जालना जाफराबादः कब तक रेत पर फिसलते रहेंगे पुलिस और प्रशासन
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: February 24, 2025 09:25 IST2025-02-24T09:24:08+5:302025-02-24T09:25:03+5:30
Jalna Jafrabad: घटनाओं में रेत उत्खनन को रोकने के प्रयासों को नाकाम करने की कोशिश में जान गंवाने के मामले, इनकी चर्चाएं कुछ दिन रहती हैं और बाद में बात आई-गई हो जाती हैं.

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Jalna Jafrabad: शायद ही देश का कोई राज्य हो जहां रेत माफिया का आतंक न हो. ये वही आपराधिक तत्व होते हैं, जो आपके घर बनाने का सपना पूरा करने में लगने वाली रेत का उत्खनन कर खुलेआम बेचते हैं. इन पर प्रशासन, पुलिस या सरकार की जरा भी नहीं चलती. जालना जिले की जाफराबाद तहसील के पासोड़ी गांव में रेत में दबने से पांच मजदूरों की मौत हो या फिर अनेक घटनाओं में रेत उत्खनन को रोकने के प्रयासों को नाकाम करने की कोशिश में जान गंवाने के मामले, इनकी चर्चाएं कुछ दिन रहती हैं और बाद में बात आई-गई हो जाती हैं.
भारत में अवैध रूप से खनन की गई रेत की मात्रा को लेकर कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं मिलता है, लेकिन ‘इंडियन ब्यूरो ऑफ माइंस’ का कहना है कि लघु खनिजों के उत्खनन के लिहाज से रेत सबसे ज्यादा उत्खनित खनिजों में चौथे स्थान पर है. तेज गति से शहरीकरण और आधारभूत संरचनाओं के विकास की राह पर चलते रेत की मांग को सामान्य माना जाता है.
निर्माण कार्य में अन्य की तुलना में नदी की रेत बेहतर मानी जाती है. इसी के चलते पानी के बाद यह दुनिया में दूसरा सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला संसाधन है. धरती के नीचे से खनन करके निकाली जाने वाली तमाम चीजों में रेत का हिस्सा दो-तिहाई से कुछ ज्यादा है, लेकिन रेत एक संसाधन के रूप में असीमित मात्रा में उपलब्ध नहीं है.
लोग हर साल चार हजार करोड़ टन से अधिक रेत और बजरी का उपयोग करते हैं. मांग इतनी ज्यादा है कि दुनिया भर में नदी-तल और समुद्र तट खाली होते जा रहे हैं. इसके बावजूद रेत की भरपाई संभव नहीं है. इसी कारण रेत के स्रोतों को सरकार के अधीन रखा गया है और सरकारी निर्णयों में देरी अथवा रोक के चलते अवैध उत्खनन को अवसर मिलता है.
सरकार भले ही पर्यावरण अथवा जल स्रोतों की चिंता में अपने निर्णयों को लेकर अधिक सतर्कता बरतती हो, मगर निर्माण कार्यों की जरूरत रेत के कालाबाजारियों से लेकर माफिया राज तक को अपनी जगह बनाने में सहायता करती है. ऐसे में पहले तो वह प्रशासन, पुलिस और राजनेताओं के साये में फलता-फूलता है, बाद में वही जान का दुश्मन बन जाता है.
सरकार के पास बिगड़ी स्थिति से निपटने का कोई उपाय नहीं है. कार्रवाई के नाम पर वह कागजी खानापूर्ति कर अलग हो जाती है और रेत का अवैध धंधा चलता रहता है. इस परिदृश्य में पर्यावरण और विकास को समझ प्रशासन और सरकारों से ठोस कदम उठाया जाना अपेक्षित है. इससे आपराधिक जगत को तो पनाह मिल ही रही है.
अपनी असफलता से प्रशासन का विश्वास भी डगमगा रहा है, जो परिस्थिति की ओर गंभीरता का इशारा है. उस पर समय रहते नियंत्रण पाने की जरूरत है. वर्ना कभी ऐसा न हो कि शायर शाहिद मीर के शेर की तरह हालातों को बयान करने की नौबत आ जाए...
ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समुंदर कर दे,
या छलकती हुई आंखों को भी पत्थर कर दे.