राजेश कुमार बादल का ब्लॉगः शिक्षा के साथ भाषायी भेदभाव
By राजेश बादल | Published: November 20, 2018 09:06 PM2018-11-20T21:06:55+5:302018-11-20T21:06:55+5:30
उच्च शिक्षा के क्षेत्न में कार्यरत विद्वान यूजीसी की सफाई से संतुष्ट नहीं हैं.
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के एक आदेश ने देश में हिंदी माध्यम से पीएचडी कर रहे हजारों विद्यार्थियों की नींद उड़ा दी है. यूजीसी ने हाल ही में एक अधिसूचना जारी कर 4305 पत्न- पत्रिकाओं को अपनी स्वीकृति सूची से बाहर कर दिया है. स्वीकृति सूची से बाहर हुई ज्यादातर शोध पत्रिकाएं हिंदी भाषा की हैं.
यूजीसी द्वारा उठाए गए इस कदम से विवाद शुरू हो गया है. जिन पत्रिकाओं को यूजीसी ने बाहर किया है, उनमें हंस, इतिहास दर्पण, फॉरवर्ड प्रेस, इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू), वागर्थ आदि पत्रिकाएं शामिल हैं. ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की शोध पत्रिकाओं को भी इस सूची से बाहर किया गया है.
यूजीसी ने 38,653 शोधार्थियों की भी सूची जारी करते हुए निर्देश दिए हैं कि उन्हीं शोधार्थियों की डिग्री वैध मानी जाएगी जिनके शोधपत्न यूजीसी की नई सूची में स्वीकृत शोध पत्रिकाओं में छपे होंगे. वर्तमान में पीएचडी पूरी कर और अपने शोधपत्न का प्रकाशन कराकर पीएचडी डिग्री का इंतजार कर रहे शोधार्थियों पर असर पड़ेगा.
यूजीसी द्वारा इससे पूर्व भी कई पत्न-पत्रिकाओं की मान्यता खत्म की जाती रही है लेकिन यह पहला मौका है जब इस तरह से हजारों जर्नल्स को गुणवत्ता के नाम पर सूची से बाहर किया है. यूजीसी के मुताबिक स्वीकृति सूची से बाहर की गई शोध पत्रिकाओं की जांच में गलत तथ्य, अधूरी सूचनाएं, खराब गुणवत्ता और गलत दावे पाए गए थे. वहीं उत्पन्न हुए इस विवाद के बाद, यूजीसी ने स्पष्ट किया है कि नाम हटाने का मतलब जरूरी नहीं कि वे पत्रिकाएं निम्न स्तर की थीं.
यूजीसी का कहना है कि हो सकता है कि जिन पत्रिकाओं के नाम हटाए गए हैं उनमें से कुछ बुनियादी मानकों को पूरा न करती हों और जब वे इन्हें पूरा कर लें, तो इन्हें फिर इस सूची में शामिल किया जा सकता है. यूजीसी ने बताया कि पत्रिकाओं को इस सूची में शामिल रखने का एक बुनियादी मानक यह भी है कि इसकी कोई अपनी खुद की वेबसाइट है या नहीं. उपलब्ध वेबसाइट में पत्रिका का डाक का पूर्ण पता है या नहीं. लेकिन उच्च शिक्षा के क्षेत्न में कार्यरत विद्वान यूजीसी की सफाई से संतुष्ट नहीं हैं.