सूर्य ग्रहण की कथा: सूर्य ग्रहण के पीछे है राहु-केतु का हाथ, जानें ग्रहण की पौराणिक वजह
By गुणातीत ओझा | Published: June 13, 2020 04:50 PM2020-06-13T16:50:15+5:302020-06-20T12:02:45+5:30
Surya Grahan ki Wajah: सूर्य ग्रहण क्यों लगता है इसके पीछे शास्त्रों में एक पौराणिक वजह बताई गई है। इस वजह का कारण राहु-केतु ग्रह से जुड़ा है। मान्यता है कि एक घटना के कारण ही यह ग्रहण लगना शुरू हुआ।
Surya grahan pauranik katha: समुद्र मंथन और सूर्य ग्रहण का पौराणिक संबंध है। शास्त्रों के अनुसार सूर्य ग्रहण के पीछे राहु-केतु जिम्मेदार होते हैं। इन दो ग्रहों की सूर्य और चंद्र से दुश्मनी बताई जाती है। यही वजह है कि ग्रहण काल में कोई भी कार्य करने की सलाह नहीं दी जाती है। इस दौरान राहु-केतु का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है। इन दो ग्रहों के बुरे प्रकोप से बचने के लिए ही सूतक लगते हैं। ग्रहण के दौरान मंदिरों तक में प्रवेश निषेध होता है। मान्यता है कि ग्रहण में इन ग्रहों की छाया मनुष्य के बनते कार्य बिगाड़ देती है। शास्त्रों में ग्रहण काल में कोई शुभ कार्य तो दूर सामान्य क्रिया के लिए भी मनाही है। इस ग्रहण के लगने के पीछे एक पौराणिक कथा है।
जब दैत्यों ने तीनों लोक पर अपना अधिकार जमा लिया था तब देवताओं ने भगवान विष्णु से मदद मांगी थी। तीनों लोक को असुरों से बचाने के लिए भगवान विष्णु का आह्वान किया गया था। तब भगवान विष्णु ने देवताओं को क्षीर सागर का मंथन करने के लिए कहा और इस मंथन से निकले अमृत का पान करने के लिए कहा। भगवान विष्णु ने देवताओं को चेताया था कि ध्यान रहे अमृत असुर न पीने पाएं क्योंकि तब इन्हें युद्ध में कभी हराया नहीं जा सकेगा।
भगवान के कहे अनुसार देवताओं ने क्षीर सागर में समुद्र मंथन किया। समुद्र मंथन से निकले अमृत को लेकर देवता और असुरों में लड़ाई हुई। तब भगवान विष्णु ने मोहनी रूप धारण कर एक तरफ देवता और एक तरफ असुरों को बिठा दिया और कहा कि बारी-बारी सबको अमृत मिलेगा। यह सुनकर एक असुर देवताओं के बीच वेश बदल कर बैठ गया, लेकिन चंद्र और सूर्य उसे पहचान गए और भगवान विष्णु को इसकी जानकारी दी, लेकिन तब तक भगवान उसे अमृत दे चुके थे। अमृत गले तक पहुंचा था कि भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से असुर के धड़ को सिर से अलग कर दिया, लेकिन तब तक उसने अमृतपान कर लिया था। हालांकि, अमृत गले से नीच नहीं उतरा था, लेकिन उसका सिर अमर हो गया। सिर राहु बना और धड़ केतु के रूप में अमर हो गया। भेद खोलने के कारण ही राहु और केतु की चंद्र और सूर्य से दुश्मनी हो गई। कालांतर में राहु और केतु को चन्द्रमा और पृथ्वी की छाया के नीचे स्थान प्राप्त हुआ है। उस समय से राहु, सूर्य और चंद्र से द्वेष की भावना रखते हैं, जिससे ग्रहण पड़ता है।