अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: धीमी मृत्यु की तरफ बढ़ता हुआ एक गठजोड़

By अभय कुमार दुबे | Published: October 14, 2020 02:43 PM2020-10-14T14:43:51+5:302020-10-14T14:43:51+5:30

शिवसेना और भाजपा के संबंधों का आलम तो यह था कि दोनों की तरफ से विचारधारात्मक दोस्ती की कसमें खाई जाती थीं. दोनों का उभार एक-दूसरे का साथ निभाने की प्रक्रिया में ही हुआ है. इसके बावजूद आज दोनों एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी हैं.

Abhay Kumar Dubey blog: A nexus moving towards slow death | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: धीमी मृत्यु की तरफ बढ़ता हुआ एक गठजोड़

अमित शाह के जरिये उन्होंने भाजपा को एक पार्टी के तौर पर बहुत बड़ा बना दिया.

रामविलास पासवान की मृत्यु के बाद स्थिति यह है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में केवल एक गैर-भाजपा चेहरा बचा है, महाराष्ट्र के दलित नेता रामदास आठवले का. शिवसेना इस गठबंधन से बाहर हो चुकी है. अकाली दल भी बाहर चला गया है. बिहार में चुनाव के बाद यानी नवंबर खत्म होते-होते कौन सी बिहारी पार्टी राजग में बचेगी और कौन सी बाहर चली जाएगी, इसके बारे में गारंटी से कुछ नहीं कहा जा सकता. 1992 में अकाली दल ने सिख कार सेवकों के एक जत्थे को अयोध्या भेजा था.

यानी सिख बहुसंख्यकवाद की प्रतिनिधि पार्टी और हिंदू बहुसंख्यकवाद की प्रतिनिधि पार्टी के बीच संबंध केवल चुनावी न होकर विचारधारात्मक भी था. शिवसेना और भाजपा के संबंधों का आलम तो यह था कि दोनों की तरफ से विचारधारात्मक दोस्ती की कसमें खाई जाती थीं. दोनों का उभार एक-दूसरे का साथ निभाने की प्रक्रिया में ही हुआ है. इसके बावजूद आज दोनों एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी हैं. बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जनता दल (एकीकृत) के दिल्ली स्थित प्रतिनिधि के.सी. त्यागी तो टीवी पर और निजी बातचीत में हमेशा कहा करते थे कि भाजपा गठबंधन धर्म कांग्रेस या किसी और पार्टी के मुकाबले ज्यादा अच्छी तरह से निभाती है. त्यागीजी आज अफसोस के साथ देख रहे होंगे कि वही भाजपा आज उनकी पार्टी के पैर काटने के लिए लोजपा को इस्तेमाल कर रही है.

क्या राजग के बिखराव की जिम्मेदारी केवल भाजपा की है या उसके साथ लंबे अरसे से जुड़ी रही क्षेत्रीय शक्तियों को भी इसका जिम्मेदार समझा जाना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें राजग के हालिया इतिहास पर नजर डालनी चाहिए. इस इतिहास में एक विभाजक रेखा है- 2013 की. यही है वह साल जब नरेंद्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार चुना गया था. मोदी ने जैसे ही चुनावी मुहिम की (प्रकारांतर से समूची पार्टी की) कमान संभाली, वैसे ही उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा बनाई गई राजग से जुड़ी पार्टी की रीति-नीति में संशोधन करने का अलिखित फैसला कर लिया. अटल बिहारी रिटायर हो चुके थे. लेकिन आडवाणी की रणनीति का आग्रह था कि राजग को जितना मजबूत किया जाएगा, भाजपा केंद्रीय राजनीति की जमीन पर उतने ही ठोस ढंग से आगे बढ़ेगी. मोदी इससे असहमत थे. उनकी रणनीति का कहना था कि भाजपा की जिम्मेदारी राजग को मजबूत करने की नहीं है. भाजपा को अपनी सारी ऊर्जा स्वयं को मजबूत करने में लगानी चाहिए.

जैसा मोदी चाहते थे, वैसा ही हुआ. अमित शाह के जरिये उन्होंने भाजपा को एक पार्टी के तौर पर बहुत बड़ा बना दिया. परिणाम यह निकला कि अंदरूनी हलकों में भाजपा जिस स्थिति की कल्पना करती थी, उसे जमीन पर साकार करने का मौका मिल गया. नितिन गडकरी के शब्दों में कहा जाए तो उनकी पार्टी ‘शतप्रतिशत भाजपा’ या ‘चप्पे-चप्पे में भाजपा’ के लक्ष्य को सामने रख कर काम करती है. यह लक्ष्य तभी पूरा हो सकता था जब भाजपा क्षेत्रीय सहयोगी दलों को प्रदेशों में सत्ता हासिल करने में सहयोगी की भूमिका निभाने की बजाय उनके प्रतियोगी की भूमिका निभाने पर उतर आए.

इसकी पहली झलक ओडिशा में दिखी जब एनडीए के सहयोगी बीजू जनता दल (बीजद) को लगा कि भाजपा प्रदेश में सत्ता की प्रमुख दावेदार बन कर उभरना चाहती है. दूसरी झलक आंध्र प्रदेश में दिखी जब तेलुगू देशम (तेदेपा) के चंद्रबाबू नायडू को भाजपा के स्थानीय नेतृत्व ने परेशान करना शुरू किया. एनडीए से सबसे पहले बीजद और तेदेपा ने ही कन्नी काटी. महाराष्ट्र में भाजपा ने शिवसेना का जूनियर पार्टनर बनने से इंकार कर दिया. पंजाब में भी धीरे-धीरे भाजपा अकालियों से बराबर की सीटें मांगने की तरफ बढ़ रही थी.

बीजद और तेदेपा तो घोषित रूप से अलग हुए, लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि कम से कम शिवसेना और अकाली दल ने भाजपा के इन इरादों का जवाब उससे भी ज्यादा कुटिल राजनीति करके दिया. मसलन, पिछले विधानसभा चुनाव में मिलजुल कर बहुमत जीतने के बावजूद जिस तरह शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के सवाल पर भाजपा को धता बताई, वह इसका सबसे बड़ा सबूत है. इस मामले में भाजपा की स्थिति अधिक तर्कपूर्ण थी. उसके पास निवर्तमान मुख्यमंत्री था, और शिवसेना से अधिक सीटें थीं. पंजाब में अकाली पहले तीनों कृषि विधेयकों का समर्थन करते रहे.

हरसिमरत कौर ने मंत्रिपरिषद की बैठकों में अपना विरोध नहीं जताया. उनके पति सुखबीर सिंह बादल तो कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का पत्र दिखा कर किसानों को संतुष्ट करने का प्रयास कर रहे थे. लेकिन ऐन मौके पर इस पार्टी ने पहले सरकार छोड़ी और फिर गठजोड़. भाजपा चौंक कर रह गई.

हाल ही में भाजपा ने कोशिश शुरू की है कि आंध्र प्रदेश के जगन मोहन रेड्डी को केंद्र में साङोदारी दी जाए. इससे एक बार फिर राजग में नई जान पड़ सकती है, लेकिन जैसे ही भाजपा ने उस प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर निगाह डाली, यह संबंध टूट जाएगा.

 

Web Title: Abhay Kumar Dubey blog: A nexus moving towards slow death

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