कब और कैसे शुरू हुई कांवड़ यात्रा की परंपरा, जानें खास बातें

By धीरज पाल | Published: July 1, 2018 06:46 AM2018-07-01T06:46:00+5:302018-07-01T06:46:00+5:30

हर साल श्रावण के महीने में लाखों की तादाद में कांवड़िये दूर-दूर से आकर गंगा जल भरते हैं और अपने कन्धों पर उसे लेकर पदयात्रा करते हुए वापस लौटते हैं।

Shravan 2018: History and significance of Kanwar yatra in the shravan month of lord shiva | कब और कैसे शुरू हुई कांवड़ यात्रा की परंपरा, जानें खास बातें

कब और कैसे शुरू हुई कांवड़ यात्रा की परंपरा, जानें खास बातें

नई दिल्ली, 30 जून: हिंदू धर्म में श्रावण मास का बेहद महत्व माना जाता है। यह महीना भगवान शिव से जुड़ा बताया जाता है। इस महीने में शिव जी को प्रसन्न करने के लिए कावंड़ यात्रा की शुरुआत होती है। इस साल श्रावण मास 8 जुलाई से आरम्भ है। हाथों में कांवड़, कांवड़ के दोनों ही ओर गंगा जल, तन पर भगवा वस्त्र धारण किए और 'बम भोले' के नारों की गूंज कांवड़ियां की पहचान है। प्रत्येक वर्ष श्रावण महीने के शुरू होने से पहले कांवड़ियों की यात्रा शुरू हो जाती है। यह यात्रा पूर्ण धार्मिक मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए सम्पन्न की जाती है। यात्रा श्रावण यानी सावन के महीने के साथ ही समाप्त हो जाती है। 

हर साल श्रावण के महीने में लाखों की तादाद में कांवड़िये दूर-दूर से आकर गंगा जल भरते हैं और अपने कन्धों पर उसे लेकर पदयात्रा करते हुए वापस लौटते हैं। श्रावण की चतुर्दशी के दिन इस गंगा जल से कांवड़िये आसपास के शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक करते हैं। 

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कब और कैसे शुरू हुई कांवड़ यात्रा?

कांवड़ यात्रा की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसके पीछे कई पौराणिक कथाएं व्याप्त है। एक मान्यता है कि सदियों पहले भगवान परशुराम ने कांवड़ के जरिए गंगाजल लाकर भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। वहीं दूसरी मान्यता है कि कांवड़ यात्रा की परंपरा श्रवण कुमार ने शुरू की थी।  जिसने अपने नेत्रहीन माता-पिता की इच्छानुसार गंगा स्नान करवाया था। इसके लिये श्रवण अपने माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार लेकर गये थे।

वहीं कुछ मत समुद्र मंथन से भी जुड़े हैं इनके अनुसार मान्यता यह है कि समुद्र मंथन से निकले विष को भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण तो कर लिया जिससे वे नीलकंठ भी कहलाए लेकिन इससे भगवान शिव पर बहुत सारे नकारात्मक प्रभाव पड़ने लगे। इन्हें दूर करने के लिये उन्होंने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण कर लिया। इसके साथ ही देवताओं ने उनका गंगाजल से अभिषेक किया। यह महीना श्रावण का ही बताया जाता है।

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इसी से मिलती जुलती अन्य मान्यता है कि नीलकंठ भगवान शिवशंकर पर विष के नकारात्मक प्रभाव होने लगे तो शिवभक्त रावण ने पूजा-पाठ करते हुए कांवड़ के जरिये गंगाजल लाकर भगवान शिव का जलाभिषेक किया जिससे भगवान शिव नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए। मान्यता है कि तभी से कांवड़ की परंपरा का आरंभ हुआ।

क्या होता है कांवड़?

