देश में उच्च शिक्षा पर नए सिरे से विचार की जरूरत है!
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 7, 2018 07:30 AM2018-07-07T07:30:10+5:302018-07-07T07:30:10+5:30
स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था कि जो शिक्षा दी जाती है, उसमें कुछ अच्छी बातें हैं, लेकिन इसके नुकसान इतने बड़े हैं कि वे उन अच्छी बातों को भी ढक लेते हैं।
एक महत्वपूर्ण कानून के जरिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को निरस्त कर उसके स्थान पर उच्च शिक्षा आयोग को लाना वर्तमान सरकार द्वारा हालांकि अपने कार्यकाल के अंतिम चरण में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है, जिसकी लंबे समय से जरूरत महसूस की जा रही थी। लेकिन ऐसा लग रहा है कि यह कदम आनन-फानन में उठाया गया है, जिससे उम्मीद की जा रही है कि वह आलमारी में बंद काल्पनिक समस्याओं को खत्म कर देगा। आज के समय की जरूरत जल्दबाजी में कोई कानून बना देना नहीं है बल्कि एक परिवर्तनकारी प्रक्रिया विकसित करने पर विचार करना है। पूर्व के आयोग ने 60 वर्षो से अधिक की यात्रा की और काफी जानकारी तथा अनुभव एकत्र किया। इसके कामकाज पर इतनी सामग्री हासिल हो सकती है कि एक मूल्यवान ग्रंथ तैयार हो जाए।
भारतीय उच्च शिक्षा आयोग (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग निरसन अधिनियम), विधेयक 2018 भारत में उच्च शिक्षा की समग्र संरचना को निर्बाध स्वरूप में परिभाषित करने का एक शानदार अवसर हो सकता था और आने वाले समय के लिए एक सक्रिय, दूरदर्शी तथा अभिनव दिशा निर्धारित कर सकता था। भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश देश की उच्च शिक्षा को ठीक करने के इस आधारभूत कदम पर पूरी तरह से निर्भर है, लेकिन दुर्भाग्यवश वर्तमान मसौदा इस मामले में न उत्साहजनक है और न ही प्रेरणादायक।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना जब 1956 में की गई थी तो सोचा गया था कि यह शिक्षा के समन्वय, संवर्धन, शिक्षण और परीक्षा के मानकों के निर्धारण तथा विश्वविद्यालयों में अनुसंधान को बढ़ावा देगा। इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया को कार्यान्वित करने के लिए विश्वविद्यालयों को वित्तीय आवंटन की जरूरत होती है। ऐसे किसी भी प्रावधान को निरस्त करने के पीछे व्यावहारिक दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि उससे क्या-क्या अपेक्षाएं की गई थीं और हासिल कितना हुआ है। सिर्फ धारणा भर से विशाल परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। जब देश में उच्च शिक्षा की समग्र संरचना के विस्तार की बात आती है तो मसौदा बिल उच्च शिक्षा को परिभाषित नहीं करता है। ऐसा लगता है कि मसौदा बिल एक सामान्य प्रयास है, जिसमें उसकी विशेषताओं को सामने नहीं रखा गया है और न ही उसकी जरूरत के बारे में बताया गया है।
आईआईटी, एनआईटी और ट्रिपलआईटी की विभिन्न परिषदों को एकीकृत करने के लिए एक प्रयास किया जा सकता था, ताकि सवरेत्तम प्रथाओं को आयोग के उद्देश्यों के साथ साझा किया जा सके, जो संबंधित विश्वविद्यालयों से संबद्ध हमारे तकनीकी और अन्य संस्थानों के मानक को बेहतर बना सकते हैं। यह अलग बात है कि इन परिषदों में भी अलग-अलग डाटा को एकीकृत करने के लिए आपस में कोई बात नहीं होती।
हासिल की जाने वाली शिक्षा और कौशल के बीच एक सहसंबंध मौजूद होना चाहिए. लेकिन यह विडंबना ही है कि ऐसा नहीं होता। ऐसा तभी हो सकता है जब कौशल संस्थागत हो। नए कानून में आसानी से इस समस्या को ठीक किया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया है। आज उच्च शिक्षा के अंदर की प्रदर्शन अपेक्षाएं उच्च शिक्षा के बाहर प्रदर्शन अपेक्षाओं के साथ संरेखित नहीं हैं। इस विषमता के कारण और अधिक नियमन किया गया है इससे और अधिक निराशा होती है। नया अधिनियम अगर नियंत्रित करने के बजाय सुविधाएं प्रदान करे तो ज्यादा बेहतर होगा।
हमारी शिक्षा में अंतर्राष्ट्रीयकरण की कमी एक गंभीर चिंता का विषय है जिससे वैश्विक रैंकिंग प्रभावित होती है। हमारे परिसरों से दुनिया के शीर्ष संस्थानों के विदेशी छात्र और निकाय करीब-करीब गायब हैं, जिससे उनके दृष्टिकोण को जानने का हमें कोई मौका ही नहीं मिल पाता। कई अफ्रीकी, कुछ एशियाई और यहां तक कि ट्रांस-पैसिफिक देशों के छात्र भी सांस्कृतिक विविधता और अपेक्षाकृत बेहतर शिक्षा के लिए हमारे संस्थानों में आना पसंद करेंगे। नए अधिनियम में इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए। देश में कई नियामक निकाय हैं, जैसे तकनीकी शिक्षा के लिए एआईसीटीई, मेडिकल शिक्षा के लिए एमसीआई, अध्यापक शिक्षा के लिए एनसीटीई आदि।
अकेले इंजीनियरिंग के क्षेत्र में ही ऐसे तीन दर्जन से अधिक विशिष्ट निकाय हैं जो मानक तय करते हैं. विभिन्न विषयों में मानकों को स्थापित करने वाले विशेष निकायों को समायोजित करने के लिए एक संरचना की अनुपस्थिति से गुणवत्ता खतरे में पड़ सकती है. लेकिन विधेयक के पूरे मसौदे में इस बात का कोई जिक्र नहीं है। ऑनलाइन शिक्षा और मिश्रित शिक्षा आज के समय का रिवाज है और शायद भविष्य में भी रहेगा। हालांकि आमने-सामने की शिक्षा मनुष्य के भीतर की स्वाभाविक इच्छा हो सकती है, लेकिन नए अधिनियम में दोनों के बीच तालमेल स्थापित किए जाने की बात दिखाई नहीं देती है।
स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था कि जो शिक्षा दी जाती है, उसमें कुछ अच्छी बातें हैं, लेकिन इसके नुकसान इतने बड़े हैं कि वे उन अच्छी बातों को भी ढक लेते हैं। उन्होंने आगे कहा था कि अगर शिक्षा का मतलब आदर्श रूप में जानकारी ही होता तो पुस्तकालय दुनिया में सबसे बड़े ज्ञानी होते और विश्वकोश सबसे बड़े ऋषि। नए कानून से सिर्फ यह अपेक्षा ही की जा सकती है कि वह ज्ञान की इस भावना को ग्रहण करेगा।
ये ब्लॉग लोकमत के लिए डॉ. एसएस मंठा ने लिखा है...
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