अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: 1962 के दौर की याद दिला रही हैं लद्दाख की हालिया घटनाएं
By अभय कुमार दुबे | Published: June 24, 2020 05:33 AM2020-06-24T05:33:21+5:302020-06-24T05:33:21+5:30
लद्दाख में चीन के हाथों बीस भारतीय सैनिकों के मारे जाने की घटना से पहले ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी राष्ट्रपति के साथ अपनी अठारह मुलाकातों से पैदा हुए मुगालते में थे. मोदीजी तो भारत और चीन को मिला कर 21वीं सदी को एशियाई प्रभुत्व की सदी बताने की हद तक चले गए थे. यह कुछ वैसा ही था जैसा नेहरू और चाऊ एन लाई के बीच हुआ था. सवाल यह है कि कहीं हालात वैसे ही तो नहीं होने जा रहे हैं? यह अंदेशा इसलिए भी बढ़ जाता है कि लद्दाख की घटनाएं पहली बार में ही 1962 की याद दिला देती हैं. अक्टूबर 1962 में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने लद्दाख में ही मैकमोहन लाइन पार कर भारतीय चौकियों पर हमला करके युद्ध की शुरुआत की थी. जब चीन का मकसद पूरा हो गया तो उसने अपनी तरफ से युद्धविराम भी घोषित कर दिया. यानी हमले की शुरुआत भी उसने की, और युद्ध रोकने का ऐलान भी उसी ने किया. दोनों सिरों पर पहल उसी के हाथ में थी.
चीनी सेना ने अपना आखिरी युद्ध सत्तर के दशक की शुरुआत में वियतनाम के खिलाफ लड़ा था. एक तरह से वह पीएलए का वियतनाम पर हमला माना जाता है. वियतनामी सेना उस समय बहुत उत्साह में थी. हाल ही में उसने अमेरिकनों को भगा कर आजादी हासिल की थी. इसलिए उसने पीएलए का जबरदस्त मुकाबला किया, और एक तरह से उस पर गहरी चोटें करने में कामयाबी हासिल की. तब से अब तक चीनी सेना आधुनिकीकरण के दो दौरों से गुजर चुकी है. इसी तरह भारतीय सेना भी कोई 1962 की हालत में नहीं है. इस बीच उसने पाकिस्तान से तीन युद्ध लड़े हैं और हर बार उसका पलड़ा भारी रहा है. कहना न होगा कि अगर भारत-चीन युद्ध होता है तो 1962 के परिणाम का दोहराव नहीं होगा बल्कि लड़ाई जम कर होगी और नतीजे में चीनी सेना की वही हालत हो सकती है जो वियतनाम ने 1973 में उसकी की थी. लेकिन, यहीं हमें एक बात और भी याद रखनी चाहिए.
भारत की जीत केवल संभावित है. जिस तरह पाकिस्तान के खिलाफ भारत की जीत की गारंटी होती है, उस तरह की गारंटी चीन के खिलाफ नहीं दी जा सकती. तकनीकी दृष्टि से देखा जाए तो चीन फौजी लिहाज से भारत के मुकाबले कई गुना मजबूत स्थिति में है. गलवान घाटी में उसने भारत द्वारा बनाई जा रही सड़क के दोनों ओर की ऊंचाइयों पर कब्जा कर लिया है, और अगर किसी किस्म का टकराव हुआ तो उसके सैनिक उन पहाड़ियों से भारतीय गतिशीलता को अवरुद्ध कर देने की स्थिति में पहुंच गए हैं.
जहां तक आर्थिक स्थिति का सवाल है, चीन भारत से कम से कम दस गुना ज्यादा ताकतवर है. भारत चाह कर भी चीन के आयातों पर रोक नहीं लगा सकता. दोनों ही देश विश्व व्यापार संगठन के सदस्य हैं, और डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुसार भारत चीन के खिलाफ प्रतिबंधात्मक कदम नहीं उठा सकता. हां, यह जरूर है कि स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ जैसे संगठन उपभोक्ताओं के बीच एक राष्ट्रवादी अभियान चला सकते हैं ताकि लोगों में चीनी चीजों के प्रति अरुचि पैदा हो जाए. एक सुझाव ऐसा भी है कि भारत चीन से किए जाने वाले ऐसे आयातों पर रोक की आधिकारिक घोषणा करे जो गैर-जरूरी किस्म के हैं. ऐसा करने के लिए भी भारत को ऐलान करना पड़ेगा कि चीन अब उसके लिए ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ नहीं रह गया है. पाठकों को याद होगा कि पाकिस्तान से ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ का दर्जा छीनने में भी भारत को बहुत वक्त लग गया था. जिस देश से भारत 92 अरब डॉलर का व्यापार कर रहा हो, और जो व्यापार संतुलन में भारत से 45 अरब डॉलर आगे हो, उसके साथ संबंध पूरी तरह से खत्म करने का नतीजा भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान में भी निकल सकता है.
तो फिर भारतक्या करे? गलवान घाटी में चीनी उपस्थिति का भारत के पास क्या इलाज है? कर्नल संतोष बाबू और 19 सैनिक अपनी शहादत दे कर भी चीन को वहां से नहीं हटा पाए हैं. इधर भारत ने आधिकारिक रूप से कह दिया है कि उसकी किसी चौकी पर चीन ने कब्जा नहीं किया है. इससे चीन के रणनीतिकारों को खासा संतोष मिला है. उन्हें लग रहा है कि उनकी फायदे की स्थिति को भारत ने स्वीकार कर लिया है. यहीं भारतीय रणनीतिकारों को एक सुझाव पर गौर करना चाहिए. अगर भारत गलवान की उन ऊंचाइयों से चीन को नहीं हटा सकता, तो चीन की किसी अन्य चौकी पर अपनी पहल से चीनी असावधानी का लाभ उठा कर कब्जा कर लेना चाहिए. अगर भारत ऐसा कर सकता है तो उसे चीन से सौदेबाजी करने में सुविधा रहेगी, और उस चौकी को छोड़ने के बदले वह गलवान पर अपना प्रभुत्व फिर से हासिल कर पाएगा.
कहना न होगा कि भारत का हाथ पत्थर के नीचे दबा है. बहुत होशियारी की जरूरत है. यह मोदी के नेतृत्व की आज तक की सबसे कड़ी परीक्षा है.