आलोक मेहता का ब्लॉग: आत्म-अनुशासन चाहिए या सरकारी लगाम?
By आलोक मेहता | Published: September 7, 2020 07:57 AM2020-09-07T07:57:28+5:302020-09-07T07:57:28+5:30
इन दिनों मीडिया के कई दिग्गज, राजनेता, सामाजिक - सांस्कृतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग और सामान्य जनता का एक वर्ग किसी लगाम, नियंत्रण, लक्ष्मण रेखा की बात कर रहे हैं.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो संविधान में हर भारतीय नागरिक को है. समाचार माध्यम - पत्र पत्रिकाएं, टीवी चैनल भी उसी अधिकार का लाभ पाते हैं. फिर कुछ नियम प्रावधान मीडिया के लिए बनते बदलते रहे हैं. इसलिए इन दिनों मीडिया के कई दिग्गज, राजनेता, सामाजिक - सांस्कृतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग और सामान्य जनता का एक वर्ग किसी लगाम, नियंत्रण, लक्ष्मण रेखा की बात कर रहे हैं. उन्हें ध्यान नहीं है, यह बात पिछले पांच दशकों में उठती और दबाई जाती रही है.
मैं स्वयं 1970 से पत्रकारिता में होने के कारण राज्यों और केंद्र की सरकारों, अतिवादी सांप्रदायिक, आतंकवादी समूहों के दबावों और प्रयासों को देखता, समझता और झेलता रहा हूं. वर्तमान संदर्भ में टीवी मीडिया को लेकर गंभीर बहस छिड़ गई है. वे क्यों सुशांत सिंह - रिया प्रकरण या चीन भारत सीमा विवाद या कोरोना महामारी के संकट को दिन-रात अतिरंजित ढंग से दिखा रहे हैं. फिर प्रतियोगिता में एक दूसरे से मार-काट क्यों कर रहे हैं? कौन कितना किस विषय को दिखाए यह तय कौन करेगा?
एडिटर्स गिल्ड में हरि जयसिंह के अध्यक्ष और मेरे महासचिव के कार्यकाल में संपादकों के लिए एक आचार संहिता बनाई गई और राष्ट्रपति डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम ने स्वयं इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के एक छोटे सभाकक्ष में आकर उसे जारी किया था. इसी तर्ज पर 2007 से टीवी संपादकों ने खासकर प्रसारण के लिए अपने नियम व आचार संहिता बनाई. प्रेस परिषद् ने ने भी आचार संहिता बनाई. लेकिन परिषद् या संपादकों की आचार संहिताओं में किसी सजा का प्रावधान नहीं है. मतलब इसे अपने जीवन मूल्यों की तरह स्वयं अपनाए जाने की अपेक्षा की जाती है. इस पृष्ठभूमि में आज भी सवाल यह है कि प्रकाशन या प्रसारण की सामग्री और प्राथमिकता कौन तय करे? कौन कितनी देर क्या दिखाए या बोले - कौन तय करे.
हम सब शुचिता के साथ स्वतंत्रता को आवश्यक मानते हैं. लेकिन एक दूसरे को नीचे दिखाकर भर्त्सना के साथ क्या क्रोध या रुदन के बाद सरकार को प्रसारण नियामक कानून बनवाने के लिए निमंत्रित करना चाहेंगे? इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आवाज उठाने वाले ही घायल होंगे और सामान्य नागरिक भी अप्रत्यक्ष रूप से सरकार द्वारा बनाई जा सकने वाली नियामक व्यवस्था से चुनी गई सामग्री ही पा सकेंगे. आपसी लड़ाई के दौरान सबको भविष्य को ध्यान में रख स्वयं तय करना होगा - आत्म-अनुशासन या सरकारी लगाम?