डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग- साहिर: अमीर बाप का बागी बेटा..!

By विजय दर्डा | Published: October 23, 2023 06:26 AM2023-10-23T06:26:51+5:302023-10-23T06:43:46+5:30

साहिर लुधियानवी इंसानियत से भरे हुए एक मुकम्मल इंसान थे, जिन्होंने इश्क के दरिया में गोते लगाए और फिर गम की दहलीज पर बैठकर वेदना को इतना समेटा कि खुद का दिल ही चकनाचूर कर लिया।

Dr. Vijay Darda's blog- Sahir Ludhianvi: Rebel son of a rich father..! | डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग- साहिर: अमीर बाप का बागी बेटा..!

फाइल फोटो

Highlightsसाहिर लुधियानवी इंसानियत से भरे हुए एक मुकम्मल इंसान थे, जिन्होंने इश्क के दरिया में गोते लगाए साहिर ने शादी नहीं की लेकिन पिता के की दुआओं को नायाब पंक्तियां 'बाबुल की दुआएं लेती जा...' लिखीमोहब्बत के मारे इस अजीम शायर ने दुनिया से कहा था, 'तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा...'

मैं पहली बार साहिर से तब मिला जब मैं मुंबई में कॉलेज की पढ़ाई कर रहा था। मेरे घर के नीचे ही संगीत निर्देशक जयदेव रहते थे। वे उन दिनों फिल्म हम दोनों के मशहूर गीत... मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया/हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया... का संगीत तैयार कर रहे थे।

मेरा कवि मन और मेरी शायराना तबीयत मुग्ध हो गई थी। उस समय मेरा उनसे पहला परिचय हुआ जो आज भी मेरे जेहन पर छाया हुआ है। वो शख्स था ही ऐसा कि उसे दुनिया कभी चाहकर भी भुला नहीं पाएगी।

इंसानियत से भरा हुआ एक मुकम्मल इंसान, जिसने इश्क के दरिया में गोते लगाए और फिर गम की दहलीज पर बैठकर वेदना को इतना समेटा कि खुद का दिल ही चकनाचूर कर लिया। जिसने शादी नहीं की लेकिन एक पिता के दिल की दुआओं को नायाब पंक्तियां बख्शीं... बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले।

मोहब्बत के मारे इस अजीम शायर ने दुनिया को ऐसा संदेश दिया कि भूले नहीं भूलता... तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा/ इंसान की औलाद है इंसान बनेगा  या अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम।

8 मार्च 1921 को लुधियाना में जन्मे अब्दुल हयी साहिर यानी साहिर लुधियानवी 25 अक्तूबर 1980 को मुंबई में इस दुनिया से रुखसत हो गए लेकिन अपने पीछे नज्मों की फेहरिस्त वाली सरगम के अलावा जिंदगी के कई अफसाने भी छोड़ गए। वो वाकई अजीम शायर थे।

साहिर ने जब नज्मों की दुनिया में दाखिला लिया तो फैज अहमद फैज, फिराक गोरखपुरी और इकबाल जैसे इल्मदार शायर मौजूद थे। अपनी जगह बनाना किसी के लिए आसान नहीं था! साहिर ने कोई कोशिश की भी नहीं! उनके दिल से जो आवाज उतरती वह लोगों के जेहन को भेदती गई और वे शायरों के खलीफा बन गए।

तल्खियां नाम से उनकी पहली किताब 1943 में आई थी। इस दुनिया से रुखसत होने तक न उन्होंने नज्मों का साथ छोड़ा न नज्मों ने उनका साथ छोड़ा। उनके गीत अमर हो गए। उनकी शायरी अमर हो गई। वे खुद अमर हो गए!

साहिर लुधियानवी ने जिंदगी के हर फलसफे को बहुत करीब से देखा। पिता बहुत बड़े जागीरदार थे जिनकी कई पत्नियां थीं। मां के प्रति बाप की बेरुखी उन्हें भीतर तक भेदती रहती। परेशान मां शौहर से अलग हुईं तो साहिर ने भी पिता को छोड़ कर जागीरदारी को लात मार दी।

शायद साहिर की किस्मत में यही बदा था क्योंकि जिंदगी में गुरबत न आई होती तो इस समाज के खोखलेपन का उन्हें एहसास कैसे हो पाता? वो विद्रोही तेवर कहां से आता जिसके लिए वे पहचाने गए।

उन्होंने लिखा... ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया/ये इंसां के दुश्मन समाजों की दुनिया... फिल्म प्यासा में जब उनकी नज्म गीत के रूप में सामने आई... जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं? ये पुरपेंच गलियां, ये बदनाम बाजार/ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झंकार/ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार/जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं? ...तो संसद में हंगामा मच गया।

साहिर के इस गीत ने चकलाबाजार की दर्दनाक हकीकत को उधेड़ कर रख दिया था। हुक्मरानों को आईना दिखा दिया था। संभवत: वह पहला मौका था जब किसी गीत पर संसद में हंगामा हुआ था। ऐसे क्रांतिकारी शायर की शायरी में मोहब्बत का बार-बार जिक्र आता है क्योंकि उन्होंने मोहब्बत को पूरे दिल से जिया लेकिन किस्मत को यह मंजूर नहीं था।

जवानी के कमसिन दिनों में एक ऐसी लड़की को दिल दे बैठे जो केवल 16 साल की उम्र में दुल्हन बन चुकी थी। जमाने भर को उनका नाम पता है- अमृता प्रीतम। एक शादीशुदा लड़की से इश्क लड़ा बैठना उस जमाने में कितनी विद्रोही बात रही होगी लेकिन हकीकत तो यह थी कि अमृता भी उन्हें दिल दे चुकी थीं।

वो मोहब्बत नाकाम रही क्योंकि साहिर अब्दुल थे। अमृता के पिता को ये मंजूर नहीं था। पति का आगबबूला हो जाना स्वाभाविक था। लंबी खतो-किताबत के बाद दोनों दूर-दूर रहने लगे।

साहिर मुंबई में और अमृता दिल्ली में लेकिन मोहब्बत की कभी मौत होती है क्या? थोड़ी चर्चा मैं अमृता प्रीतम की इसलिए कर रहा हूं क्योंकि उन्हें अलग करके साहिर को समझा ही नहीं जा सकता है। साहिर और अमृता के एक कॉमन दोस्त थे इमरोज! अमृता के लिए लिखे सारे गीत साहिर सबसे पहले इमरोज को सुनाया करते थे!

