अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: बिहार विधानसभा के चुनाव में काफी कुछ डिजिटल हो रहा है
By अभय कुमार दुबे | Published: June 10, 2020 06:08 AM2020-06-10T06:08:58+5:302020-06-10T06:08:58+5:30
बिहार विधानसभा चुनाव इस बार काफी-कुछ डिजिटल किस्म का होगा. पहले की जाने वाली रैलियों में हर पार्टी को प्रति व्यक्ति लंबा-चौड़ा खर्च करना पड़ता था. डिजिटल रैलियों में यह व्यय बहुत घट जाने वाला है. साथ ही किराए के श्रोताओं के दम पर होने वाली राजनीतिक रैलियों में भी इससे कटौती हो सकती है.
केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग को बिहार में चुनाव कराने के लिए हरी झंडी दे दी है और बिहार में राजनीतिक दल कमर कस कर मैदान में कूद गए हैं. चुनाव को एक ऐसे मौके के रूप में भी देखा जा सकता है जब जनता के बीच कोविड-19 से निपटने, उसके लिए दिए गए आíथक पैकेज और राहत के अन्य बंदोबस्तों की समीक्षा का अवसर प्राप्त होगा. अब तो भाजपा के प्रवक्तागण भी टीवी पर कहने लगे हैं कि कोविड-19 के 95 फीसदी मरीज अपने आप ठीक हो जाते हैं.
मतलब साफ है कि सरकार कोविड संक्रमण से भयभीत नहीं रह गई है. वह संक्रमितों की बढ़ी हुई संख्या के दबाव में सामाजिक-राजनीतिक-आíथक गतिविधियों को रोकने के लिए तैयार नहीं है. ऐसे में कोविड-19 से लड़ाई के वैकल्पिक मॉडलों और भारत द्वारा अपनाए गए लॉकडाउन के मॉडल की तुलनात्मक समीक्षा का अवसर आ गया है. मेरे ख्याल से चुनावी बहस भी इसकी संभावनाएं खोलेगी.
इस बार चुनाव काफी-कुछ डिजिटल किस्म का होगा. पहले की जाने वाली रैलियों में हर पार्टी को प्रति व्यक्ति लंबा-चौड़ा खर्च करना पड़ता था. डिजिटल रैलियों में यह व्यय बहुत घट जाने वाला है. साथ ही किराए के श्रोताओं के दम पर होने वाली राजनीतिक रैलियों में भी इससे कटौती हो सकती है. हम जानते हैं कि प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं के भाषणों को सुनने के लिए आने वाली कथित भीड़ों के बावजूद ये रैलियां कभी चुनाव परिणामों की गारंटी नहीं कर पाईं.
मसलन, दिल्ली के चुनावों में प्रधानमंत्री की रैलियों में खूब लोग जमा हुए. पर भाजपा फिर भी बुरी तरह से चुनाव हार गई. इसी तरह उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव की रैलियों में भीड़ आती रही, पर उसके हिसाब से वोट नहीं मिले. अगर चुनाव प्रचार डिजिटल हो जाए तो चुनावी खर्च में तो कमी आएगी ही, साथ ही मतदाता अपनी मर्जी से उस डिजिटल प्रचार में भाग लेगा या नहीं भाग लेगा.
बिहार में पिछले चुनाव में लालू और नीतीश के बीच गठजोड़ था. दोनों नेताओं ने मिल कर बहुत बड़ी संख्या में (481) रैलियां संबोधित की थीं. आज वहां की राजनीति का नजारा बदल चुका है. लालू जेल में हैं और नीतीश भाजपा के साथ. दूसरी तरफ, नीतीश से हमदर्दी रखने वाले भी यह मानते हैं कि सुशासन बाबू के तौर पर उनकी छवि पहले की तरह खरी नहीं रही है. बाढ़ के दौरान और इस महामारी के दौरान उन्होंने जिस तरह के वक्तव्य दिए, उनसे भी लगता है कि उनकी धार कुछ-कुछ भोथरी होने लगी है. लेकिन यह भी मानना होगा कि जब उनकी तुलना बिहार के दूसरे नेताओं से की जाती है तो आज भी राज्य की राजनीति में वे ही नंबर-एक के नेता लगते हैं.
यह अलग बात है कि मुख्यमंत्री बने रहने के उनके आग्रह ने उनसे राष्ट्रीय राजनीति में एक अलग तरह का हस्तक्षेप करने का मौका छीन लिया है. यहां यह कहना मुनासिब होगा कि नीतीश द्वारा बिहार की राजनीति में सिमट जाने के पीछे कांग्रेस का रवैया भी उल्लेखनीय रहा है. अगर कांग्रेस 2015 की जबरदस्त जीत के बाद नीतीश को मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने के लिए तैयार हो जाती तो देश की राजनीति बदल सकती थी. लेकिन नीतीश द्वारा दिए गए कई तरह के संकेतों के बावजूद ऐसा न हो सका और लालू प्रसाद यादव की तरफ से पैदा की जा रही दिक्कतों के दबाव में उन्हें एक बार फिर भाजपा का साथ देना पड़ा.
अगर राष्ट्रीय पैटर्न को देखें तो बिहार के चुनाव में भाजपा को दिक्कत हो सकती है. 2019 की जबरदस्त जीत के बाद भाजपा को राज्यों में आम तौर पर धक्के का सामना करना पड़ा है. लेकिन बिहार में वोटों का सामाजिक समीकरण भाजपा और नीतीश के गठजोड़ के पक्ष में झुका हुआ है. प्रमुख विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल सांगठनिक रूप से अच्छी स्थिति में नहीं है. विपक्षी एकता की संभावनाएं भी बिखरी हुई हैं. तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट होना चाहते हैं. अभी तक अन्य विपक्षी दलों ने उनके नाम पर हामी नहीं भरी है.
पहली नजर में देखने में लगता है कि तेजस्वी को विपक्षी एकता की खातिर कुछ पीछे हटकर गठजोड़ बनाने में दिलचस्पी नहीं है. वे अपने दम पर और अपनी शख्सियत को स्थापित करने के लिए चुनाव लड़ना चाहते हैं. अगर यह विश्लेषण सही है तो फिर नीतीश के लिए चुनाव जीतना और आसान हो जाने वाला है.