ट्रम्प के टैरिफ को क्या हम बना सकते हैं ‘आपदा में अवसर’ ?

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: April 9, 2025 07:10 IST2025-04-09T07:10:50+5:302025-04-09T07:10:55+5:30

हैरानी की बात है कि विदेशी कपड़ों के बहिष्कार से लंकाशायर (इंग्लैंड) की जिन कपड़ा मिलों को भारी नुकसान हो रहा था,

Can we turn Trump's tariffs into an opportunity in disaster | ट्रम्प के टैरिफ को क्या हम बना सकते हैं ‘आपदा में अवसर’ ?

ट्रम्प के टैरिफ को क्या हम बना सकते हैं ‘आपदा में अवसर’ ?

हेमधर शर्मा

ट्रम्प के टैरिफ ने इन दिनों पूरी दुनिया के शेयर बाजारों में उथल-पुथल मचा रखी है. ग्लोबलाइजेशन को तो पूरी दुनिया के लिए वरदान माना गया था, फिर उसका रूप इतना डरावना क्यों नजर आ रहा है? भूमंडलीकरण की जब शुरुआत हुई तो पूरी दुनिया खुश थी कि जिस देश में जो सामान सस्ता होगा, उससे पूरी दुनिया लाभान्वित हो सकेगी. चीन ने इससे सबसे ज्यादा फायदा भी उठाया है.

लेकिन जिन देशों को व्यापार घाटा हो रहा है, उन्हें अहसास होने लगा है कि सस्ते आयात के चक्कर में तो वे अपने यहां के उद्योग-धंधों को ही चौपट करते जा रहे हैं जिससे लोग बेरोजगार हो रहे हैं!  

महात्मा गांधी जब आत्मनिर्भरता की बात करते थे तो कई लोग उनकी वैश्विक दृष्टि पर सवाल उठाते थे. विदेशी कपड़ों की होली जलाने के उनके आह्वान का विरोध करने वालों में बहुत से बुद्धिजीवी भी शामिल थे. हैरानी की बात है कि विदेशी कपड़ों के बहिष्कार से लंकाशायर (इंग्लैंड) की जिन कपड़ा मिलों को भारी नुकसान हो रहा था, वहां के कामगारों ने गांधीजी का विरोध नहीं किया, बल्कि गांधीजी जब इंग्लैंड दौरे के दौरान उनसे मिलने गए तो बड़े प्रेम से उनका स्वागत किया था.

उन्होंने शायद गांधीजी के इस तर्क को समझ लिया था कि विदेशी निर्यात का फायदा प्राय: मिल मालिक ही उठाते हैं और आम लोगों की भलाई तो आत्मनिर्भरता में ही है.

चीन आज पूरी दुनिया में अपना माल खपा रहा है लेकिन वहां के कारखानों में कर्मचारियों की हालत बहुत अच्छी नहीं है. फायदा सिर्फ कंपनियों के मालिकों को होता है, जिसकी कीमत दूसरे देशों के लोगों को बेरोजगार होकर चुकानी पड़ती है. गांधीजी के आत्मनिर्भरता के सिद्धांतों के अनुसार अगर प्रत्येक गांव या छोटी इकाई बुनियादी जरूरतों के मामले में आत्मनिर्भर रहने लगे तो शोषण के लिए बहुत कम गुंजाइश बचेगी.

फसल अच्छी हो चाहे खराब, किसानों को आज हर हालत में घाटा ही क्यों होता है? अकाल पड़ने पर तो वे भूखों मरते ही हैं, बम्पर पैदावार होने पर भी उनकी उपज का भाव इतना गिर जाता है कि कई बार लागत मूल्य भी नहीं निकल पाने के कारण उन्हें अपनी टमाटर, प्याज जैसी फसलें खेत में ही छोड़ देनी पड़ती हैं. जबकि थोक में माटी के मोल खरीदने वाले व्यापारी उसी अनाज को प्रसंस्कृत कर चमकदार पैकेजिंग में कई-कई गुना अधिक दामों में बेचते हैं.

उत्पादक किसान के बजाय कमीशनखोर महाजन को सबसे छोटे स्तर पर भी बेशुमार फायदा होता है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के महाजनों अर्थात व्यापारियों को तो होने वाले फायदे की कल्पना भी नहीं की जा सकती. दुनिया की दौलत चंद हाथों में सिमट जाने का कारण भी यही है.

दरअसल जिस कृषि उपज की बड़ी-बड़ी मशीनों के माध्यम से प्रोसेसिंग करके व्यापारी आम उपभोक्ताओं को अत्यधिक महंगी दरों पर बेचते हैं, उन्हीं प्रोसेसिंग मशीनों की अगर किसानों के बजट में आने लायक छोटी-छोटी यूनिटें तैयार की जाएं तो अपनी बम्पर पैदावार को कौड़ियों के मोल बेचने के बजाय किसान उसका फायदा खुद उठा सकते हैं.

पुराने जमाने में फूल गोभी, टमाटर जैसी जिस भी चीज की पैदावार सीजन में ज्यादा होती थी, घर-घर में महिलाएं उसकी ‘वड़ी’ बना लेती थीं, कई तरह की सब्जियों को सुखाकर रख लिया जाता था, जिससे गर्मी के दिनों में महंगी सब्जियां खरीदने की जरूरत न पड़े. मौसमी फलों को भी इसी तरह सुरक्षित रखा जाता था; बेर को पीस कर उसका चूरन बना लिया जाता था, पके आम का रस सुखाकर उसकी अमावट बना ली जाती थी.

भूमंडलीकरण ने आज दुनिया के हर हिस्से तक तो हमारी पहुंच बना दी है लेकिन अपने ही गांव-घर से शायद दूर कर दिया है! ट्रम्प का टैरिफ दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए इस समय झटके की तरह दिख रहा है, लेकिन ‘आपदा में अवसर’ देखने की क्षमता रखने वाले हम भारत के लोग क्या इसे आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने का मौका बना पाएंगे?

Web Title: Can we turn Trump's tariffs into an opportunity in disaster

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