1980 लोस चुनाव: इतिहास रचने वालों की कहानी, मधुकर भावे का ब्लॉग
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: July 2, 2021 04:52 PM2021-07-02T16:52:49+5:302021-07-02T16:54:29+5:30
सरकार बनने के बाद तत्काल इंदिरा गांधी ने चरण सिंह सरकार को दिया गया समर्थन वापस ले लिया था. इससे सरकार अल्पमत में आकर गिर गई.
28 जुलाई 1979 को जनता सरकार गिर गई. चरण सिंह बहुमत साबित नहीं कर पाए. वे लोकसभा के सामने ही नहीं आए. उन्होंने इंदिरा कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी.
लेकिन सरकार बनने के बाद तत्काल इंदिरा गांधी ने चरण सिंह सरकार को दिया गया समर्थन वापस ले लिया था. इससे सरकार अल्पमत में आकर गिर गई. राष्ट्रपति ने कार्यवाहक सरकार के तौर पर चरण सिंह को कामकाज देखने को कहा. सरकार गिरने के बाद इंदिरा गांधी मुंबई आई थीं. एक भीड़ भरे संवाददाता सम्मेलन में उनसे सवाल पूछा गया, ‘आपने चरण सिंहजी को समर्थन दिया था, बाद में समर्थन वापस लिया. इसकी क्या वजह है?’ इंदिराजी ने तुरंत जवाब दिया, ‘कांग्रेस ने चरण सिंहजी को सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया था, चलाने के लिए नहीं.’ इंदिराजी का वह जवाब काफी चर्चित रहा था.
मुंबई का दौरा निपटाकर इंदिराजी दिल्ली चली गईं क्योंकि लोकसभा के मध्यावधि चुनावों की घोषणा हो चुकी थी. 1977 के लोकसभा चुनाव में मिली पराजय के चलते कांग्रेस के सामने नई रणनीति तैयार करना जरूरी था. जनता अपने साथ है इसका यकीन उन्हें हो चुका था. पहला अनुभव हुआ नागपुर से और उसमें भी बाबूजी (जवाहरलाल दर्डा) के घर पर हुई मुलाकात से.
इस मुलाकात के बाद इंदिराजी जब पवनार के लिए (31 अगस्त 1977) रवाना हुईं तो पवनार तक स्वागत के लिए सड़क के दोनों ओर जनसैलाब उमड़ा हुआ था. यह जनसैलाब इंदिराजी की दोबारा सत्ता में वापसी का यकीन दिलाने वाला था. पवनार का दौरा निपटाकर इंदिराजी फिर दिल्ली चली गईं. डेढ़ साल गुजर गए, इंदिराजी को बदनाम करने का षड़यंत्र चल ही रहा था.
इस दौरान चरण सिंह सरकार को समर्थन देकर इंदिराजी ने बड़ी राजनीतिक चाल चली. वह सरकार गिरने वाली थी और गिरी भी. तत्काल लोकसभा चुनावों की रणनीति तय करने की शुरुआत इंदिराजी ने की. उसी के तहत उन्होंने कुछ राज्यों के अपने विश्वासपात्र सहयोगियों को दिल्ली में बुला लिया. 15 अक्तूबर 1979 को प्रचार की दिशा तय करने के लिए इंदिराजी ने दिल्ली में महत्वपूर्ण राजनीतिक बैठक बुलाई.
उस बैठक में तत्कालीन सांसद वसंत साठे, सी.एम. स्टीफन, राज्यसभा सांसद बैरिस्टर ए.आर. अंतुले, कर्नाटक के गुंडु राव, राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया और विदर्भ से जवाहरलाल दर्डा उपस्थित थे. हर किसी को बैठक के दौरान रणनीति को लेकर अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए पहले से ही कह दिया गया था. इंदिराजी उस वक्त 12 विलिंग्डन क्रेसेंट रोड पर रहती थीं. बैठक तीन बजे शुरू हुई. उस बैठक में ठोस प्रस्तुति अगर कोई थी तो वह बाबूजी की जिसे उन्होंने एक चित्र से स्पष्ट किया था.
जनता दल की सत्ता यानी कांटों भरी बाड़. इस कंटीली बाड़ में फंसे आम व्यक्ति को इंदिराजी का हाथ ही बाहर निकाल सकता है, ऐसा चित्र में बताया गया था. बैठक में यह चित्र प्रस्तुत करके बाबूजी ने विस्तार से अपने विचार व्यक्त किए. इंदिराजी बोलीं, ‘बिल्कुल सही है.’ बैठक में फैसला किया गया कि देशभर की सभी भाषाओं में इस चित्र का पोस्टर तैयार किया जाए.
इंदिराजी की सूचना के मुताबिक देश के सभी राज्यों में 20 दिसंबर 1979 से 7 जनवरी 1980 के चुनाव तक यही पोस्टर छाया रहा. इस चुनाव में इंदिराजी ने बहुमत हासिल किया. मराठवाड़ा, पश्चिम महाराष्ट्र की सभी जगहों पर कांग्रेस विजयी रही. चुनाव से पहले जांबुवंतराव धोटे कांग्रेस में शामिल हुए और उन्होंने कांग्रेस की सीट जीत ली.
रामटेक से जतिराम बव्रे, भंडारा से केशवराव पारधी, चंद्रपुर से शांताराम पोटदुखे, चिमूर से विलास मुत्तेमवार, अमरावती से उषाताई चौधरी, अकोला से मधुसूदन वैराले, बुलढाणा से बालकृष्ण वासनिक, यवतमाल से सदाशिवराव ठाकरे जैसे सभी के सभी कांग्रेस उम्मीदवार विदर्भ से जीत हासिल करने में कामयाब रहे. मराठवाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र से भी कांग्रेस के सभी उम्मीदवार विजयी हुए.
महाराष्ट्र की 48 में 47 लोकसभा सीट कांग्रेस ने जीती थी. 14 जनवरी 1980 को इंदिराजी फिर से प्रधानमंत्री बनीं और खास बात यह कि उसी रात ‘लोकमत’ की ओर से आयोजित स्वागत भोज समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर मौजूद रहीं. उसी दिन उन्होंने ‘लोकमत’ को विशेष साक्षात्कार भी दिया था. इस समूची राजनीतिक लड़ाई में बाबूजी की भूमिका बहुत बड़ी थी.
विदर्भ की कामयाबी के महानायक थे बाबूजी और इंदिराजी के विश्वासपात्र सहयोगी भी. पूरे देश में छा जाने वाले राजनीतिक पोस्टर के निर्माता भी बाबूजी ही थे. इसी चुनाव की मुंबई के शिवाजी पार्क में हुई कांग्रेस की आमसभा में इंदिराजी ने कहा था, ‘विदर्भ में मैं लोकमत के हथियार से लड़ रही हूं.’ इस कामयाबी में पर्दे के पीछे के सूत्रधार रहे बाबूजी ने अपने काम का कभी प्रचार नहीं किया.
लेकिन अब कई बरस गुजर चुके हैं. अगले साल 2 जुलाई 2022 को बाबूजी के जन्मशताब्दी वर्ष की शुरुआत होने जा रही है, ऐसे में इतिहास रचने वाले और उसके लिए संघर्ष करने वाले जुझारुओं की जानकारी नई पीढ़ी को देने की भावना से ही यह सबकुछ लिखा गया है. क्योंकि मैं इन सभी घटनाओं का प्रत्यक्ष गवाह रहा हूं.