जब 232 जासूसी नॉवेल लिखने वाले इब्न-ए-सफी ने खुद की जासूसी तो ये हुआ हश्र
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 26, 2018 07:05 AM2018-07-26T07:05:02+5:302018-07-26T07:05:02+5:30
ibn-e-safi Birth/Death Anniversary:मशहूर पाकिस्तानी लेखक ज़ियाउद्दीन सरदार ने इब्न-ए-सफी को याद करते हुए लिखा है, "पाकिस्तान में जितना पान मशहूर है उतना ही इब्न-ए-सफी का नाम मशहूर है।"
इब्न-ए-सफी आज ही के दिन पैदा हुए और आज ही के दिन दुनिया को अलविदा कह गये। 26 जुलाई 1928 को एकीकृत भारत के इलाहाबाद में जन्मे असरार अहमद बँटवारे के पाँच बरस बाद 1952 में अपने परिवार के साथ पाकिस्तान चले गये। इब्न-ए-सफी का परिवार कुछ ही पीढ़ी पहले हिन्दू से मुसलमान बना था। उनके पूर्वज इलाके के नामी कायस्थ परिवार थे। उनके पुरखे राजा वशेश्वर दयाल सिंह ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था और बाबा अब्दुन नबी नाम रख लिया। सफी के पैतृक गाँव नारा में आज भी अब्दुन नबी की मजार है।
इब्न-ए-सफी के पिता सैफुल्लाह गाँव से इलाहाबाद आकर बस गये और बाद में सपरिवार पाकिस्तान चले गये। इब्न-ए-सफी कम उम्र से ही गीत-गजल और कहानियाँ लिखने लगे थे। जब वो कक्षा सात के छात्र थे तब उन्होंने अपनी पहली ग़जल लिखी थी और आठवीं कक्षा में पढ़ते हुए उन्होंने अपनी पहली कहानी लिखी। सफी ने आगरा विश्वविद्यालय से बीए की पढ़ाई की थी। सफी असरार नारवी के नाम से शायरी भी करते थे लेकिन उन्हें व्यापक स्वीकार्यता उनके जासूसी लेखन से ही मिली। सफी का पहली जासूसी कहानी 1948 में निखत नाम की पत्रिका में छपी। शुरू में सफी ने कई दूसरे उपनाम (तखल्लुस) रखे लेकिन आखिरकार इब्न-ए-सफी नाम उन्हें जम गया। इब्न-ए-सफी नाम से छपा उनकी शोला सीरीज काफी लोकप्रिय रही थी। शायद इसी वजह से वो इस नाम को लेकर ही मुतमईन हो सके।
इब्न-ए-सफी को पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में अभूतपूर्व शोहरत दिलाने वाले "जासूसी दुनिया" सीरीज का पहला उपन्यास 1952 में प्रकाशित हुआ था। सफी भले ही पाकिस्तान चले गये हों लेकिन उनके नॉवेल भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में एक साथ छपते थे। दोनों ही देशों में सफी एक समान रूप से लोकप्रिय थे। "जासूसी दुनिया" के बाद सफी ने 1958 में इमरान सीरीज लिखनी शुरू की। "जासूसी दुनिया" के हमीद और फरीद की तरह इमरान भी रातोंरात पाठकों का चहेता बन गया। सफी ने "जासूसी दुनिया" सीरीज के केवल 125 उपन्यास और इमरान सीरीज के करीब 120 नॉवेल लिखे। करीब 232 जासूसी नॉवेल लिखने वाले सफी का 26 जुलाई 1980 को कराची में इंतकाल हो गया।
इब्न-ए-सफी रात भर लिखते थे, दिन भर सोते थे
मशहूर लेखक ज़ियाउद्दीन सरदार ने इब्न-ए-सफी को याद करते हुए लिखा है, "पाकिस्तान में जितना पान मशहूर है उतना ही इब्न-ए-सफी का नाम मशहूर है।" 1950 के दशक में कहा जाता था कि सफी हर महीने एक नॉवेल लिखते हैं। कहते हैं कि कुछ नॉवेल तो उन्होंने 15 दिनों में ही लिख डाले थे। इब्न-ए-सफी की बेटी नुज़हत सलमान ने एक पाकिस्तानी टीवी चैनल से बातचीत में बताया था कि सफी "दिन में सोया करते थे और रात भर लिखा करते थे।" हालाँकि बाद के दिनों में सफी के लिखने की रफ्तार धीमी हो गयी थी। इस बाबत पूछे गये एक सवाल के जवाब में सफी ने कहा था कि नॉवेल की संख्या बढ़ने के साथ उन्हें यह ध्यान रखना पड़ता है कि कहानी और प्लॉट में कहीं दोहराव न आ जाए, इसलिए बाद के सालों में उनके लेखन की रफ़्तार धीमी हो गयी।
