'आवारा मसीहा' को प्रकाशन हो गए 47 साल, जानें रवींद्रनाथ टैगोर और शरद चंद कैसे मतभेद के बाद भी एक-दूसरे का करते थे सम्मान
By विमल कुमार | Published: April 11, 2021 01:13 PM2021-04-11T13:13:43+5:302021-04-11T17:10:18+5:30
हिंदी के प्रख्यात गांधीवादी लेखक विष्णु प्रभाकर ने शरद चंद की जीवनी "आवारा मसीहा" में शरत चंद व रवींद्रनाथ टैगोर के बारे में यह बातें लिखी हैं। आज विष्णु प्रभाकर की पुण्य तिथि है और "आवारा मसीहा" को छपे 47 वर्ष हो गए।
नई दिल्ली: "शरद चंद रवींद्रनाथ टैगोर को सदा अपना गुरु मानते रहे। कई बार मतभेद हुए गाली गलौज जैसी स्थिति पैदा हुई पर अंततः दोनों ने एक दूसरे की प्रतिभा का वैसा ही वरण किया जैसे उन्हें करना चाहिए था।
शरद बाबू ने रवींद्रनाथ टैगोर को व्यास के बाद भारत का सर्वोत्तम कवि घोषित किया तो रवींद्रनाथ ने भी बार-बार शरद के कथा साहित्य की विशेषताओं का अभिनंदन किया। उनकी षष्टिपूर्ति का स्वयं आयोजन किया .....।"
हिंदी के प्रख्यात गांधीवादी लेखक विष्णु प्रभाकर ने शरद चंद की जीवनी "आवारा मसीहा" में यह बातें लिखी हैं। आज विष्णु प्रभाकर की पुण्य तिथि है और "आवारा मसीहा" को छपे 47 वर्ष हो गए। जब आवारा मसीहा 1974 में छपी थी तो उसे साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिला था लेकिन विष्णु प्रभाकर को इस कृति पर 1974 में ही इंडियन रायटर्स एसोसिएशन द्वारा पाब्लो नेरुदा सम्मान मिला और 1975-76 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से "तुलसी सम्मान" तथा 1980 में हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा "सुर सम्मान" भी मिला।
विष्णु प्रभाकर की शरद बाबू पर जीवनी प्रेमचंद पर अमृत राय की तथा निराला पर रामविलास शर्मा की जीवनी के बाद हिंदी में तीसरी महत्वपूर्ण जीवनी के रूप में मानी जाती है और इससे विष्णु प्रभाकर की कीर्ति में चार चांद लग गए। अमृत राय और रामविलास शर्मा को इन जीवनियों पर साहित्य एकेडमी पुरस्कार मिला। विष्णु प्रभाकर को भले ही आवारा मसीहा पर साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिला लेकिन 1993 में उन्हें उनके उपन्यास "अर्धनारीश्वर" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया।
इतना ही नहीं वह साहित्य अकादमी के फेलो भी बनाये गए। उनके निधन के बारह वर्ष बाद साहित्य अकादमी ने विष्णु प्रभाकर की रचनाओं का संचयन प्रकाशित किया है जिसमें "आवारा मसीहा "की महत्वपूर्ण भूमिका को भी संकलित किया गया है। इस भूमिका में विष्णु जी ने लिखा है कि एक बार रविंद्र नाथ टैगोर ने शरतचंद्र से कहा था_" शरद तुम अपनी आत्मकथा लिखो। लेकिन शरतचंद का कहना था कि मैं आत्मकथा नहीं लिख सकता क्योंकि ना तो मैं इतना सत्यवादी हूं और न ही इतना बहादुर ही जितना एक आत्मकथा लेखक को होना चाहिए।"
