3 साल में 50% से ज्यादा बढ़ी IIMC की फीस, गेस्ट फैकल्टी के सहारे चल रहा है पत्रकारिता संस्थान
By निखिल वर्मा | Published: April 19, 2019 11:45 AM2019-04-19T11:45:59+5:302019-04-19T11:51:05+5:30
सरकारी शिक्षण संस्थानों में बढ़े फीस का असर पिछड़े राज्यों से आने वाले गरीब तबके के छात्रों पर पड़ रहा है।
नई दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार पत्रकारिता संस्थान (आईआईएमसी) ने 2019-2020 अकादमिक सत्र के लिए सभी कोर्सों में 10 फीसदी बढ़ा दिया है। अब हिन्दी पत्रकारिता पीजी डिप्लोमा करने के लिए छात्रों को करीब 1 लाख रुपये खर्च करने होंगे।
2015-16 में आईआईएमसी में हिन्दी पत्रकारिता की फीस 60 हजार रुपये थी जो अब बढ़कर 94,500 रुपये हो गई है। फीस बढ़ने के सवाल पर आईआईएमसी के एडीजी मनीष देसाई लोकमत न्यूज़ को बताते हैं, फीस बढ़ाने का निर्णय आईआईएमसी एग्जीक्यूटिव काउंसिल का है। संस्थान हर साल 10 फीसदी फीस बढ़ाता है। इस साल तो निर्णय लिया जा चुका है, आगे काउंसिल की मीटिंग में इस मुद्दे को उठाया जाएगा।
देसाई आगे कहते हैं, हम सरकारी शिक्षण संस्थान हैं, प्राइवेट प्लेयर की तरह मुनाफा कमाना हमारा उद्देश्य नहीं है। सरकार द्वारा हर ऑटोनॉमस बॉडी को कहा गया है कि वह अपने खर्चे स्वयं निकाले। संस्थान आर्थिक रुप से कमजोर छात्रों को छात्रवृति भी देता है। संस्थान यहां से पढ़ने वाले हर बच्चे के भविष्य की चिंता करता है और 100 फीसदी प्लेसमेंट की जिम्मेदारी लेता है।
आईआईएमसी में कई सालों से काम कर रहे एक अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया, पिछले साल भी 70 फीसदी छात्रों को ही संस्थान से प्लेसमेंट मिला है। इसके अलावा पांच बच्चों की पूरी फीस माफ की गई थी। हिन्दी पत्रकारिता में 14 छात्रों की फीस में 20 से 25 हजार रुपये की कटौती की गई थी।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ कुछ जगहों पर फीस बढ़ी है। देश के नामी विश्वविद्यालय जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में भी पिछले महीने बढ़ी फीस को लेकर एक बड़ा आंदोलन हो चुका है। जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष एन बालाजी कहते हैं, जेएनयू में छात्र विश्वविद्यालय के कुछ कोर्स में फीस कम करने की मांग को लेकर में 10 दिनों तक भूख हड़ताल पर बैठे थे। लेकिन कोई हल नहीं निकला।
सरकारी शिक्षण संस्थानों में बढ़ी फीस का असर पिछड़े राज्यों से आने वाले गरीब तबके के छात्रों पर पड़ रहा है। आईआईएमसी की तैयारी कर रहे एक छात्र ने बताया, हिन्दी पत्रकारिता की फीस 90 हजार है उसके अलावा अगर हॉस्टल नहीं मिला तो दिल्ली में हर महीने रहने का खर्च कम से कम 10 हजार रुपये है। दो से ढाई लाख रुपये खर्च करने के बाद भी कैंपस से हिन्दी पत्रकारिता में इतने रुपये में प्लेसमेंट की गारंटी नहीं है।
