बांका लोकसभा सीट पर मुकाबला हुआ त्रिकोणीय, निर्दलीय पुतुल कुमारी ने दलीय उम्मीदवारों के छुड़ाये पसीने

By एस पी सिन्हा | Published: March 31, 2019 04:15 PM2019-03-31T16:15:31+5:302019-03-31T16:15:31+5:30

बांका के चुनावी गणित पर नजर रखने वालों को कहना है कि पुतुल सिंह का टिकट कटने और उन्हें पार्टी से बाहर करने से राजपूत बिरादरी में नाराजगी है. दिग्विजय के परिवार की राजपूतों पर पकड़ का ही असर माना जाता है कि 2009 में नीतीश की मर्जी के खिलाफ दिग्विजय ने लोकसभा चुनाव जीता था.

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बांका लोकसभा सीट पर मुकाबला हुआ त्रिकोणीय, निर्दलीय पुतुल कुमारी ने दलीय उम्मीदवारों के छुड़ाये पसीने

बिहार के बांका लोकसभा सीट पर इसवक्त सभी की बिगाहें टिकी हुई हैं. महागठबंधन की ओर राजद प्रत्याशी जयप्रकाश नारायण और एनडीए के जदयू उम्मीदवार गिरिधारी यादव के बीच में भाजपा की प्रदेश उपाध्यक्ष पुतुल कुमारी के निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनावी मैदान में उतर जाने से यहां का मुकाबला त्रिकोणात्मक हो गया है. 

मौजूदा सांसद जयप्रकाश नारायण यादव माई समीकरण के बाल पर अपनी जीत के दावे कर रहे हैं. लेकिन पुतुल सिंह को पार्टी से निकालना एनडीए को महंगा पड़ सकता है! 

उल्लेखनीय है कि टिकट कटने के बाद बागी हुईं पुतुल सिंह निर्दलीय चुनाव मैदान में हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में महज दस हजार वोटों के अंतर से हारने वाली पुतुल अपने जमाने के दिग्गज नेता रहे दिग्विजय सिंह की पत्नी हैं. पुतुल सिंह ने पति के निधन के बाद 2010 में हुए उप चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीत हासिल की थी. तब उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से जदयू के टिकट का ऑफर ठुकराया था. 

दिग्विजय 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव में सांसद चुने गये थे. पिछले छह लोकसभा चुनावों में बांका की राजनीति का अभिन्न हिस्सा रहे दिग्विजय सिंह के परिवार से पंगा लेने का नतीजा क्या निकलेगा, यह आने वाला समय बतायेगा. 

वहीं, बांका के चुनावी गणित पर नजर रखने वालों को कहना है कि पुतुल सिंह का टिकट कटने और उन्हें पार्टी से बाहर करने से राजपूत बिरादरी में नाराजगी है. दिग्विजय के परिवार की राजपूतों पर पकड़ का ही असर माना जाता है कि 2009 में नीतीश की मर्जी के खिलाफ दिग्विजय ने लोकसभा चुनाव जीता था. उनके असामयिक निधन के बाद पुतुल ​ने भी निर्दलीय जीत हासिल की थी.

2014 के चुनाव में वह भाजपा के टिकट पर मैदान में उतरी थीं. उन्हें राजद के जयप्रकाश नारायण यादव ने दस हजार से अधिक मतों के अंतर से हराया था. उस चुनाव में जदयू ने सीपीआई को समर्थन दिया था. सीपीआई के संजय कुमार ने 220708 वोट हासिल किये थे. 

पिछला चुनाव बहुत कम वोटों के अंतर से हारने वाली पुतुल इस बार टिकट की मजबूत दावेदार थीं. लेकिन तालमेल में बांका की सीट जदयू के कोटे में चली गई. बदले हुए हालात में पुतुल चाहती थीं कि उन्हें जदयू के टिकट पर चुनाव लडाया जाये. लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई. जदयू ने बेलहर से अपने विधायक गिरधारी यादव को टिकट दे दिया. 

जदयू ने अपने विधायक गिरधारी यादव को मैदान में उतारने का ऐलान किया तो पुतुल ने बगावत कर दिया. उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में नामांकन दाखिल कर दिया. मनाने पर भी वह नहीं मानीं तो भाजपा ने शनिवार को उन्हें पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से बाहर कर दिया.

