंधेरे में जरा वर्तमान संकट से उबरने के बाद देश की दशा-दिशा बदलने की प्रबल संभावनाओं के उजाले पर भी ध्यान देकर समाज का आत्मविश्वास बढ़ाया जा सकता है. इस संदर्भ में कुछ आधिकारिक तथ्यों पर नजर डालें.

यह सही है कि प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी या दुनिया के किसी शासक के पास जादू की छड़ी नहीं है. वे संकट से निपटने के लिए सभी क्षेत्नों-वर्गो का सहयोग लेकर नए रास्ते बना सकते हैं. रोजी के साथ सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा रोटी का है. यही वजह है कि लाखों लोग गांवों से शहरों की शरण में आए. रोटी की चिंता सबको ही है. इसे सौभाग्य कहा जाएगा कि इस शताब्दी के इस बड़े संकट में पहले की तरह अन्न की कोई कमी नहीं है. करीब 580 करोड़ टन अनाज (गेहूं-चावल) का सुरक्षित भंडार देश के पास है. इसके अलावा मिलों तक नहीं पहुंचा 280 करोड़ टन धान रखा है. तीस लाख टन दालें रखी हैं. भारत सरकार ने राज्यों के लिए छह महीनों के खाद्यान्न भेजने के आदेश दिए हुए हैं. फिर मौसम विशेषज्ञों ने इस साल अच्छे मानसून की भविष्यवाणी कर दी है. रबी का रिकॉर्ड उत्पादन 313 मिलियन टन से अधिक होने की उम्मीद है. मतलब विश्वयुद्ध, अकाल और भारत-चीन या भारत-पाकिस्तान युद्ध की परिस्थितियों से कई गुना बेहतर खाद्यान्न की उपलब्धता है. हमारे बचपन की तरह अमेरिका के लाल गेहूं के लिए लाइन में प्रतीक्षा का कोई खतरा नहीं है. उल्टे इस सप्ताह कार्गो से ब्रिटेन जैसे देशों को बहुत बड़े पैमाने पर सब्जी-फलों को भेजा गया है. अमेरिका यूरोप सहित लगभग 55 देशों को दवाइयां भेजी जा रही हैं. इसलिए भुखमरी और दवाइयों की कोई समस्या नहीं है. निश्चित रूप से राज्य सरकारों और संस्थाओं द्वारा संपूर्ण देश में सही ढंग से वितरण व्यवस्था को मजबूत रखना होगा.

यह भी सही है कि शहरों से गांवों तक पहुंचे लोगों को तत्काल काम नहीं मिलेगा. जिनके परिवारों या गांवों में खेती-बाड़ी है, वे उसमें सहयोग करने लगेंगे या कहीं मजदूरी करेंगे, लेकिन जल्दी वापस नहीं लौटेंगे. अब यदि उन्हीं गांवों में मोदी सरकार द्वारा किसान सहायता योजना, जन-धन योजना, आवास योजना, आयुष्मान भारत स्वास्थ्य योजना, घरेलू गैस योजना इत्यादि का राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन - पंचायत द्वारा पूरी ईमानदारी तथा सेवा भावना से क्रि यान्वयन साल भर भी होता रहे, तो सुख-चैन से परिवार के साथ रहने लगे आधे से अधिक मजदूर क्या वापस शहर में काम तलाशने और झुग्गी-झोपड़ी या मुंबई की खोली में जाना चाहेंगे? यही नहीं यदि सरकारी और गैरसरकारी तथा बड़ी कंपनियां अनाज, फल-फूल को सही दामों पर उसी क्षेत्न में खरीदने और परिवहन के इंतजाम करने लगें तो क्या किसान परिवार और गांव खुशहाल नहीं होंगे? सरकारों और निजी क्षेत्नों को अब गांवों की महत्ता अधिक समझ में आने लगी है. आखिरकार चुनावों में भी स्कूल, बच्चों की शिक्षा और अस्पताल तथा डॉक्टर की व्यवस्था सबसे बड़ी मांग और घोषणा पत्नों के मुद्दे रहते हैं. अब वह जमाना नहीं रहा, जब सड़कों के भयानक अभाव के कारण शिक्षक या डॉक्टर गांव जाने को सजा मानता था. अब भी व्यवस्था में गड़बड़ी है और कई जगहों पर समस्या है, लेकिन कई राज्यों के दूरस्थ अथवा आदिवासी इलाकों में भी न्यूनतम शिक्षा की अच्छी व्यवस्था है. नक्सल प्रभावित बस्तर के कुछ स्कूल और अस्पताल आदर्श माने जा रहे हैं.

कौशल विकास केंद्रों के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में बड़े पैमाने पर प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है. अधिकाधिक केंद्र खोलने, विभिन्न क्षेत्नों के लिए प्रशिक्षित कारीगर तैयार करने, स्वरोजगार को बढ़ाने की जरूरत होगी. तभी तो गांवों से पलायन कम होगा और जो शहर में आएंगे उन्हें कारखानों, बस्तियों में सही आमदनी होगी. आगे की बात में देर है, अभी मुंबई, दिल्ली से मजदूरों के पलायन से फोर्ड निसान जैसी कंपनियों को आने वाले महीनों में मजदूर नहीं मिल पाने की चिंता सता रही है. जेम और ज्वेलरी से जुड़े संस्थानों के प्रमुख भी इस आशंका से परेशान हैं. यहां इस बात पर भी ध्यान दें कि अब गांवों से लगे कस्बों, शहरों में भी अच्छे कारीगरों की मांग बढ़ गई है. यदि उन्हें वहीं काम मिल गया तो वे क्यों बड़े महानगरों में जाएंगे.
असल में लगभग 12 करोड़ मजदूर उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान और पूर्वोत्तर राज्यों से महानगरों तक आते रहे हैं वे निर्माण कार्यो, मिलों-कारखानों, ट्रांसपोर्ट, ईंट भट्ठों, बंदरगाहों, घरेलू काम में लगे रहे. स्थिति सुधरने पर गांवों और शहरों में रोजगार के लिए सही श्रमिकों की मांग बड़े पैमाने पर रहेगी. इसी तरह भारत में सामाजिक, आर्थिक स्थिति सुधरने पर यूरोप, अमेरिका की कंपनियां ही नहीं बहुत बड़ी संख्या में भारतीय भी वापस आना चाहेंगे, क्योंकि इस कोरोना संकट में उन देशों की दुर्दशा उन्होंने देख ली है. शहरों तक सीमित नहीं रहकर ‘चलो गांव की ओर’ का मंत्न सार्थक करना होगा. ग्रामीण क्षेत्नों के उद्धार का स्वर्णिम अवसर अब सामने है.

Web Title: Alok Mehta's blog over migrants leave during coronavirus Lockdown: India's picture can shine through urban migration

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