नामवर सिंह से जुड़े दो क़िस्से, जो बताते हैं यूँ ही कोई नामवर नहीं होता

By रंगनाथ सिंह | Published: February 20, 2019 07:42 PM2019-02-20T19:42:00+5:302019-02-20T20:40:08+5:30

नामवर सिंह का 92 साल की उम्र में नई दिल्ली के एम्स अस्पताल में 19 फरवरी को निधन हो गया। नामवर सिंह का जन्म 28 जुलाई 1926 को चंदौली (तब वाराणसी) जीयनपुर गाँव में हुआ था।

namvar singh two memoir by rangnath singh | नामवर सिंह से जुड़े दो क़िस्से, जो बताते हैं यूँ ही कोई नामवर नहीं होता

शेख और मय वाली शेरो-शायरी के बाद नामवर जी का पहला वाक्य ही था कि- "मैंने यह किताब नहीं पढ़ी है"

Highlightsनामवर सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के जीयनपुर गाँव में हुआ था।नामवर सिंह ने बीएचयू से हिन्दी साहित्य में एमए और पीएचडी की। जेएनयू हिन्दी विभाग के वो संस्थापक अध्यक्ष रहे।

नामवर सिंह से जुड़ा पहला क़िस्सा

पाकिस्तान के एक चर्चित विद्वान लेखक की नई-नई किताब आई थी. किताब का विषय हिन्दी-उर्दू भाषा से सम्बंधित था. किताब अंग्रेजी में थी, अंग्रेजी के एक बहुत बड़े प्रकाशक ने छापी थी. नई दिल्ली के एक केन्द्रीय विश्विद्यालय ने उस किताब पर परिचर्चा रखी.

किताब के लेखक पकिस्तान के नामी विद्वान थे, किताब का विषय हिन्दी-उर्दू भाषा से जुड़ा था और नामवर जी बोलने आ रहे थे, इन कारणों से सभागार में हिन्दी-उर्दू भाषियों की संख्या काफी थी. जबकि किताब पर बोलने के लिए मंच पर जो लोग भी बैठे थे उनमें एकमात्र नामवर सिंह ऐसे दिख रहे थे जिनके हिन्दी में बोलने की संभावना थी.

मंच पर जो अंग्रेजीदाँ वक्ता मौजूद थे वो भी हल्के-फुल्के वाले अंग्रेजी-धकेल नहीं थे. मामला आक्सफोर्ड-कैम्ब्रिज वाला था. माहौल कुछ ऐसा था कि हम जैसे कई लोगों के मन में यह सवाल बार-बार आ रहा था कि क्या नामवर जी अंग्रेजी में बोलेंगे!

कार्यक्रम शुरू हुआ. जैसी उम्मीद थी वक्ताओं ने अपनी-अपनी शैली की नफीस अंग्रेजी में बात रखनी शुरू की. न जाने क्या वजह है कि जहाँ भी नफीस-अंग्रेजी बरस रही हो वहाँ खांटी-हिन्दी वाले कार्यक्रम भर  "सावधान" की मुद्रा में दिखाई देते हैं. वहाँ भी ऐसा ही माहौल था. 'अंग्रेजी-श्रोता' बेतक्लुफी के साथ सुन रहे थे और 'हिन्दी-उर्दू-श्रोता' अति-सजगता के साथ.

गेंद घूम कर नामवर जी के पाले में पहुंची. नामवर जी ने बोलने से पहले एक बार अपने दायें-बायें देखा, फिर सभागार पर विहंगम दृष्टि डाली और बोले, "मुझे तो समझ में नही आया कि मुझे यहाँ कैसे बुला लिया गया ! फिर श्रोताओं कि तरफ मुखातिब होकर कहा इन लोगों ने सोचा होगा कि,  "शेख की दावत में मय का क्या काम? एहतियातन कुछ मांग ली जाएगी" (अकबर इलाहाबादी)

नामवर जी का आशय था कि, शराब (हिन्दी-उर्दू) को हराम  मानने वालों की  दावत में मय (नामवर जी) इसलिए मँगा लिए गए होंगे कि शायद कोई पीने वाला (हिन्दी-उर्दू श्रोता) भी आ जाए.

नामवर जी के इस औचक विस्फोट से मंच पर बैठे मुख्य-आयोजक क्षण-भर को थोड़े सकुचाए लेकिन तब तक हाल तालियों और कहकहों से गूंज चुका था. श्रोताओं के साथ ही आयोजक,किताब के लेखक भी दिल-खोल कर हंस रहे थे. नामवर जी मंद-मंद तिर्यक मुस्कान बिखर रहे थे.

