दालों के मामले में आत्मनिर्भर क्यों नहीं हो पा रहे हैं हम? निरंकार सिंह का ब्लॉग
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: August 31, 2021 03:53 PM2021-08-31T15:53:54+5:302021-08-31T15:55:50+5:30
किसान अब दाल की खेती को फायदेमंद नहीं मानते हैं. उसकी जगह वे गेहूं, धान और सोयाबीन की खेती कर रहे हैं.
दाल-रोटी या दाल-भात सदियों से भारतवासियों का परंपरागत भोजन रहा है. लेकिन पिछले चार-पांच दशकों से देश में दाल के उत्पादन में कमी से इसकी कीमतें बढ़ी हैं.
दाल अब गरीब आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही है. किसान अब दाल की खेती को फायदेमंद नहीं मानते हैं. उसकी जगह वे गेहूं, धान और सोयाबीन की खेती कर रहे हैं. आखिर दालों के सबसे बड़े उत्पादक देश को दाल दूसरे देशों से क्यों मंगानी पड़ रही है? दालों के उत्पादन एवं उपभोग में न केवल भारत का संपूर्ण विश्व में पहला स्थान है, बल्कि इसके आयात में भी यह उच्च स्थान पर काबिज है.
तथापि पिछले कुछ समय से यह परिदृश्य बदलता हुआ प्रतीत हो रहा है. दलहन के मामले में हमेशा से आत्मनिर्भर रहे भारत को वर्ष 1990-91 में तिलहन के लिए चलाए गए प्रौद्योगिकी मिशन में दालों को शामिल करने के पश्चात काफी नुकसान का सामना करना पड़ा. वर्ष 1992 और 1995-1996 में इस मिशन में ताड़ के तेल और मक्का को शामिल करने के पश्चात इस मिशन का पुनर्नामकरण कर इसे आईएसओपीओएम कर दिया गया. वर्ष 2007 में आईएसओपीओएम में शामिल की गई दालों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के साथ मिला दिया गया.
हालांकि दशकों तक ऐसी योजनाओं को चलाने के पश्चात भी भारत अभी तक दालों और खाद्य तेलों (तिलहन) के संबंध में आत्मनिर्भरता हासिल नहीं कर पाया है. 2016 में 16.5 मिलियन मीट्रिक टन घरेलू उत्पादन के बावजूद 5.8 मिलियन मीट्रिक टन दालों का आयात किया गया. मालूम हो कि वित्तीय वर्ष 2014 में 19.25 मिलियन मीट्रिक टन दालों का उत्पादन हुआ था, परंतु वित्तीय वर्ष 2015 और 2016 में सूखा पड़ने के कारण दालों के उत्पादन में कमी आई. यह कमी दालों में आत्मनिर्भरता पाने के लिए बनाई गई भारत की रणनीति की असफलता को रेखांकित करती है.
दलहन की कमजोर होती स्थिति के संदर्भ में सरकार का ध्यान तब आकर्षित हुआ जब मुद्रास्फीति ‘सहिष्णुता की सीमा’ को पार कर गई. अगस्त 2016 में दालों की खुदरा मुद्रास्फीति दर 22 प्रतिशत थी. परंतु सितंबर में अनेक बाजारों में मूंग की दाल पहुंचने के बाद इसके थोक मूल्य में कमी आई. कुछ बाजारों में तो इसका थोक मूल्य इसके न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम हो गया.
स्पष्ट रूप से बाजार की इस अस्थिरता से किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को नुकसान हुआ. दालों के मूल्यों की इस अस्थिरता का समाधान करने का एक उपाय यह भी हो सकता है कि जिस समय बाजार में दालों की कीमत कम हो, उस समय या तो दालों का आयात करके अथवा उसका भंडारण करके लगभग 2 मिलियन मीट्रिक टन दालों का बफर स्टॉक बना लिया जाए.
हाल ही में अरविंद सुब्रमण्यम द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में इसी प्रकार की अनुशंसा की गई. हालांकि इन सबमें सबसे खुशी की बात यह है कि केंद्र सरकार द्वारा पहले ही दालों के बफर स्टॉक के निर्माण को मंजूरी दी जा चुकी है. परंतु दालों के भंडारण के लिए सरकार के बाजार में प्रवेश करने से पहले क्या सरकार द्वारा निर्यात प्रतिबंधों के साथ-साथ व्यापारियों के लिए निर्धारित की गई स्टॉकिंग सीमा को समाप्त कर दिया जाएगा अथवा एपीएमसी अधिनियम की सूची से ही दालों को हटा दिया जाएगा या फिर सुब्रमण्यम रिपोर्ट द्वारा पेश की गई सिफारिशों के मद्देनजर आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 की पुनर्समीक्षा की जाएगी?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर मिलना अभी बाकी है. तथापि यह कहना गलत न होगा कि इस संबंध में स्पष्ट रूप से यह सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है कि आयातित दालों की खरीद लागत न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम नहीं होनी चाहिए. आंशिक समाधान के तौर पर, इसके लिए दालों पर लगभग 10 प्रतिशत की दर से आयात शुल्क लगाया जा सकता है.
इसके अतिरिक्त न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि के उद्देश्य को भी निरस्त कर दिया जाना चाहिए. अब देखना यह होगा कि क्या भारत सरकार दालों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी को लेकर किसानों से किए गए अपने वादे को बनाए रखेगी अथवा पहले की भांति केवल निराशा ही हाथ लगेगी. अरहर, उड़द और मूंग के आयात पर प्रतिबंध और इन्हीं दालों के निर्यात की अनुमति निर्यातकों के लिए फायदेमंद नहीं रही.
नीति निर्धारकों को इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर भूल कहां हुई है. उपरोक्त निर्णय ने विदेशों में दालों के निर्यातकों के लिए और अधिक सुविधाजनक स्थिति पैदा कर दी है. भारतीय दलहन उत्पादक किसानों के साथ विदेशी किसान भी आंसू बहाने लगे हैं.
ऐसी आशंका प्रबल लगती है कि आने वाले वर्षो में प्रतिबंध इसी तरह लागू रहा तो बोनी का रकबा सभी उत्पादक देशों में कम हो जाएगा. विश्व बाजार से भारत में दालों की कीमतें ऊंची होने के बाद निर्यात की आशा कैसे की जा सकती है. मसूर और चना दाल के आयात पर रोक क्यों नहीं लगाई और दालों का निर्यात क्यों नहीं खोला गया, यह भी विचारणीय मुद्दा है.