ब्रिटिश पूर्व भारत की शिक्षा पर मोहन भागवत ने वही कहा है जो महात्मा गांधी ने कहना चाहा था

By रंगनाथ सिंह | Published: March 7, 2023 07:01 PM2023-03-07T19:01:15+5:302023-03-08T10:00:36+5:30

रविवार को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने ब्रिटिश पूर्व भारत की शिक्षा व्यवस्था पर बयान दिया। सोमवार को राहुल गांधी ने लन्दन में आरएसएस पर बयान दिया। दोनों बयान विवादों से घिर गये। यह जानना रोचक होगा कि इन दोनों विवाद का कनेक्शन महात्मा गांधी से भी जुड़ता है।

mahatma gandhi chatham house lecture and mohan bhagwat comment on pre british india education | ब्रिटिश पूर्व भारत की शिक्षा पर मोहन भागवत ने वही कहा है जो महात्मा गांधी ने कहना चाहा था

महात्मा गांधी, मोहन भागवत और राहुल गांधी (फीचर इमेज - हर्ष मिश्रा)

Highlightsमोहन भागवत ने कहा है कि ब्रितानी शासन से पहले भारत की शैक्षिक स्थिति ब्रिटेन से बेहतर थी।मोहन भागवत के बयान से ब्रिटिश पूर्व भारत की शैक्षिक स्थिति पर बहस छिड़ गयी है।इसी बीच राहुल गांधी उसी जगह पर मौजूद थे जहाँ से महात्मा गांधी ने यह बहस शुरू की थी।

रविवार को RSS प्रमुख मोहन भागवत ने हरियाणा में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि अंग्रेजों द्वारा कब्जा किए जाने से पहले भारत की 70 प्रतिशत आबादी साक्षर थी, जबकि ब्रिटेन की 17 प्रतिशत आबादी ही साक्षर थी। भागवत के बयान पर मीडिया में घमासान शुरू हो गया। इसी बीच सोमवार को राहुल गांधी ने ब्रिटेन के चैटम हाउस में आयोजित एक संवाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अंतरराष्ट्रीय कट्टरपंथी इस्लामी  संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड का भारतीय अवतार बताया। राहुल ने आरएसएस के बारे में पहली बार ऐसा कड़ा बयान नहीं दिया है लेकिन इस बार दोनों घटनाक्रम का तार आपस में एक रोचक संयोग से जुड़ गया है। 

जिस चैटम हाउस में राहुल गांधी 'भारत जोड़ो यात्रा' के तपस्वी अवतार को त्यागकर नीट एण्ड क्लीन सूटेड-बूटेड अवतार में पहुँचे थे, उसी चैटम हाउस में 20 अक्टूबर 1931 दिन मंगलवार को मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा दिए गए व्याख्यान से वह बहस शुरू हुई थी, जिसे अब 91 साल बाद मोहन भागवत ने दुबारा जिंदा कर दिया है।  

आगे बढ़ने से पहले बताना जरूरी है कि चैटम हाउस एक गैरसरकारी संस्था (NGO) है, जिसकी स्थापना प्रथम विश्वयुद्ध के बाद लंदन में की गई। इस एनजीओ के संस्थापकों का मानना था कि अंतरराष्ट्रीय मसलों पर विभिन्न पक्षों के बीच संवाद की कमी भी विश्वयुद्ध का एक प्रमुख कारण थी। अंतरराष्ट्रीय मसलों से जुड़े पक्षों के बीच संवाद सेतु की भूमिका निभाने के लिए 'अंतरराष्ट्रीय मसलों के अध्ययन केंद्र' की स्थापना की गई। यह गैरसरकारी अध्ययन केंद्र जिस परिसर में स्थित है, उसका नाम चैटम हाउस है, जिसकी वजह से अध्ययन केंद्र को भी बोलचाल में इसी नाम से पुकारा जाने लगा। यह अध्ययन केंद्र अब चैटम हाउस नाम से ही ज्यादा जाना जाता है। इसी इमारत में महात्मा गांधी ने व्याख्यान दिया था और इसी में राहुल गांधी ने एक चर्चा में शिरकत की।