मैंने नोटिस किया है कि जब हाल में उनके कहे पे तालियाँ बज रही हों तब नामवर जी मौन रह  कर उनका पूरा रस लेते हैं और जब तक तालियाँ सम पर नहीं आ जाती वो अगला वाक्य नहीं बोलते. उस दिन भी करीब मिनट-दो मिनट की जोरदार तालियों  के सम पर आने के बाद नामवर जी ने दूसरा विस्फोट कर दिया. जो अपने छल-चरित्र में पहले विस्फोट से उलट ही था. पहले से हंसी फूटी थी तो अबकी हाल में सकपकाहट फ़ैल गई. मंच पर विराजमान सज्जनों का चेहरा तो खासतौर पर देखने लायक था.  

शेख और मय वाली शेरो-शायरी के बाद नामवर जी का पहला वाक्य ही था कि- "मैंने यह किताब नहीं पढ़ी है"
किताब पर कार्यक्रम है और वक्ता ने पढ़ी ही नहीं है, यह सुनकर आयोजक,किताब के लेखक और श्रोताओं का सकपका जाना स्वाभविक ही था. (इस बयान के बाद हिन्दी वालों में यह खुसपुसाहट होने लगी कि क्या आज नामवर जी इन लोगों को 'ध्वस्त' करने के इरादे से आए हैं क्या ??) 

{जो पाठक हिन्दी की अलोचना-परंपरा से जायदा वास्ता नहीं रखते उन्हें बता दें कि "ध्वस्त कर देना' हिन्दी आलोचना जगत का एक प्रसिद्ध मुहावरा है. जिसके अर्थ का अंदाजा पाठक आसानी से लगा सकते हैं}

नामवर जी ने किताब ना पढ़ पाने के पीछे किताब के देर से मिलने या स्वयं के कहीं और व्यस्त होने जैसी कोई वजह दी (क्या वजह दी ठीक से याद नहीं). उसके बाद उन्होंने अपने वाक्य को पूरा करते हुए कहा कि, उन्होंने इस अवसर के लिए किताब का एक एक खास अध्याय पढ़ा है और वो उसी पर बोलेंगे.

नामवर जी उस एक अध्याय पर बोला, बढ़िया बोला. किताब के लेखक समेत तमाम लोग उनके वक्तव्य से काफी मुतमईन नजर आ रहे थे. श्रोताओं ने तालियों के साथ नामवर जी कि संगत की (क्यूंकि नामवर जी तालियों के थाप के बगैर कोई प्रस्तुति नहीं देते).

सभा-विसर्जन के बाद नामवर जी की खूब जय-जय हुई. 'हिन्दी वाले' 'नफीस-अंग्रेजी वालों' की सभा से गदगद भाव से बाहर निकले. आखिर क्यूँ न गदगद होते, अंग्रेजी वालों के बीच एक हिन्दी वाले ने श्रोताओं का दिल जीत लिया था. 

नामवर सिंह से जुड़ा दूसरा क़िस्सा

नामवर सिंह से जुड़ा दूसरा किस्सा उस साल का है जिस साल 1857 की  क्रांति के 150 साल हाल पूरे हुए थे. इस अवसर पर देश भर में ढेरों गोष्ठियां, सभाएं इत्यादि हो रही थीं. कई प्रकाशकों ने इस 1857 पर केंद्रित किताबें छपीं. कई पत्रिकाओं ने 1857 पर विशेषांक निकाले.  

यह वाकया ऐसे ही एक अवसर पर घटित हुआ. आयोजकों ने 1857 के 150 साल के बहाने एक परिचर्चा का आयोजन किया. मुख्य वक्ताओं में अंग्रेजी की एक अति-प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक, एक अति-बौद्धिक माने जाने वाले सांसद, अंग्रेजी के एक प्रबुद्ध पत्रकार थे और ऐसे ही कुछ और अंग्रेजीदाँ थे. इन सभी के बीच हिन्दी के एक मात्र वक्ता थे नामवर सिंह.

सभा शुरू हुई. विद्वान वक्ताओं ने अपनी-अपनी बात रखनी शुरू की. नामवर जी की भी बारी आई. उन्होंने सबसे पहले तो परिचर्चा के विषय पर सवाल उठाया. परिचर्चा के विषय निर्धारण में जिस बुनियादी त्रुटि की तरफ नामवर जी ने इशारा किया उसे सभी ने खुले दिल से स्वीकारा. लेकिन किसी को भी अंदाजा नहीं था कि नामवर जी आगे और भी तीखे होते जायेंगे.

शीर्षक में सुधार सुझाने के बाद अपने वक्तव्य की भूमिका बांधते हुए नामवर जी ने आयोजकों को उन्हीं की संस्था के एक भूतपूर्व अध्यक्ष की प्रस्तुत विषय के सन्दर्भ में लिखी एक किताब पढने  की सलाह दी. आशय यह कि, आयोजकों, पूर्व-वक्ताओं  ने गर वह किताब पढ़ी होती तो वो कई वैचारिक भ्रमों कि गिरफ्त में आने से बच जाते. जिस भाषण की शुरुआत यूँ हुई हो उसकी भावी दिशा का अंदाजा पाठक स्वतः लगा सकते हैं.       