फीस कम करने को लेकर कुछ छात्रों की उम्मीद आईआईएमसी एलुमिनाई एसोसिएशन (IIMCAA) से हैं। लोकमत न्यूज़ से बातचीत में IIMCAA अध्यक्ष प्रसाद सान्याल का कहना है कि संगठन संस्थान के हर दिन के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता। संस्थान के नीतिगत निर्णयों से संगठन का कोई वास्ता नहीं है। बता दें कि IIMCAA इस साल से 7 छात्रों को 25-25 हजार रुपये की आर्थिक सहायता करेगा।
गेस्ट फेकल्टी के सहारे चल रहा है संस्थान
आईआईएमसी की वेबसाइट के अनुसार यहां इस साल 476 सीटों के लिए आवेदन मंगाए गए हैं। आईआईएमसी और उसके सेंटर गेस्ट फैकल्टी के सहारे चल रहे हैं। वो भी दो-ढाई दशकों से। अभी इन छह सेंटरों को सिर्फ आठ स्थायी फैकल्टी मिलकर चला रहे हैं। 2016 में 12 स्थायी फैकल्टी थे, कुछ फैकल्टी के रिटायर होने के बाद भी इन पदों को नहीं भरा गया है। अभी दो प्रोफेसर, पांच एसोसिएट प्रोफेसर और एक अस्सिटेंट प्रोफेसर मिलकर संस्थान चला रहे हैं।
गेस्ट फैकल्टी की भी दो श्रेणियां हैं। एक वे शिक्षक है जिन्हें प्रति क्लास के हिसाब से भुगतान किया जाता है। दूसरे वे शिक्षक हैं जिन्हें संस्थान कुछ तय समय के लिए अनुबंधित करते हैं। आईआईएमसी के फिलहाल भारत में नई दिल्ली, ढेंकनाल (ओडिशा), आईजोल (मिजोरम), अमरावती (महाराष्ट्र), जम्मू (जम्मू-कश्मीर) और कोट्टायम (केरल) छह सेंटर है।
आईआईएमसी में कई साल पढ़ा चुके एक शिक्षक नाम नहीं उजागर करने की शर्त पर बताते हैं कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अनुसार पोस्ट ग्रेजुएट कोर्सों में प्रति दस छात्रों पर एक स्थायी शिक्षक की नियुक्ति जरूरी है। वर्तमान में आईआईएमसी में जितने छात्र पढ़ते हैं उस हिसाब से 45 से 50 के करीब स्थायी शिक्षक होने चाहिए।
12 दिसंबर 2016 की इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में एलिमेंट्री और सेकेंडरी स्कूलों को मिलाकर शिक्षकों के दस लाख पद खाली हैं। पिछले साल में ये स्थिति है कि खाली पदों को भरा नहीं जा रहा है।
मोदी सरकार में घटा शिक्षा पर खर्च
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सत्ता में आने पर शिक्षा क्षेत्र में जीडीपी का छह फीसदी खर्च करने का वादा किया है। कोठारी आयोग की अनुशंसा थी कि सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का छह फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च होना चाहिए। 1986 की नई शिक्षा नीति और 1992 में इसमें हुए संशोधन में छह फीसदी से अधिक की वकालत की गई। उसके बाद से कोई नई शिक्षा नीति तो नहीं बनी है, मगर हर बदलती सरकार ने छह फीसदी की बात जरूर कही है।
हालांकि भारत कभी इस लक्ष्य तक नहीं पहुंच सका। वर्ष 2001 में सबसे अधिक 4.4 फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च किया गया था, मगर 1980 के दशक के बाद से यह खर्च 3.3 फीसदी और 3.8 फीसदी के बीच ही झूलता रहा है।
नीति आयोग ने 2022 तक शिक्षा पर जीडीपी का प्रतिशत दोगुना कर कम से कम छह फीसदी करने की हिमायत की है। फिलहाल, शिक्षा के क्षेत्र में केंद्र और राज्यों का आवंटन जीडीपी के तीन फीसदी के करीब है, जबकि विश्व बैंक के मुताबिक इसकी वैश्विक औसत 4. 7 फीसदी है।