राहुल गांधी ने आरएसएस के बारे में जो बयान दिया उसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है। आइए अब देखते हैं कि महात्मा गांधी ने 1931 में चैटम हाउस में क्या कहा था, जिससे मोहन भागवत के बयान का तार जुड़ता है। महात्मा गांधी द्वारा चैटम हाउस में दिए व्याख्यान का शीर्षक था- 'भारत का भविष्य।' इस व्याख्यान में गांधी जी ने विभिन्न पहलुओं से भारत के भविष्य से अपनी सोच श्रोताओं के सामने रखी थी। इस व्याख्यान में गांधी जी ने कहा था, "...इतने से तस्वीर साफ नहीं होती। हमारा आगामी राज्य शिक्षित होगा। मैं किसी तथ्यों को लेकर दी जाने वाली चुनौतियों से भयभीत हुए बिना कहना चाहूँगा कि आज का भारत आज से 50-100 साल के भारत से ज्यादा अशिक्षित है, यही हाल बर्मा का है और इसके लिए ब्रिटिश प्रशासन जिम्मेदार है। जब ब्रिटिश भारत आए तो उन्होंने चीजों को जैसे का तैसा स्वीकार नहीं किया बल्कि उनकी जड़ खोदने लगे। उन्होंने ऊपरी मिट्टी खोदकर जड़ों के अन्दर झाँकना शुरू कर दिया और बाद में उन जड़ों को यूँ ही खुला छोड़ दिया और वह सुन्दर पेड़ सूख गया। गाँव की पाठशालाएँ ब्रिटिश प्रशासन के काम की नहीं थी इसलिए उन्होंने अपना शिक्षा कार्यक्रम चलाया। नियम बनाया कि हर स्कूल में परिसर और इमारत होनी चाहिए और ऐसे ही कई नियम बनाए। जाहिर है कि उनके हिसाबवाला कोई स्कूल नहीं था। भारत के कुछ इलाकों की शैक्षणिक स्थिति के बारे में ब्रिटिश अफसरों द्वारा दिए गए आँकड़े मौजूद हैं जिनके अनुसार देसी शालाओं को नए मापदण्डों के अनुसार स्कूल की मान्यता नहीं दी गयी और वो बन्द हो गये। यूरोपीय तरीके के स्कूल इतने महँगे थे कि आम आदमी शायद उन्हें वहन नहीं कर सकता था। " 

गांधी जी ने अपने व्याख्यान में 50-100 साल पहले की बात कही। यूँ तो सौ-पचास साल मुहावरा भी है लेकिन फिलहाल हम इसे ठोस आँकड़े के तौर पर भी देख सकते हैं। गांधी जी का व्याख्यान 1931 में आयोजित हुआ था और उससे 50-100 साल पहले का वक्फा हुआ। 1831 से 1881 तक का समय। गाँधी जी का आशय 19वीं सदी के भारत से था। यहाँ ध्यान रखें कि ब्रिटिश ने भारत में पहली सैन्य विजय 1757 में बंगाल में हासिल की लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने 1773 में रेगुलेटिंग एक्ट और 1784 में इण्डिया एक्ट पारित करके भारत में ब्रिटिश कोलोनियल शासन की सही मायनों में नींव रखी। इण्डिया एक्ट पारित होने के बाद ब्रितानियों ने तेजी से भारत का हर प्रकार से दोहन शुरू किया। भारत के व्यवस्थित शोषण के लिए ब्रिटिश हुकूमत को जमीनी आँकड़ों की जरूरत होती थी। इसलिए ब्रितानियों ने विभिन्न प्रकार के आँकड़े जुटाने शुरू कर दिये। 

