विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: देश में अमीरी और गरीबी का एक साथ बढ़ना चिंताजनक

By विश्वनाथ सचदेव | Published: January 22, 2022 12:00 PM2022-01-22T12:00:17+5:302022-01-22T12:03:04+5:30

आक्सफेम के मुताबिक, इस कोरोना-काल में देश के 84 प्रतिशत परिवारों की कमाई में कमी देखने को मिली है।

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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: देश में अमीरी और गरीबी का एक साथ बढ़ना चिंताजनक

Highlightsवल्र्ड इकोनॉमिक फोरम में पीएम मोदी ने दुनिया भर के उद्यमियों को भारत में बिजनेस करने की दावत दी है। पीएम मोदी ने कहा कि भारत दुनिया को आशा का एक सुंदर गुलदस्ता दे रहा है।आक्सफेम के अनुसार, भारत में साढ़े चार करोड़ से अधिक लोग अति गरीबी की स्थिति में पहुंच गए हैं।

वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम के दावोस सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी ने दुनिया भर के उद्यमियों को भारत में आकर व्यवसाय करने की दावत दी है. उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि भारत आर्थिक विकास की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है. उन्होंने यह भी कहा कि भारत दुनिया को आशा का एक सुंदर गुलदस्ता दे रहा है. 

इसमें हम भारतीयों की जनतंत्न में अटूट आस्था है, 21वीं सदी को सशक्त बनाने वाली तकनीक है और हमारी वह प्रतिभा और स्वभाव है जो दुनिया को प्रेरणा दे सकता है. आजादी के अमृत महोत्सवी वर्ष में दुनिया को भारत का यह संदेश निश्चित रूप से भरोसा दिलाने वाला है और हम भारतीयों को भी इस बात का अहसास कराने वाला है कि अच्छे दिन कहीं आसपास ही हैं.

इन पिछले 75 सालों में जीवन के विभिन्न क्षेत्नों में हमने बहुत कुछ अर्जित किया है, जिस पर हम गर्व कर सकते हैं. दुनिया को उम्मीद का जो गुलदस्ता देने की बात प्रधानमंत्नी ने दावोस सम्मेलन को संबोधित करते हुए की है, वह गुलदस्ता हम भारतीयों के लिए भी है. 

इस बारे में दुनिया के देश क्या सोच रहे हैं, क्या कह रहे हैं यह तो आने वाला कल ही बताएगा, पर वल्र्ड इकोनॉमिक्स फोरम के इसी सम्मेलन में आक्सफेम की एक रिपोर्ट भी सामने आई है, जिस पर हम भारतीयों को विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए. 

इस रिपोर्ट में कुछ आंकड़े हैं जिनका हमारे जीवन से सीधा रिश्ता है. ये आंकड़े हमारी गरीबी के संबंध में हैं. आक्सफेम द्वारा जारी की गई इस रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2020 से लेकर नवंबर 2021 तक की अवधि में भारत में साढ़े चार करोड़ से अधिक लोग अति गरीबी की स्थिति में पहुंच गए हैं. 

पूरी दुनिया में जितने लोग गरीबी की इस स्थिति में हैं, उसकी आधी संख्या है यह. इसमें कोई संदेह नहीं कि यह अवधि कोरोना-काल की है, जिसमें सारी दुनिया ने आर्थिक मार को ङोला है, लेकिन हमारी स्थिति अधिकांश देशों की तुलना में कहीं अधिक चिंताजनक है. 

आक्सफेम की रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में इस कोरोना-काल में 84 प्रतिशत परिवारों की कमाई में कमी आई है. जहां तक बेरोजगारी का सवाल है, शहरी क्षेत्नों में यह दर पंद्रह प्रतिशत से भी अधिक हो गई है, स्वाभाविक है ग्रामीण क्षेत्नों में यह बेरोजगारी और अधिक होगी. बेरोजगारी के साथ महंगाई के आंकड़े भी जोड़ दिए जाएं तो स्थिति की भयावहता और बढ़ जाती है. 

इस स्थिति का तकाजा है कि आज जब हम आर्थिक विकास की दिशा में बढ़ते कदमों की बात करें तो इस गरीबी और बेरोजगारी की तरफ भी नजर रखें. उम्मीद का जो गुलदस्ता हम दुनिया को दे रहे हैं उसकी गंध देश के उन अस्सी करोड़ परिवारों तक भी पहुंचनी चाहिए जिन्हें कोरोना-काल में मुफ्त खाद्यान्न देने की जरूरत देश को पड़ गई थी. 

यह जरूरत इस बात का भी स्पष्ट संकेत है कि अच्छे दिनों की आहट की जो बात हम करते हैं, वह अभी बहुत धीमी है.

भारत में यह मौसम चुनावों का है. देश के पांच राज्यों में चुनावों का शोर सुनाई दे रहा है. हर राजनीतिक दल अपनी खूबियों के बजाय प्रतिपक्षी की कमियों की ओर इशारा करने में लगा है. नए-नए सामाजिक समीकरण बनाए जा रहे हैं, धार्मिक और जातीय ध्रुवीकरण की कोशिशों के शोर में गरीबी का जरूरी मुद्दा कहीं खो-सा गया है.

कोरोना-काल में देश के अस्सी करोड़ परिवारों का मुफ्त पेट भरने का दावा करने वालों को इस बात की चिंता कब होगी कि अस्सी करोड़ परिवारों को मांग कर खाने के लिए मजबूर क्यों होना पड़ा? आज हमारे राजनीतिक दल आश्वासनों का ढेर लगा रहे हैं. एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर बोली लग रही है मतदाताओं को मुफ्त सुविधाएं देने की. 

मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, सम्मान निधि के नाम पर दी जाने वाली आर्थिक सहायता, मुफ्त गैस, मुफ्त लैपटॉप.. इस सबकी जरूरत ही अपने आप में एक शर्मनाक स्थिति को बयां करती है. स्पष्ट है, हमारी नीतियों में कहीं न कहीं बहुत बड़ा खोट रहा है. हकीकत यह भी है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व दावा भले ही कुछ भी करता रहे, पर उसकी राजनीति का उद्देश्य सत्ता पाना, सत्ता में बने रहना ही रहा है.

बदलनी चाहिए यह स्थिति. सत्ता नहीं, सेवा होना चाहिए हमारी राजनीति का उद्देश्य. बात तो सब करते हैं सेवक होने की, पर सेवा के नाम पर मेवा कमाने की प्रवृत्ति कम नहीं हो रही. पिछले दो साल में अति गरीबी में पहुंच जाने वाले 4.6 करोड़ लोग यह सवाल पूछ रहे हैं- चुनाव-दर-चुनाव हमारे नेताओं की संपत्ति दुगुनी-तिगुनी कैसे हो जाती है? 

कैसे इन दो सालों में देश में अरबपतियों की संख्या 102 से 142 हो गई? उनकी संपत्ति 23.1 लाख करोड़ से बढ़कर 53.2 लाख करोड़ हो गई? मैं दुहराना चाहता हूं, बढ़ती असमानता सामाजिक अस्थिरता को बढ़ा रही है. यह एक खतरनाक स्थिति का संकेत है. कोई सुन रहा है इस खतरे की आहट?

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