अमृता प्रीतमः ...इश्क़ की किताब का कोई नया वर्क खोलो!

By आदित्य द्विवेदी | Published: August 31, 2018 07:33 AM2018-08-31T07:33:59+5:302018-08-31T07:33:59+5:30

Birthday Special Amrita Pritam: वो महिला जिसने अपनी शर्तों पर जिंदगी गुजारी। खूब लिखा, खूब जिया। पढ़िए उनकी जिंदगी का सफरनामा और कुछ चुनिंदा कविताएं...

Amrita Pritam Birthday Special: Life journey and her selected poems | अमृता प्रीतमः ...इश्क़ की किताब का कोई नया वर्क खोलो!

अमृता प्रीतमः ...इश्क़ की किताब का कोई नया वर्क खोलो!

20वीं सदी में साहित्य का एक ऐसा सितारा जिसने अपनी शर्तों पर जिंदगी गुजारी। उन्होंने एक ऐसे वक्त में साहसी फैसले लिए जब समकालीन महिलाओं के लिए विरोध जताना मुश्किल था। उन्होंने अपनी जिंदगी में कविता संग्रह, कहानी, आत्मकथा और निबंध मिलाकर 100 से ज्यादा किताबें लिखी हैं। हम बात कर रहे हैं अमृता प्रीतम की।

अमृता प्रीतम का जन्म 1919 में अविभाजित भारत में हुआ था। अपनी जवानी के दिनों में अमृता ने भारत विभाजन की त्रासदी देखी। इस घटना ने उनकी जिंदगी पर गहरा असर किया। इन्हीं पीड़ाओं का नतीजा उनकी सुप्रसिद्ध कविता 'अज्ज आंखां वारिस शाह नू' थी।

विभाजन से ही प्रभावित होकर उन्होंने 'पिंजर' नामक उपन्यास लिखा। जिसमें विभाजन से उस वक्त की महिला पीड़ा जाहि की गई। अमृता 20वीं सदी की जानी-मानी पंजाबी कवियित्री थी। उनकी कविताओं का कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। 31 अक्टूबर 2005 को 86 वर्ष की आयु में अमृता का निधन हो गया। उनका साहित्य आज भी उतना ही प्रासंगिक बना हुआ है। पढ़िए, अमृता प्रीतम की पांच चुनिंदा कविताएं-

वारिस शाह से

आज वारिस शाह से कहती हूँ
अपनी कब्र में से बोलो
और इश्क की किताब का
कोई नया वर्क खोलो
पंजाब की एक बेटी रोई थी
तूने एक लंबी दास्तान लिखी
आज लाखों बेटियाँ रो रही हैं,
वारिस शाह तुम से कह रही हैं
ऐ दर्दमंदों के दोस्त
पंजाब की हालत देखो
चौपाल लाशों से अटा पड़ा हैं,
चिनाव लहू से भरी पड़ी है
किसी ने पाँचों दरिया में
एक जहर मिला दिया है
और यही पानी
धरती को सींचने लगा है
इस जरखेज धरती से
जहर फूट निकला है
देखो, सुर्खी कहाँ तक आ पहुँची
और कहर कहाँ तक आ पहुँचा
फिर जहरीली हवा वन जंगलों में चलने लगी
उसमें हर बाँस की बाँसुरी
जैसे एक नाग बना दी
नागों ने लोगों के होंठ डस लिये
और डंक बढ़ते चले गये
और देखते देखते पंजाब के
सारे अंग काले और नीले पड़ गये
हर गले से गीत टूट गया
हर चरखे का धागा छूट गया
सहेलियाँ एक दूसरे से छूट गईं
चरखों की महफिल वीरान हो गई
मल्लाहों ने सारी कश्तियाँ
सेज के साथ ही बहा दीं
पीपलों ने सारी पेंगें
टहनियों के साथ तोड़ दीं
जहाँ प्यार के नगमे गूँजते थे
वह बाँसुरी जाने कहाँ खो गई
और रांझे के सब भाई
बाँसुरी बजाना भूल गये
धरती पर लहू बरसा
क़ब्रें टपकने लगीं
और प्रीत की शहजादियाँ
मजारों में रोने लगीं
आज सब कैदो बन गए
हुस्न इश्क के चोर
मैं कहाँ से ढूँढ के लाऊँ
एक वारिस शाह और

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मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी
सिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था……फिर समुन्द्र को खुदा जाने
क्या ख्याल आया
उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी
मेरे हाथों में थमाई
और हंस कर कुछ दूर हो गया

हैरान थी….
पर उसका चमत्कार ले लिया
पता था कि इस प्रकार की घटना
कभी सदियों में होती है…..

लाखों ख्याल आये
माथे में झिलमिलाये

पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा कर
अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?

मेरे शहर की हर गली संकरी
मेरे शहर की हर छत नीची
मेरे शहर की हर दीवार चुगली

सोचा कि अगर तू कहीं मिले
तो समुन्द्र की तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे

और नीची छतों
और संकरी गलियों
के शहर में बस सकते थे….

पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती
और अपनी आग का मैंने
आप ही घूंट पिया

मैं अकेला किनारा
किनारे को गिरा दिया
और जब दिन ढलने को था
समुन्द्र का तूफान
समुन्द्र को लौटा दिया….

अब रात घिरने लगी तो तूं मिला है
तूं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
मैं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
सिर्फ- दूर बहते समुन्द्र में तूफान है

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आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया…

आसमान की भवों पर
जाने क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन खोल कर
उसने चांद का कुर्ता उतार दिया…

मैं दिल के एक कोने में बैठी हूं
तुम्हारी याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ी में से
गहरा और काला धूंआ उठता है…

साथ हजारों ख्याल आये
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख आग की आहें भरे,
दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं

वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये…

तेरे इश्क के हाथ से छूट गयी
और जिन्दगी की हन्डिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान
मेरे चौके से भूखा उठ गया…

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बरसों की आरी हंस रही थी
घटनाओं के दांत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूट गया
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया

आंखों में ककड़ छितरा गये
और नजर जख्मी हो गयी
कुछ दिखायी नहीं देता
दुनिया शायद अब भी बसती है

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मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों-सी…
और गलियाँ इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर

हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियाँ, ज्यों मुँह से झाग बहता है

यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मुँह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते

जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…

शंख घंटों के साँस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती

पर नींद में भी बहस ख़तम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है

साभार- कविता कोष

Web Title: Amrita Pritam Birthday Special: Life journey and her selected poems

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