गाँधी जी ने चैटम हाउस में वर्ष 1931 में जो बयान दिया वह मूलतः ब्रिटिश अफसरों द्वारा इकट्ठा किए गए आँकड़ों के आधार पर ही कहा था लेकिन गुलाम देश के नेता से यह सुनना कि वह शिक्षा में औपनिवेशिक शासकों से आगे रहा था, कुछ ब्रितानियों को हजम नहीं हुई। एक ब्रितानी बुद्धिजीवी फिलिप हर्टोग गांधी जी के पीछे ही पड़ गया कि वो अपने बयान के समर्थन में सुबूत दें। गांधी जी ने कहा कि वो भारत पहुँचकर वो इस बारे में तथ्य पेश करेंगे। हर्टोग ने गांधी जी से वादा ले लिया कि यदि उनका बयान तथ्यसम्मत नहीं हुआ तो वो माफी माँगेंगे। गांधी जी ने हर्टोग से कहा कि यदि वो गलत साबित हुए तो अपने पत्र हरिजन में लिखकर वो सार्वजनिक रूप अपनी गलती स्वीकार करेंगे। गांधी जी और हर्टोग के बीच इस विषय पर कई मुलाकात और काफी खतो-खिताबत भी हुई लेकिन 1930 का दशक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दृष्टि से काफी व्यस्तता भरा था इसलिए किसी निर्णायक अंत तक नहीं पहुँच सकी। गांधी जी के पास जो भी तथ्य थे वो हर्टोग को उपलब्ध करा दिये गये थे लेकिन जिस किस्म के अकादमिक रूप से ठोस जवाब की अपेक्षा की जाती है वैसा जवाब एक गांधीवादी ने धरमपाल जी ने एक किताब के रूप में दिया जो वर्ष 1983 में छपकर आयी। किताब का नाम था, ''दि ब्यूटीफुल ट्री' (The Beautiful Tree)। 

धरमपाल जी ने किताब का नाम गांधी जी के व्याख्यान की उस पँक्ति से लिया था जिसमें कहा गया था कि "...ब्रिटिश ने जड़ खोदकर खुली छोड़ दी और वह सुन्दर पेड़ सूख गया।"  धरमपाल जी पक्के गांधीवादी थे। उन्होंने 'दि ब्यूटीफुट ट्री' किताब गांधी आश्रम में रहकर लिखी और इसे लिखने में विदेशी संस्थानों के अलावा गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, दिल्ली और गांधी शोध संस्थान वाराणसी का भी सहयोग रहा। धरमपाल जी ने किताब प्रसिद्ध समाजवादी जयप्रकाश नारायण को समर्पित की। धरमपाल जी ने इस आधुनिक क्लासिक किताब में गांधी जी के बयान के समर्थन में 1814 से लेकर 1909 के बीच के उन दस्तावेज की सामग्री को आधार बनाया जिसे ब्रितानी या यूरोपीय लोगों ने लिखा था।  ब्रितानी दस्तावेज मूलतः मद्रास प्रेसिडेंसी, बंगाल प्रेसिडेंसी, बिहार और पंजाब के जिलाधिकारियों द्वारा तैयार आँकड़ों से जुड़े थे। चूँकि सम्पूर्ण भारत से जुड़ा ऐसा कोई सर्वे हमारे बीच नहीं है जिससे 18वीं और 19वीं सदी के प्रारम्भ में भारतीय गाँवों में पाठशालाओं की स्थिति पता चल सके इसलिए इन चार प्रांतों के विभिन्न जिलों से जुड़े ब्रितानी आँकड़ों को नमूना मानकर विश्लेषण किया गया। धरमपाल जी द्वारा प्रस्तुत अकाट्य प्रमाणों को नजर में रखें तो मोहन भागवत ने सही सामान्यीकरण किया है।

चूँकि आज भारत के बहुत से लोगों के लिए यह यकीन करना मुश्किल है कि महज डेढ़ सौ साल पहले इंग्लैण्ड साक्षरता के मामले में भारत से पीछे था इसलिए धरमपाल जी किताब में दिए कुछ आँकड़े नीचे दिए जा रहे हैं। इन आँकड़ों को देने से पहले दो बातें साफ करनी जरूरी है। ब्रितानी अधिकारियों ने पहले-पहल भारतीयों का वर्गीकरण हिन्दू और मुसलमान के रूप में किया फिर हिन्दुओं का वर्गीकरण वर्ग (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के आधार पर किया जबकि ब्रितानियों द्वारा कराई गई पहली जनगणना के समय यह साफ हो गया कि ज्यादातर भारतीय खुद को जातियों के रूप में ज्यादा चिह्नित करते थे न कि सामूहिक वर्ग के रूप में। वर्ष 1872 में जब ब्रितानियों ने पहली जनगणना करायी तो उस समय खुद को शूद्र के रूप में दर्ज करने वाले लोग न के बराबर थे। ब्रितानियों ने डेढ़-दो हजार साल पुरानी पोथियों की आधार पर यह मान लिया था कि आज भी भारतीय समाज चार वर्णों (वर्गों) में  विभाजित है जबकि तथ्य यह था कि 19वीं सदी तक भारतीय समाज हजारों जातियों में विभाजित हो चुका था जिनमें से अनगिनत जातियाँ अनुलोम-विलोम विवाहों के आधार पर तैयार हुई थीं। 