अंग्रेजी की एक किताब पढ़ने की सलाह तो नामवर जी पहले ही दे चुके थे. बीच वक्तव्य में उनको हिन्दी की भी याद आ गयी. नामवर जी के ठीक पीछे हिन्दी की एक चर्चित लघु पत्रिका के संपादक बैठे थे. ऐसा माना जाता है  कि हिन्दी साहित्य, हिन्दी विभाग और हिन्दी मठाधीशों के खिलाफ जो लेख कहीं नहीं छप सकता वो उनकी पत्रिका में छपता है.(नामवर जी के खिलाफ भी कई तेजाबी लेख इस पत्रिका में छप चुके हैं). नामवर जी ने उन संपादक की तरफ इशारा करते हुए उनकी पत्रिका का नाम लेकर कहा, "अभी 1857 पर एक बहुत अच्छा विशेषांक इन्होंने निकाला था आप लोग कम से कम उसे ही देख लेते" 

पढ़े-लिखों को किताब और हिन्दी पत्रिका पढ़ने कि राय देना, वो भी सार्वजानिक रूप से काफी अपमानजनक माना जाता है. जाहिर है नामवर जी के इस लहजे से माहौल काफी तनावपूर्ण हो गया. फिर भी,नामवर जी अपनी विस्फोटक शुरुआत से लेकर अंत तक आलोचनात्मक ही बने रहे.

सभा में कुलबुलाहट शुरू हो गई. नामवर जी के कटाक्ष के साथ माहौल के तनावपूर्ण होने की एक संभावित वजह यह भी थी कि "अंग्रेजी वाले"  नामवर जी के रवैये को उनकी 'अंग्रेजी श्रेष्ठता' पर हमले की तरह देख रहे थे. आखिरकार जिसे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने आती है उसे "पढ़ने" की सलाह देना और फिर एक हिन्दी पत्रिका पढ़ने की  सलाह देना  'अपमान' तो है ही.

लोगों की कुनमुनाहट के साथ ही नामवर जी के वक्तव्य के बीच में टीका-टिप्पणी शुरू हो गई. अधैर्य के मामले में हिन्दी-अंगेरजी सभी  भारतीय एक हैं, नतीजा यह हुआ कि एक सज्जन जड़ से उखड गए. वो नामवर जी को हर 2 मिनट बाद टोक रहे थे. उनके कुछेक बार टोकने के बाद नामवर जी अपनी बात रोक कर एक शेर का मिसरे की तर्ज पर उनसे कहा, " आशिकी को सब्र तलब होना चाहिए" , वो फिर नहीं माने तो नामवर जी बोले बोले धैर्य रखिये, बात पूरी कर लेने दीजिए...

लेकिन वो सज्जन मानने वाले जीव नहीं थे, अगले ही मिनट में उन्होंने नामवर जी की बात को बीच में काटते हुए एक और फुटानी मारी....इस बार उनके बड़बोल बमुश्किल नामवर जी के कानों तक बस पहुचे ही होंगे कि नामवर जी अपनी बात रोक कर आवाज कि दिशा में पीछे मुड़ गए और उन सज्जन को देखते हुए बोले - थोड़ा धीरज रखिये,बात पूरी कर लेने दीजिए... अभी लोहा गर्म है ! आप जितनी चाहेंगे उतनी चोटें मार दूँगा !!

नामवर जी के इस गर्म बयान के बाद तो सभा में सन्नाटा खिंच गया. मैंने भी नामवर जी को किसी मंच पर ऐसा तल्ख़ तेवर अपनाते पहली बार देखा था. आमतौर पर वो प्रत्येक बौद्धिक वार मुस्करा कर करते दिखते हैं. नामवर जी ने अपनी बात पूरी की. शेष वक्ता बोले. बढ़िया सवाल-जवाब हुए. सभा विसर्जित हुई.

नामवर जी के वक्तव्य दौरान मेरे मन में भी कई असहमतियां उठीं थीं. लेकिन घर आते हुए जेहन में दो ही बातें घूम रहीं थी.

एक कि जिस संपादक-पत्रिका ने हमेशा उनके खिलाफ लिखा उसकी तारीफ सार्वजनिक रूप से अंग्रेजीदाँ लोगो को हवाला देते हुए करना वैचारिक खुलेपन की अच्छी मिसाल है.

दूसरी यह कि अस्सी से ऊपर कि अवस्था (नामवर जी की उम्र तब 80+ थी) में करीब चालीस के नौजवान को चुनौती देते हुए कहना कि "लोहा गर्म है, जितनी चाहोगे उतनी चोटें मार दूँगा" !!  

.....इस उम्र में इतना आत्मविश्वास, ऐसा साहस!

English summary :
Acclaimed hindi writer Namvar Singh born on 1st May, 1927, who received the Sahitya Akademi award for literary criticism in the year 1971 for 'Kavita Ke Naye Pratiman, died on 19th February at the age of 92.


Web Title: namvar singh two memoir by rangnath singh

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