इब्न-ए-सफी के फेवरेट लेखक और लेखन की प्रेरणा
हिंदुस्तानी लेखकों में देवकीनंदन खत्री और गोपाल राम गहमरी जैसे लेखकों को छोड़ दें तो सफी से पहले आधुनिक जासूसी लेखन न के बराबर था। इब्न-ए-सफी ने सही मायनों में हिन्दू-उर्दू ज़बान में जासूसी नॉवेलों की नींव रखी। इब्न-ए-सफी ने माना था कि उनके शुरुआती नॉवेलों पर अंग्रेजी उपन्यासों का असर था। सफी के अनुसार उन्होंने प्लॉट भले ही विदेशी उपन्यासों से लिये थे लेकिन उनका अस्थि-पंजर बिल्कुल देसी था। ज़ियाउद्दीन सरदार के अनुसार सफी के लेखन पर मध्यकालीन क्लासिक दास्तान-ए-अमीर हमज़ा और तलिस्म-ए-होशरुबा का भी असर था। विदेशों लेखकों में सफी अगाथा क्रिस्टी, जेम्स हेडली चेईस और एलिस्टेयर मैक्लीन को बहुत शौक से पढ़ते थे। अगाथा क्रिस्टी के नॉवेल "मर्डर ऑन द ओरिएंट एक्सप्रेस" और "डेथ ऑन द नील" सफी को बेहद पसन्द थे।
जब इब्न-ए-सफी ने जासूसी की और मुँह की खायी-
जासूसी उपन्यासों के सिरमौर लेखक इब्न-ए-सफी ने एक बार खुद भी जासूसी करने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें मुँह की खानी पड़ी थी। पाकिस्तानी रेडियो को दिये एक इंटरव्यू में सफी ने ये पूरा वाक़्या बताया था। हुआ यूं कि इब्न-ए-सफी के घर कुछ मेहमान आये हुए थे। इसी बीच एक रात उनका यहां चोरी हो गयी। चोर सफी के कमरे से एक सूटकेस चुरा ले गये। अगले दिन सूटकेस उनके घर के करीब स्थित नाले के पास मिला। सूटकेस में सारा कैश वगैरह गायब हो गया थी। उस सूटकेस में उसी दिन के तारीख की कपड़े के लॉन्ड्री की एक रसीद मिली। रसीद पर नाम के बजाय नम्बर लिखा था। उन्होंने पहले घरवालों से पता किया कि घर से किसी ने कपड़ा धुलने को तो नहीं दिया था। जब सफी इस बात से आश्वस्त हो गये कि घर के किसी सदस्य ने कपड़े धुलने को नहीं दिये तो उन्हें लगा कि यह रसीद ग़लती से चोर की जेब से गिर गयी होगी। सफी को लगा कि उन्हें बड़ा सुराग मिल गया है और वो लॉन्ड्री की रसीद के दम पर चोर को पकड़वा सकते हैं। सफी लॉन्ड्री की रसीद लेकर पुलिस के पास पहुँचे। शाम को उस लॉन्ड्री वाले के पास पुलिस सादे वर्दी में तैनात हो गयी।
शाम को एक शख्स लॉन्ड्री वाले के पास पहुँचा और दुकानदार से कहा कि उसकी रसीद गुम हो गयी है लेकिन उसे रसीद का नम्बर याद है जो "नौ" है। पुलिस ने तुरन्त ही उस आदमी को गिरफ्तार कर लिया। जब शिनाख्त के लिए इब्न-ए-इंशा को बुलाया गया तो वो यह देखकर हैरान रह गये कि पुलिस ने उनके ही एक मेहमान को पकड़ लिया है। चोर उस मेहमान की जैकेट भी चुरे ले गये थे। जैकेट की जेब में लॉन्ड्री की रसीद थी जो खाली सूटकेस में मिली थी। इस तरह सफी का जासूसी का जाती तजुर्बा नाकामयाब रहा।
सुनें इब्न-ए-सफी का एक आर्काइव इंटरव्यू-
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