ब्रितानियों ने भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों की साक्षरता को लेकर जो आँकड़े दिए हैं उनके अनुसार दोनों ही समुदाय की स्थिति तत्कालीन ब्रिटेन से बेहतर थी। नीचे धरमपाल जी की किताब से हूबहू दो उद्धरण दिए जा रहे हैं, 

(इंग्लैण्ड में) "वर्ष 1872 में स्कूल जाने वालों छात्रों की कुल संख्या 40 हजार थी। वर्ष 1818 में छात्र संख्या छह लाख 74 हजार 883 थी। वर्ष 1851 में छात्र संख्या 21 लाख 44 हजार 377 थी। सरकारी और प्राइवेट दोनों तरह के कुल स्कूलों की संख्या 1801 में 3363 थी जो 1851 तक बढ़कर 46 हजार 114 स्कूल तक पहुँच गयी। "

"खस्ताहाल हो चुकी भारतीय शिक्षा पद्धति के बावजूद 1822 से 1825 के बीच मद्रास प्रेसिडेंसी में स्कूली छात्रों की संख्या वर्ष 1800 में इंग्लैण्ड के सभी तरह के स्कूलो में मौजूद छात्रों से ज्यादा थी। " (किताब में वह आँकड़ों का चार्ट मौजूद है जिसके आधार पर यह बयान आधारित है। यहाँ यह बताना भी जरूरी है कि धरमपाल जी के अनुसार तुलनीय वर्षों के दौरान इंग्लैण्ड की आबादी मद्रास प्रेसिडेंसी के समतुल्य थी।)

कुछ ब्रितानी अफसरों ने शिक्षा के स्तर का भी वर्गीकरण किया था। साक्षरता और सामान्य अंकगणित स्तर की प्राथमिक शिक्षा से लेकर  साहित्य, ज्योतिष, व्याकरण, उच्च गणित, चिकित्सा इत्यादि की  उच्च शिक्षा के आँकड़े दर्ज किए गये थे। धरमपाल जी ने इन आँकड़ों के आधार पर दिखाया कि गांधी जी ने वर्ष 1931 में जो बयान दिया वह तथ्यसम्मत था। यहाँ यह बताना भी समीचीन होगा कि ब्रितानी अधिकारियों ने जिन जिलों के आँकड़े इकट्ठा किए थे वहाँ के छात्रों के साथ ही अध्यापकों का भी धार्मिक पंथ और वर्ग दोनों आधार पर वर्गीकरण किया था। किताब में वर्णित ब्रितानी अफसरों द्वारा दिए गए आँकड़ों के अनुसार प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने वालों में शूद्र वर्ग के छात्रों और बालिकाओं की उल्लेखनीय संख्या थी।  

अफ्रीकी कहावत है कि जब तक शेरों के पास अपने इतिहासकार नहीं होंगे तब तक शिकार की कहानियों में शिकारियों का महिमामण्डन किया जाता रहेगा। 70 और 17 के आँकड़े को थोड़ी देर के लिए छोड़ दें तो यह साफ है कि महात्मा गांधी और मोहन भागवत के बयान का मर्म एक है। दुखद यह है कि भारतीय इतिहास लेखन कोलोनियल नजरिए में इस कदर जकड़ हुआ है कि भारत का एक बड़ा प्रबुद्ध वर्ग इसपरर यकीन नहीं कर रहा है कि कभी भारत की शैक्षिक स्थिति इंग्लैण्ड से बेहतर थी। धरमपाल जी किताब इंटरनेट पर मुफ्त में उपलब्ध है जिसे आप यहाँ क्लिक कर के प्राप्त कर सकते हैं।

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