इस बार बांका में राजद के सांसद जयपक्राश नारायण यादव, जदयू के गिरधारी यादव और निर्दलीय पुतुल सिंह प्रमुख उम्मीदवार हैं. गिरधारी 1996 में दिग्विजय सिंह को हरा कर जनता दल के टिकट पर सांसद बने थे. गिरधारी को महज 15 हजार मतों के अंतर से जीत मिली थी. 1998 और 1999 के चुनाव में भी दिग्विजय का मुकाबला गिरधारी से ही हुआ था. दोनों चुनाव में दिग्विजय को जीत मिली. लेकिन जीत-हार का अंतर 10-12 हजार वोटों के आसपास ही रहा. 

2004 के चुनाव में जदयू के उम्मीदवार दिग्विजय ने राजद के प्रत्याशी गिरधारी को परास्त किया. वोटों का अंतर महज पांच हजार के आसपास था. 2009 के चुनाव में नीतीश से खटपट होने के कारण दिग्विजय निर्दलीय मैदान में उतरे और राजद के जयप्रकाश को 25 हजार से अधिक मतों के अंतर से हराकर संसद पहुंचे. लेकिन एक साल के भीतर ही उनका निधन हो गया. 

पति के निधन के बाद 2010 के उप चुनाव में राजद के जयप्रकाश को 60 हजार से अधिक मतों के अंतर से जीत दर्ज करने वाली पुतुल ने दिग्विजय की राजनीतिक विरासत को आगे बढाया. यहां के जातीय समीकरण पर गौर करें तो- यादव- तीन लाख, मुस्लिम- दो लाख, गंगोता- तीस हजार, कोइरी- 80 हजार, कुर्मी- एक लाख, ब्राह्मण- सवा लाख, भूमिहार- पचास हजार, राजपूत- डेढ लाख, कायस्थ- पचास हजार, मारवाडी- बीस हजार, वैश्य- दो लाख, महादलित- ढाई लाख और अन्य- एक लाख हैं

 इधर, पुतुल कुमारी निर्दलीय जरूर हैं, लेकिन सभी की निगाहें उन्हीं की ओर टिकी हुई है. बांका का सियासी मैदान शुरू से ही दिलचस्प रहा है. 2009 में बांका एक बड़े घटनाक्रम से गुजर चुका है. उस बार दिग्विजय सिंह निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे थे. राजनीतिक के जानकारों की मानें तो उम्मीदवारों की घोषणा से पहले दो तरफे की लडाई स्पष्ट दिख रही थी, लेकिन अब यह त्रिकोणीय मुकाबले का केन्द्र बन गया है. 

जानकार बताते हैं कि 1952 में सुषमा सेन बंगाल से आकर बांका की सांसद बनीं. इसके बाद 1957 व 1962 शकुंतला देवी यहां की सांसद रहीं. 1986 में मनोरमा सिंह व 2010 में पुतुल कुमारी महिला सांसद की रूप में यहां जीत हासिल कर चुकी हैं. एक समय बांका लोकसभा पर कांग्रेस का सिक्का जमा हुआ था. मनोरमा सिंह के बाद ही कांग्रेस के हाथ से बांका की सियासी जमीन खिसक गई और हाल तक जदयू व राजद के पाले में यहां की सत्ता रही. बांका लोकसभा से राजनारायण और जॉर्ज फर्नांडिस जैसे कद्दावर नेताओं की हार हो चुकी है. 1980 में चंद्रशेखर सिंह यहां के सांसद हुए. 

1989 के चुनाव में जनता पार्टी की ओर से प्रताप सिंह ने जीत दर्ज की. 1991 में प्रताप सिंह दोबारा जीते. इसके बाद 1996 में गिरिधारी यादव निर्दलीय चुनाव जीते. गिरिधारी यादव 2004 में दोबारा सांसद बने. दिग्विजय सिंह 1998, 1999 व 2009 में तीन बार संसद पहुंचे. नये परिसीमन में बांका संसदीय क्षेत्र में धोरैया व सुल्तानगंज विधानसभा जुड़ गया. वर्तमान में छह विधानसभा क्षेत्र हैं. 1.अमरपुर, 2.कटोरिया, 3.बांका, 4.बेलहर, 5.धोरैया, 6.सुल्तानगंज. (बांका का धोरैया (अनुसूचित जाति) व कटोरिया (अनुसूचित जन जाति) विधानसभा सुरक्षित सीट है.)

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