अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः 17 से 34 प्रतिदिन और बदले में वोट चाहिए?

By अभय कुमार दुबे | Published: February 3, 2019 07:30 PM2019-02-03T19:30:44+5:302019-02-03T19:30:44+5:30

किसानों के साथ इस बजट ने मध्यवर्ग के तीन करोड़ करदाताओं को भी राहत देने का दावा किया है. इसके मुताबिक पांच लाख तक की आमदनी पर एक करदाता को साढ़े बारह हजार रुपए सालाना का लाभ होगा.

Abhay Kumar Dubey's blog: 17 to 34 per day and vote in return? | अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः 17 से 34 प्रतिदिन और बदले में वोट चाहिए?

फाइल फोटो

राजनीति के लोकलुभावन संस्करण के औचित्य पर जो भी प्रश्नचिह्न् लगाए जाते हों, वह अंतत: राजनीति करने का एक वैध तरीका है. हर नेता और हर पार्टी को कभी न कभी उसका सहारा लेना ही पड़ता है. बहुतेरे टिप्पणीकारों ने कहा है कि मोदी सरकार का अंतरिम बजट लोकलुभावन है और उसमें समाज के हर तबके का ध्यान रखा गया है. हर किसी की जेब में कुछ न कुछ डालने की कोशिश की गई है, ताकि अगर सरकार के प्रति उनके भीतर कुछ अनमनापन हो तो वह उम्मीद और उछाल में बदल जाए. आइए, अंतरिम बजट के लोकलुभावनपन की जांच करें, क्योंकि इसी से पता चल पाएगा कि इसके भीतर से वोट निकलेंगे या नहीं. 

यह बजट पांच एकड़ तक के किसानों को पांच सौ रुपए महीने की आमदनी कराता है. औसतन पांच लोगों के परिवार के लिए यह आमदनी सत्रह रुपए प्रतिदिन और साढ़े तीन रुपए प्रति व्यक्ति बैठती है. सरकार चुनाव आयोग की आचार संहिता लागू होने से पहले ही एक किस्त किसानों के खातों में पहुंचा देगी, लेकिन दिक्कत यह है कि यह सहायता किसान परिवार के हर एक सदस्य को एक कप चाय भी नहीं पिला सकती, एक एकड़ जमीन के लिए यूरिया खरीदने या किराये पर लिए गए ट्रैक्टर की टंकी में एक बार डीजल भरवाने की बात तो दूर रही. तेलंगाना की सरकार किसानों को आठ हजार रुपए प्रति एकड़ की मदद दे रही है, और ओडिशा की सरकार दस से साढ़े बारह हजार रुपए की मदद किसानों को ही नहीं बल्कि बटाईदारों और खेतमजदूरों को भी दे रही है. जो मदद इन गरीब प्रदेशों की राज्य सरकारों से भी कम है और जिस रकम से गरीब किसान अपनी जिंदगी पर भिनभिनाती मक्खियां तक नहीं उड़ा सकते, उससे सरकार को वोट देने की प्रेरणा नहीं निकल सकती. 

किसानों के साथ इस बजट ने मध्यवर्ग के तीन करोड़ करदाताओं को भी राहत देने का दावा किया है. इसके मुताबिक पांच लाख तक की आमदनी पर एक करदाता को साढ़े बारह हजार रुपए सालाना का लाभ होगा. 1040 रुपए महीने का लाभ. एक बार फिर पांच व्यक्तियों के औसत परिवार के लिए यह मदद चौंतीस रुपए प्रतिदिन बैठती है अर्थात छह रुपए अस्सी पैसे प्रति व्यक्ति. तकनीकी रूप से कहा जा सकता है कि सरकार ने मध्यवर्ग की जेब में कुछ पैसा डाला है. वह इस पैसे से कौन सी खरीदारी करेगा, अपने जीवन-स्तर में किस कोण से इजाफा करेगा? कहना न होगा कि मध्यवर्ग एक खास तरह के मिजाज का मालिक होता है और उसे छोटी-छोटी रियायतें भी अच्छी लगती हैं. लेकिन यह रियायत कुछ ज्यादा ही छोटी प्रतीत हो रही है. साढ़े तीन करोड़ करदाताओं में से हर एक अपने ये साढ़े बारह हजार रुपए मार्केट में डालेगा तो क्या इससे अर्थव्यवस्था में कुछ नई गति आएगी? हो सकता है कि ऐसा हो. ध्यान रहे कि ये साढ़े बारह हजार रुपए इस करदाता को 2020 में मिलेंगे. क्या यह अत्यंत छोटी सी रकम पाने के आश्वासन के बदले मध्यमवर्गीय वोटर अपने कान में सरकार द्वारा फुसफुसा कर की गई वोट की अपील को याद रख पाएगा? 

इसी तरीके से गरीब मजदूरों को दी जाने वाली पेंशन का मसला है. सरकार उससे सौ रुपए का प्रीमियम 2050 तक वसूलेगी, तब कहीं जाकर उसे पेंशन मिलने की नौबत आएगी. बजट दस्तावेज के आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि किसानों और मध्यवर्ग को दी गई इन नाममात्र की राहतों का पैसा दरअसल कहां से आएगा. अटल बिहारी के नाम पर चलाई गई गांवों को पेयजल मुहैया कराने की योजना, गंगा सफाई की नमामि गंगे योजना और ऐसी ही कई योजनाओं के लिए पिछले बजट में जो रकम आवंटित की गई थी- इस बार उनमें से बड़ा-बड़ा हिस्सा काट लिया गया है ताकि यह तथाकथित राहत दी जा सके. अपनी तरफ से तो सरकार यह बताने की जहमत भी नहीं उठाना चाहती कि उसने ऐसा किया है, और बजट की विरुदावलि गाने में लगे हमारे तथाकथित विशेषज्ञ इन पहलुओं पर गौर करने के लिए तैयार नहीं हैं. 

यहीं सवाल उठता है कि क्या वास्तव में चुनाव जीतना इतना ही सरल है? अगर वास्तव में नरेंद्र मोदी इस बजट के दम पर चुनाव जीतना चाहते हैं और अगर जीत भी लेते हैं तो हमें इस प्रश्न पर विचार करना ही पड़ेगा. पांच साल तक इस सरकार ने ऐसा काम किया कि बाजार ठंडा हो गया, निवेश पर बर्फ जम गई, रोजगार नहीं बना, पुराने रोजगारों को भी सुरक्षित नहीं रखा जा सका, न मध्यवर्ग का ध्यान रखा गया और न ही किसानों का. युवकों की महत्वाकांक्षाओं को संबोधित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया. नतीजतन सांसदों और कार्यकर्ताओं में सुस्ती आ गई. तीन राज्यों में सरकार न बना पाने के कारण यह सुस्ती 2019 में पराजय के डर में बदल गई.

सरकार के समर्थकों को भी उसकी वापसी की संभावनाएं कमजोर लगने लगीं. इसी सुस्ती को दूर करने के लिए वित्त मंत्री सदन में जोश-जोश में बोलते नजर आए. क्या यह सब सत्रह रुपए से चौंतीस रुपए की राहत के बल पर बदला जा सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में केवल इतना कहा जा सकता है कि अब मोदी और उनके प्रचारकों के पास चुनाव मुहिम में उतरने के समय कुछ कहने के लिए होगा. यह अलग बात है कि इस उत्तर में ही सरकार के पिछले पांच वर्षो के कामकाज की समीक्षा निहित है. 

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: 17 to 34 per day and vote in return?

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