कावंड़ एक सजी-धजी, भार में हल्की पालकी होती है जिसमें गंगाजल रखा होता है। हालांकि कुछ लोग पालकी को न उठाकर मात्र गंगाजल लेकर भी आ जाते हैं। मान्यता है कि जो जितनी कठिनता से जितने सच्चे मन से कांवड़ लेकर आता है उसपर भगवान शिव की कृपा उतनी ही अधिक होती है।

कांवड़ के प्रकार

कांवड़िया कई प्रकार के होते हैं जो मान्याताओं के मुताबिक गंगा जल लेकर भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं। कांवड़िया एक दूसरे को 'बम' के नाम से पुकारते हैं। कांवड़ में सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण तत्व या कहें कांवड़ का मूल गंगाजल होता है। क्योंकि गंगाजल से ही भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है। इसमें दो तरीके प्रमुख हैं व्यक्तिगत रूप से कांवड़ लाना और सामूहिक रूप से कांवड़ लाना। पैदल चलते हुए कांवड़ लाना और दौड़कर कांवड़ लाना।

पैदल कांवड़ – पैदल कांवड़ अधिकतर व्यक्तिगत रूप से ही लाई जाती है। लेकिन कई बार अपने प्रियजन की असमर्थता के कारण उनके नाम से भी कुछ लोग कांवड़ लेकर आते हैं। इसमें कांवड़ यात्री को यह ध्यान रखना होता है कि जिस स्थल से उसे कांवड़ लेकर आनी है और जहां उसे भगवान शिव का जलाभिषेक करना है उसकी दूरी क्या है। उसी के अनुसार अपनी यात्री की योजना बनानी होती है। उसे शिवरात्रि तक अपने जलाभिषेक स्थल तक पंहुचना होता है। पैदल कांवड़ यात्री कुछ समय के लिये रास्ते में विश्राम भी कर सकते हैं।

डाक कांवड़ – डाक कांवड़ बहुत तेजी से लाई जाने वाली कांवड़ है इसमें कांवड़ियों का एक समूह होता है जो रिले दौड़ की तरह दौड़ते हुए एक दूसरे को कांवड़ थमाते हुए जल प्राप्त करने के स्थल से जलाभिषेक के स्थल तक पंहुचता है। इन कांवड़ियों को डाक बम कहा जाता है। इसमें कांवड़ यात्रियों को रूकना नहीं होता और लगातार चलते रहना पड़ता है। जब एक थोड़ी थकावट महसूस करता है तो दूसरा कांवड़ को थाम कर आगे बढ़ने लगता है।

देश के कई हिस्सो में शुरू होती है कांवड़ यात्रा

कांवड़ यात्रा देश के कई हिस्सों से शुरू होती है। दिल्ली, उत्तराखंड, यूपी और बिहार में कांवड़ यात्रा  अत्यधिक का आयोजन होता है। इसका प्रभाव उत्तर प्रदेश में अत्यधिक होता है। यूपी के इलाहाबाद संगम से कांवड़ियां जल भरते हैं और बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर पर जलाभिषेक करते हैं। इलाहाबाद से बनारस के बीच की दूरी कांवड़िया पैदल तय करते हैं। 

मान्यता

कांवड़ यात्रा पूरी मान्यता पर आधारित होता है। कांवड़ यात्रा के दौरान कांवरिया अपने कांवड़ जमीन या गंदे स्थानों पर नहीं रखते हैं। गंगा जल लेने के बाद कांवड़िया मिलों की दूरी पैदल ही तय करते हैं। इतना ही नहीं कांवड़िया रास्ते भर 'बम भोले' का नाारा लगाते हैं। कांवड़िया गाजा भी इस्तेमाल करते हैं क्योंकि माना जाता है कि गाजा भगवान शिव का प्रसाद है।  

बच्चे, महिला और पुरुष करते हैं कांवड़ यात्रा

कांवड़ यात्रा न केवल पुरुष करते हैं बल्कि महिलाएं और बच्चे भी करते हैं। कांवड़ यात्रा के दौरान कांवडियों की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए जाते हैं। इनके लिए वन-वे रूट खाली कर दिया जाता है। जगह-जगह पुलिस तैनात रहती है। कुछ दूरी पर इनके ठहराव होते हैंं, जहां खाने की व्यवस्था होती है। 

Web Title: Shravan 2018: History and significance of Kanwar yatra in the shravan month of lord shiva

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