इधर अमृता के साथ अव्यक्त मोहब्बत में थे इमरोज। अमृता की बची हुई पूरी जिंदगी उनके साथ रहे! अमृता उनके साथ स्कूटर पर बैठकर जब भी बाहर जातीं तो अपनी उंगलियों से उनकी पीठ पर लिखतीं साहिर... साहिर... साहिर! अमृता की उस बेपनाह मोहब्बत को इमरोज अपनी पीठ पर महसूस कर रहे होते थे लेकिन उनके कलेजे पर नश्तर नहीं चलता था। इसे कहते हैं सच्ची मोहब्बत! इमरोज ने अपनी मोहब्बत निभाई। अमृता ने अपनी!

साहिर की मोहब्बत गायिका सुधा मल्होत्रा के लिए भी कम न थी लेकिन वहां भी धर्म आड़े आ गया। सुधा की शादी तय हो गई तो यह भी तय हो गया कि मोहब्बत अधूरी रह जाएगी। साहिर के दोस्तों ने एक महफिल का आयोजन किया। सुधा को भी बुलाया।

वहां साहिर की कई नज्में पढ़ी गईं। जब साहिर से कुछ पढ़ने को कहा गया तो साहिर ने गाया... चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों..! ये गीत बाद में फिल्म गुमराह में सुनाई दिया। उससे पहले साहिर का ही गीत फिल्म दीदी में सुधा गा चुकी थीं...तुम अगर भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको..! तो ऐसी थी वो मोहब्बत! साहिर ने ये भी लिखा... उड़े जब जब जुल्फें तेरी...ऐ मेरी जोहरा जबीं...मैं पल दो पल का शायर हूं।

आला दर्जे की लेखिका अमृता ने अपने मशहूर जिंदगीनामा रसीदी टिकट में लिखा है कि साहिर को अपने चेहरे-मोहरे को लेकर कॉम्प्लेक्स था इसलिए उसमें वो आत्मविश्वास कभी पैदा नहीं हो पाया जिस कद का वो शायर था लेकिन मैं साहिर से मिला हूं, उन्हें जाना है, उन्हें पढ़ा है।

मुझे तो वो शख्स व्यवस्था की विसंगतियों की किसी कुशल सर्जन की तरह चीरफाड़ कर देने वाला लगता है। कोई यह कैसे भूल सकता है कि पाकिस्तान में सवेरा मैग्जीन में छपे आलेख के कारण साहिर के खिलाफ वारंट जारी कर दिया गया था।

अंतत: साहिर ने पाकिस्तान छोड़ दिया। दिल्ली होते हुए मुंबई जा पहुंचे। उनके गीतों ने धूम मचाना शुरू कर दिया। उनकी बुलंदी का पैमाना ऐसा था कि वे पारिश्रमिक के रूप में लता मंगेशकर को मिलने वाली राशि से एक रुपया ज्यादा लेते थे।

राज्यसभा में मेरे साथ रहे जावेद अख्तर ने मुझे साहिर से जुड़ा एक किस्सा सुनाया था। साहिर से मिलने एक दिन जावेद भाई उनके घर गए। साहिर ने मिलते ही पूछा कि नौजवान उदास क्यों हो? जावेद अख्तर ने कहा कि मुफलिसी है, पैसे खत्म होने वाले हैं। कुछ काम दिला दें।

साहिर ने आंख नहीं मिलाई लेकिन टेबल पर रखे 200 रुपए की ओर इशारा किया और कहा कि अभी यह रख लो। फकीर देखेगा कि क्या कर सकता है! वक्त बीता। जावेद भाई के अच्छे दिन आ गए।

महफिलों में साहिर के साथ बैठते तो कहते कि साहिर साहब आपके 200 रुपये मेरे पास हैं लेकिन दूंगा नहीं। दूसरे लोग पूछते तो वे कहते कि इन्हीं से पूछिए! फिर 25 अक्तूबर 1980 की वो मनहूस तारीख आई जब साहिर साहब इस दुनिया से विदा हो गए।

जब साहिर को जुहू कब्रिस्तान में दफनाया गया, सब चले गए लेकिन जावेद भाई काफी देर तक बैठे रहे। जब उठे और अपनी कार में बैठने ही वाले थे तो साहिर के दोस्त अशफाक दौड़ते हुए आए और पूछा कि कुछ पैसे पड़े हैं क्या आपके पास? कब्र खोदने वाले को देने हैं। जावेद अख्तर ने पूछा कितने? अशफाक ने धीरे से कहा- बस 200 रुपए! कितना अजीब इत्तेफाक है न!

साहिर लुधियानवी की शायरी में जिंदगी का हर फलसफा है। उन्होंने लिखा...मैं पल दो पल का शायर हूं/पल दो पल मेरी कहानी है..! लेकिन साहिर की कहानी तो अमर हो चुकी है। उनकी नज्में हम गुनगुनाते ही रहेंगे।

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