अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: नये साल में कुछ दिलचस्प चुनावी कयास

By अभय कुमार दुबे | Published: January 2, 2019 03:44 PM2019-01-02T15:44:22+5:302019-01-02T15:44:22+5:30

Abhay Kumar Dubey's blog: Some interesting poll speculations in the new year | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: नये साल में कुछ दिलचस्प चुनावी कयास

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: नये साल में कुछ दिलचस्प चुनावी कयास

नये साल का सबसे दिलचस्प सवाल यह है कि नरेंद्र मोदी 2014 में चुनाव लड़ते समय ज्यादा मजबूत थे या 2019 में चुनाव लड़ते समय होंगे? प्रेक्षकों के बीच मोटे तौर पर इतनी सहमति तो है ही कि नरेंद्र मोदी की मौजूदा स्थिति 2014 जितनी ठोस नहीं है. उस समय जब भाजपा के नेता और कार्यकर्ता लोगों के बीच ‘अबकी बार मोदी सरकार’ का फिकरा ले जाते थे, तो उन्हें शायद ही कभी नकारात्मक प्रतिक्रिया सुनने को मिलती हो.

2013 में जब मोदी को भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया तो उन्हें 2014 की मई में नई सरकार बनने तक करीब-करीब वर्ष का तीन-चौथाई हिस्सा मिला था जिसमें उनके पास धुआंधार प्रचार करने का मौका था. इस मौके को उन्होंने खूब भुनाया और कुशलतापूर्वक लोगों के मानस में अपनी सरकार बनने की संभावनाओं पर बार-बार मुहर लगवाने में कामयाबी हासिल की. एक तरह से वोट पड़ने से पहले ही लोगों के दिमाग में उनकी सरकार बन चुकी थी. 

2019 की तैयारी में इस समय स्थिति यह है कि लोग दूसरी बार मोदी सरकार की संभावनाओं के प्रति अभी स्पष्ट रूप से नकारात्मक नहीं हुए हैं, पर वे 2014 की तरह सकारात्मक भी नहीं हैं. वे सोच रहे हैं उनके हाथ में तराजू है जिसके एक पलड़े पर मोदी के वायदे हैं और दूसरे पर उनकी सरकार का प्रदर्शन है.

छत्तीसगढ़ को छोड़ कर कहीं भाजपा का सूपड़ा साफ नहीं हुआ, यानी वोटरों ने संदेश दिया कि वे अभी अनिश्चय की स्थिति में हैं. इसके दो अर्थ निकलते हैं. पहला, मोदी की भाजपा राज्य स्तर पर एंटी-इनकम्बेंसी का मुकाबला करने में नाकाम रही और वोटरों का अनिश्चय भाजपा से बहुत से वोट छीन सकता है. दूसरा, लोकसभा के लिए वे मतदाता कुछ भिन्न तरीके से सोचेंगे यानी एंटी-इनकम्बेंसी के बावजूद वे मोदी को एक मौका और देने के बारे में फैसला ले सकते हैं. 

मान लीजिए कि अनिश्चय के शिकार लेकिन पांच साल पहले मोदी को वोट दे चुके वोटर अपनी कुछ-कुछ नाराजगियों के बावजूद अंतत: मोदी को वोट देने का फैसला कर लेते हैं तो क्या होगा? क्या पिछली बार की तरह 31 फीसदी (राष्ट्रीय औसत) से 38 फीसदी (जहां-जहां भाजपा चुनाव लड़ी थी) के बीच वोट अगर मोदी को दोबारा मिल जाए तो क्या उन्हें फिर से पूर्ण बहुमत मिल सकता है? इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर है कि बाकी 62 से 69 फीसदी वोटों का विन्यास क्या होता है? चुनावशास्त्र की भाषा में इस सवाल को यूं भी पूछा जा सकता है कि भाजपा विरोधी राजनीतिक शक्तियों की एकता का इंडेक्स (जो पिछली बार शून्य था) क्या इस बार भी न के बराबर रहेगा, या पहले के मुकाबले यह एकता पच्चीस से लेकर सत्तर-अस्सी प्रतिशत के बीच बेहतर होगी?

इन प्रश्नों का सर्वाधिक सुरक्षित उत्तर यह है कि इस बार मोदी को थोड़ी-बहुत एंटी-इनकम्बेंसी का सामना करना ही होगा, और उनके खिलाफ विपक्षी शक्तियों का ध्रुवीकरण भी पहले के मुकाबले कुछ न कुछ बेहतर होगा. अर्थात्, मोदी को अपने पुराने वोट (31 से 38 फीसदी) तो चाहिए ही होंगे, उन्हें विपक्षी एकता को निष्प्रभावी करने के लिए अतिआवश्यक कम से कम दस से बारह फीसदी नए वोट भी चाहिए होंगे.

पचास फीसदी या उससे ज्यादा वोट हासिल करने के लिए मोदी पुराने वोटरों को कैसे मनाएंगे, और नए वोटर कहां से लाएंगे? समझ की सुविधा के लिहाज से यहां मोटे तौर पर ऊंची जातियों, किसानों और व्यापारियों के वोटों को पुराने वोटों की नुमाइंदगी दी जा सकती है, और युवाओं को (जिन्होंने पिछली बार पहली बार वोट दिया था, इस बार दूसरी बार देंगे और इनमें से बहुत से पहली बार के वोटर भी होंगे) नए वोटों का प्रतिनिधि माना जा सकता है. मोदी को एससी-एसटी एक्ट प्रकरण से नाराज ऊंची जातियों को मनाना है. नोटबंदी और जीएसटी से नाराज व्यापारी वर्ग को भी मनाना है. और, असाधारण तकलीफों में जिंदगी गुजार रहे किसानों को भी मनाना है.

मोदी को युवाओं को यकीन दिलाना है कि उन्हें पिछले पांच साल में भले ही रोजगार न मिल सका हो, पर अगले पांच साल में जरूर मिल जाएगा. 

ऐसे में भाजपा विरोधी विपक्ष को क्या करना है? उसे केवल दो काम करने हैं. पहला, राज्यों में क्षेत्रीय स्तर पर आवश्यकता के अनुसार प्रभावी चुनावी तालमेल करना है ताकि भाजपा को अपने विरोधी वोटों के बिखराव का लाभ न मिल सके; दूसरा, कांग्रेस को भविष्य की गैर-भाजपा सरकार की एंकर-पार्टी के तौर पर सवा सौ से डेढ़ सौ के बीच सीटें जीतने की गारंटी करनी है. ये सीटें उसे अपने प्रभाव वाले पंद्रह राज्यों की 198 सीटों पर एवं बाकी राज्यों में गठजोड़ों के आधार पर मिली सीटों पर लड़ कर हासिल करनी होंगी. राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस का आयतन घटा है, इसलिए यह उसके लिए थोड़ा मुश्किल होगा. 

जो भी हो, अगर विपक्ष ये दोनों शर्ते पूरी नहीं कर पाया तो 2019 में ‘अबकी बार फिर से मोदी सरकार’ ही बनेगी, भले ही वह 2014 जितनी ताकतवर क्यों न हो. हां, अगर विपक्ष ने ये शर्ते पूरी कर दीं तो कुछ भी हो सकता है.

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: Some interesting poll speculations in the new year