वैसे बांग्ला में शरतचंद्र पर गोपाल चंद्र राय ने एक जीवनी लिखी थी। विष्णु जी को जीवनी लिखने का प्रस्ताव मुंबई हिंदी ग्रंथ रत्नाकर के नाथूराम प्रेमी ने दिया था। उनकी इच्छा थी कि इस ग्रंथ माला में शरत बाबू की एक जीवनी प्रकाशित की जाए। उन्होंने इसकी चर्चा श्री यशपाल जैन से की थी और न जाने कैसे लेखक के रूप में मेरा नाम सामने आया। यशपाल जी के आग्रह पर ही मैंने यह काम अपने हाथों में लिया।" विष्णु जी ने 1959 में शरतबाबू की जीवनी लिखने के लिए अपनी यात्रा शुरू कर दी और उन्हें "आवारा मसीहा" लिखने में 14 साल लगे। इसे लिखने के लिए वैसे उन्होंने 1965 तक सारी सामग्री जुटा डाली थी। यह किताब लिखने के कारण विष्णु प्रभाकर भी अमर हो गए थे।
यूं तो विष्णु प्रभाकर ने अपने लेखन की शुरुआत 1931 में कहानी लेखन से शुरू की थी और उनकी पहली कहानी "हिंदी मिलाप" में दिवाली के दिन छपी थी और 1934 से उनका नियमित लेखन शुरू हुआ और उन्होंने अपने 77 वर्ष की रचनाएं यात्रा में प्रेमचंद की तरह 300 से अधिक कहानियां लिखी पर प्रभाकर माचवे और उपेंद्र नाथ अश्क की प्रेरणा से उन्होंने नाटक और रेडियो नाटक भी लिखना शुरू किया और देखते देखते वह प्रमुख नाटककार और एकांकीकार बन गए।
21 जून 1912 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के ग्राम मीरापुर में जन्मे विष्णु प्रभाकर की शिक्षा दीक्षा हिसार के चंदूलाल एंग्लो वैदिक हाई स्कूल से हुई थी। उन्होंने सन 1929 में द्वितीय श्रेणी में मैट्रिक परीक्षा पास की। उन्होंने 1929 से जून 1944 तक गवर्नमेंट कैटल फॉर्म में पहली नौकरी ₹18 के वेतन से शुरू की। आजादी की लड़ाई में 6 जून 1940 को सारे पंजाब में छापे पड़े तलाशी और गिरफ्तारी हुई जिसमें वे गिरफ्तार किए गए लेकिन पंजाब पुलिस ने पंजाब छोड़ देने का मौखिक आदेश देकर उन्हें छोड़ दिया और इसके बाद वह 15 वर्ष की नौकरी से त्यागपत्र देकर पंजाब छोड़ कर दिल्ली में आकर बस गए।
वे प्रेमचंद को अपना गुरु मानते थे तथा उनसे उनका पत्राचार हुआ था लेकिन उन्हें लेखन में प्रेरणा बनारसी दास चतुर्वेदी और जैनेंद्र कुमार ने दी।,विष्णु जी के सामने शरतचंद्र की जीवनी लिखना चुनौती पूर्ण काम था। उन्होंने लिखा है - "इनमें ऐसे मित्र भी थे जिन्होंने मुझे चेतावनी दी कि यदि मैंने शरद बाबू के मुंह में से कुछ ऐसा वैसा कहलवाया या स्वयं ऐसा वैसा लिखा तो उसका परिणाम बुरा भी हो सकता है। मुझे क्षमा नहीं मिलेगी।.. कुछ ऐसे भी थे जो स्वयं लिखना चाहते थे लेकिन मुझे दुख है उनमें से बहुत कम ही ऐसा कर सके फिर भी जिन्होंने किया उन्हीं के कारण किसी न किसी रूप में प्रमाणिक सामग्री सामने आई। इसका मुझे भी लाभ मिला।..उनके समकालीन कुछ ऐसे व्यक्ति मुझे मिले जो सचमुच उनसे घृणा करते थे।
रंगून के एक सज्जन ने मुझसे कहा था- "वह एक स्त्री के साथ रहते थे। उनके पास बहुत कम लोग जाते थे। मैं उनका पड़ोसी था लेकिन उनके कमरे में कभी नहीं गया। वह अफीम खाते थे और शराब पीते थे लेकिन निकृष्ट प्रकार का जीवन जी रहे थे मैं उनसे हमेशा बचता था।... यह प्रतिक्रिया मात्र इन्ही सज्जन की नहीं थी बहुत से लोग उनके बारे में इस तरह सोचते और जानते थे लेकिन ऐसे भी व्यक्ति थे जो उनके पास जाकर उन्हें पहचान सके थे। उन्हीं के माध्यम से मैं भी एक सीमा तक पहचान सका। अफवाहों और चुनौतियों से भरे उनके जीवन को पूरी तरह पहचान पाना तो असंभव जैसा ही है लेकिन क्या सचमुच जो पास थे, वे उन्हें पहचानते हैं। उनके पास रहने वाले कई व्यक्तियों ने उनके संबंध में बिल्कुल परस्पर विरोधी बातें बताई।
