डॉ एस एस मंठा का ब्लॉग: पेट्रोल-डीजल से अर्थव्यवस्था प्रभावित

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: September 23, 2018 05:34 AM2018-09-23T05:34:49+5:302018-09-23T05:34:49+5:30

जनवरी से लेकर अब तक रुपया, डॉलर की तुलना में 10 फीसदी गिरा है। 2014 में एक डॉलर का मूल्य 58 रु था जो अब बढ़कर लगभग 72 रु हो चुका है। जानकारों के मुताबिक रुपए का अभी और अवमूल्यन होगा और यह निकट भविष्य में 75 रु प्रति डॉलर तक के स्तर को छू लेगा। 

Dr S S Mantha's Blog: Economy Affected by Petrol-Diesel | डॉ एस एस मंठा का ब्लॉग: पेट्रोल-डीजल से अर्थव्यवस्था प्रभावित

डॉ एस एस मंठा का ब्लॉग: पेट्रोल-डीजल से अर्थव्यवस्था प्रभावित

अपने पैरों पर कुल्हाड़ी वाली कहावत सच साबित होती दिख रही है। शिकारी शिकार बन चुका है। रुपए की गिरावट और तेल की बढ़ती कीमतों को वाकपटुता, आरोपों, प्रत्यारोपों और कुछ बेहद हास्यास्पद सफाइयों के जरिए समझाने का प्रयास किया जा रहा है। 

फिर प्रयास सर्वहारा वर्ग की ओर से हो या फिर सरकार, बुद्धिजीवियों या बाकी सबकी ओर से। गिरते रुपए और तेल की बढ़ती कीमतों से दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं के दामों में बेतरतीब उछाल देखने को मिल रहा है और यह आम आदमी की जिंदगी को प्रभावित कर रहा है। 

दूसरी ओर, यह बांड से आय को ऊंचे स्तर पर रखेगा और हो सकता है कि अधिकारियों को ब्याज दर बढ़ाना पड़ जाए, जो शायद विदेशी पूंजी को आकर्षित कर गिरावट को कुछ हद तक रोक सके। 

लेकिन इसका लंबी अवधि के ऋण धन (डेब्ट फंड्स) पर नकारात्मक असर पड़ेगा क्योंकि ब्याज दर बढ़ने पर उनका शुद्ध मूल्य और उनसे कमाई गिरेगी। ज्यादा ऊंची ब्याज दर उधार लेने वालों को भी नुकसान पहुंचाएगी। 

आवास ऋण की ईएमआई बढ़ सकती है। विदेश यात्रा और विदेश में शिक्षा महंगी हो सकती है, जो इस तैयारी में जुटे विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों की जेब को खाली कर देंगे।

जनवरी से लेकर अब तक रुपया, डॉलर की तुलना में 10 फीसदी गिरा है। 2014 में एक डॉलर का मूल्य 58 रु था जो अब बढ़कर लगभग 72 रु हो चुका है। जानकारों के मुताबिक रुपए का अभी और अवमूल्यन होगा और यह निकट भविष्य में 75 रु प्रति डॉलर तक के स्तर को छू लेगा। 

कच्चे तेल के बढ़ते दामों के बीच तेल का आयात डॉलर की बढ़ती मांग को बढ़ावा दे रहा है जो रुपए को कमजोर कर रहा है।
अमेरिकी बांड से कमाई में उल्लेखनीय वृद्धि एक अन्य कारण है जिसने डॉलर को ज्यादा आकर्षक बना दिया है। 10 साल के अमेरिकी बांड से कमाई में पिछले साल 82 बेसिस पॉइंट से ज्यादा के उछाल ने निवेशकों को अमेरिकी खजाने की ओर आकर्षित किया है जिसने उभरते देशों की रुपए जैसी मुद्राओं में गिरावट ला दी है।

कच्चे तेल के दामों में पिछले कुछ अरसे से इजाफा देखने को मिल रहा है। ब्रेंट क्रूड 47 माह के अपने सबसे ज्यादा भाव 78.57 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गया है। इस वक्त एक डॉलर का मूल्य 72 रु। है। 

एक बैरल 159 लीटर का होता है यानी कि फिलहाल भाव है 35'57 रु। प्रति लीटर, जो कि स्थानीय बाजार में उपभोक्ता को औसतन 85 रु। प्रति लीटर के भाव से बेचा जाता है। प्रति लीटर बिक्री में से 50 रु। केंद्र और राज्य सरकार के बीच बांट लिए जाते हैं।

 पेट्रोल-डीजल को लक्जरी आइटम नहीं कहा जा सकता। व्यापक परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो सरकार जो कमाई करती है वह अप्रत्यक्ष करों के माध्यम से उपभोक्ताओं तक पहुंचाती है। केवल आम आदमी ही नहीं कच्चे तेल के ज्यादा दाम राजकोषीय और चालू खाते के घाटों पर नकारात्मक असर डालते हैं।

सरकारी वेबसाइट्स की सोच का आधार यही है कि भारत के वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़े होने के कारण र्इंधन की कीमतों में उछाल अपिरहार्य है। यह भी कि अगर पेट्रोल और डीजल के दामों को सस्ता बेचना है तो उसका असर यह होगा कि सामाजिक सुरक्षा की सारी योजनाएं खत्म हो जाएंगी। 

बात चाहे जो हो, महत्वपूर्ण सवाल यह है कि विकास और सामाजिक सुरक्षा योजनाएं केवल एक ही मद से मिले राजस्व पर निर्भर नहीं हो सकती। तब वित्तीय समझदारी बेहद विषम हो जाएगी। आयकर जैसे राजस्व के अन्य उत्पादकों का सम वितरण होना चाहिए। 

एक देश जहां 90 फीसदी कारोबार अनौपचारिक क्षेत्र में है, यह कैसे होगा शायद ही किसी को पता होगा। वैसे यह तो मानना ही पड़ेगा कि अब ज्यादा लोग करों के दायरे में आ गए हैं। 

आकलन वर्ष 2015-16 में दो करोड़ से कुछ ज्यादा या यूं कहें कि हमारी आबादी के 1.7 फीसदी लोगों ने ही आयकर भरा था। पिछले वित्त वर्ष में 1 करोड़ से ज्यादा भारतीयों ने शून्य कर भुगतान किया था। 

यह असमानता की खाई को गहरा सकता है, गरीबों और अमीरों के बीच बढ़ती खाई को देखते हुए एक प्रभावी आर्थिक नीति की दरकार है। एक ऐसी प्रगतिशील कराधान प्रणाली जिसमें अमीरों पर ज्यादा कर का भार डालने की जरूरत होगी। 

आय संबंधी आंकड़ों को लेकर बहुत ज्यादा गोपनीयता बरती जा रही है। 2000 से 2015 के दरमियान जो आंकड़े जारी किए गए हैं वह औसत स्तर, करदाताओं की कुल संख्या, कुल कर राजस्व आदि तक निर्भर है। 

आय के विभाजन के अध्ययन के लिए पिछले 10 साल की आय की सीमा के आंकड़े भी लगेंगे। एक बात तो तय है कि हमें आय के संसाधन बढ़ाने होंगे हम केवल एक ही तरह से खेलने का जोखिम मोल नहीं ले सकते।

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