स्वयं उनके मामा और बाल सखा श्री सुरेंद्र नाथ गांगुली ने ,उनके बारे में जो दो पुस्तकें लिखी, उनमें परस्पर विरोधी तथ्य हैं। कभी-कभी तो मुझे लगता था कि कोई मुझे चुनौती देने वाला है। इस नाम का कोई व्यक्ति इस देश में नहीं हुआ। कुछ अज्ञातनाम लेखकों ने स्वयं कुछ उपन्यास लिखे और शरतचंद्र के नाम से चला दिए।
"यह धारणा सत्य ही है कि मनुष्य शरतचंद्र की प्रकृति बहुत जटिल थी। बातचीत में वे अपने मन के भावों को छुपाने का करते थे और उनके लिए कपोल कल्पित कथाएं करते थे। कितने अपवाद कितने मिथ्याचार कितने भ्रांत विश्वास में वे घिरे रहे। इसमें उनका अपना योग भी कुछ कम नहीं था। वह उच्च दर्जे के अड्डेबाज थे। वे घंटों कहानियां सुनाते रहते। जब कोई पूछता है क्या यह घटना घटी है तो वह कहते हैं_ न न , गल्प कहता हूं ,सब मिथ्या ,सब गल्प, एकदम सत्य नहीं है।"
विष्णु प्रभाकर ने शरतचंद्र के बारे में आगे लिखा है- "इतना ही नहीं एक ही घटना को जितनी बार सुनाते नए नए मैंने रूपों में सुनाते। कोई प्रश्न करता ," दादा कल तो आपने इस घटना को एक और ही रुप में सुनाया था तो वह क्रुद्ध हो उठते _"घटना मेरी है। मुझे अधिकार है मैं उसको जिस प्रकार चाहूं सुनाऊं"
शरतचंद्र के बारे में लोगों में आम धारणा है कि वे अविवाहित थे। विष्णु जी ने लिखा है -"चाहे किसी भी विधि से हुए हैं, उनके दो विवाह हुए थे। उनकी दूसरी पत्नी हिरणमयी देवी की मृत्यु उनके निधन के लगभग 22 वर्ष बाद यानी 1960 में 31 अगस्त को हुई थी। वे उनकी विधि सम्मत उत्तराधिकारी थी लेकिन जीवन भर लोग यही समझते रहे (और अभी समझते हैं) कि वह अविवाहित थे। सभा समिति उनका परिचय" बाल ब्रह्मचारी "कह कर दिया जाता था। अनेक प्रमाद भी प्रचलित हो गए थे पर उन्होंने एक बार भी स्थिति को स्पष्ट करने का नहीं किया। बर्मा से लौटे एक मित्र ने कोलकाता की सभा में जब स्वयं यह सब सुना तो चकित होकर शरद बाबू से पूछा _"आप ऐसा क्यों होने देते हैं?
"हंस कर शरद बाबू ने उत्तर दिया- सुन कर बहुत मजा आता है।" उन्होंने स्वयं लिखा है _अपने विगत जीवन के बारे में मैं अत्यंत उदासीन हूं। जानता हूं उनको लेकर नाना प्रकार की जनश्रुतियां प्रचरित हो रही है लेकिन मेरे निर्विकार आलस्य को वह बिंदु मात्र भी विचलित नहीं कर सकती। शुभचिंतक बीच-बीच में उत्तेजित होकर कहते हैं कि झूठ का प्रतिकार क्यों नहीं करते? मैं कहता हूं, झूठ यदि है तो उसका प्रचार मैंने तो नहीं किया इसलिए प्रतिकार करने का दायित्व भी उनका ही है ,उनको करने को कहो।"
विष्णु प्रभाकर शरद बाबू के साहित्य और जीवन दोनो को महान मानते थे क्योंकि उनका दृष्टिकोण मानवता वादी था और खुद एक नैतिक और आदर्शवादी जीवन व्यतीत किया। उनके सात उपन्यास तीस से अधिक कहानी संग्रह 14 नाटक 19 एकांकी संग्रह 25 जीवनियां संस्मरण 6 यात्रा वृतांत 7 विचार निबंध बाल साहित्य की 30 किताबें और संपादित 60 किताबें उनके नाम है।
आजादी के बाद शायद ही किसी लेखक ने इतनी विपुल मात्रा में साहित्य सृजन किया। अब उनकी जीवनी लिखे जाने की आवश्यकता है।