पर्यावरण जैसी कोई चीज नहीं होती है, अपनी परेशानियों के लिए इंसान खुद जिम्मेदार: सद्गुरु
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: September 7, 2020 11:56 AM2020-09-07T11:56:32+5:302020-09-07T11:56:32+5:30
लोकमत मीडिया के चेयरमैन विजय दर्डा ने धर्म से लेकर विदर्भ के किसानों की व्यथा और समाधान, युवाओं में नाराजगी, बढ़ती आबादी, कोविड-19 से उपजी हताशा, जैसे मुद्दों पर ‘सद्गुरु’ जग्गी वासुदेवजी से खुलकर बातचीत की. पढ़िए इस पूरी बातचीत के अंश
ईशा फाउंडेशन नामक लाभरहित मानव सेवी संस्थान के संस्थापक ‘सद्गुरु’ जग्गी वासुदेवजी के साथ लोकमत मीडिया के चेयरमैन विजय दर्डा ने फेसबुक लाइव पर गुरुवार को पर्यावरण, धर्म से लेकर विदर्भ के किसानों की व्यथा की वजह और समाधान, युवाओं में नाराजगी, बढ़ती आबादी, कोविड-19 से उपजी हताशा, महिलाओं पर अत्याचार जैसे अनेक ज्वलंत मुद्दों पर खुलकर बातचीत की.
ईशा फाउंडेशन भारत सहित संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, लेबनान, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया में योग कार्यक्रम सिखाता है. साथ ही साथ कई सामाजिक और सामुदायिक विकास योजनाओं पर भी काम करता है. सद्गुरु से विजय दर्डा की लंबी बातचीत के प्रमुख अंश यहां पेश हैं...
विजय दर्डा- मैं बहुत खुश हूं कि मुझे आपके जन्मदिन पर आपको शुभकामनाएं देने का मौका मिला है.
सद्गुरु-(हंसते हुए) वो अभी आया नहीं.
विजय दर्डा-मैं वाकई बहुत खुश हूं कि मुझे यह मौका मिला है और मैं भगवान से आपकी लंबी आयु के लिए प्रार्थना करता हूं. ईश्वर आपको अच्छा स्वास्थ्य और खुशी दे. और आपके आशीर्वाद से ये दुनिया बदले.
सद्गुरु-नमस्कार.
दर्डा- सद्गुरु आज हम सचेतन विश्व के बारे में बात करने जा रहे हैं. इंसान ने प्रकृति को इतना नुकसान पहुंचाया है कि उसकी भरपाई असंभव है. पेड़ काट डाले गए हैं, जंगल नष्ट कर दिए गए हैं. वन्यजीवन खतरे में है.
पहाड़ों को भी खोद डाला गया है और नदियों का मार्ग भी बदल दिया गया है. कई नदियां लुप्त भी हो गई हैं. 18 साल तक संसद का सदस्य रहने के दौरान मैं इन मुद्दों को, पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को राज्यसभा में उठाता रहा हूं. पर्यावरण की कमेटी में होने से मैंने नीतियों को बनाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. और अब हम इस खतरनाक वायरस का सामना कर रहे हैं.
महाराष्ट्र के सबसे बड़े न्यूजपेपर ग्रुप लोकमत मीडिया के चेयरमैन के रूप में मैं लोगों को जागरूक करने के लिए पर्यावरण पर लगातार लिखता रहा हूं. जनहित के मुद्दों को समर्थन देने की विरासत मुझे अपने पिता जवाहरलाल दर्डा से मिली. मैं जैन धर्म का अनुयायी हूं और भगवान महावीर उन पहली पवित्र आत्माओं में से थे, जिन्होंने पर्यावरण की बात की थी. जैन शिक्षाएं पर्यावरण के संरक्षण की जरूरत पर जोर देती हैं.
जैन धर्म में एक फूल तक तोड़ना मना है और हमारा धर्म हम सबको पानी बचाने और जीवन के विभिन्न रूपों की कदर करने की प्रेरणा देता है. एक चींटी को भी मारना बहुत बड़ा पाप है. लेकिन आज धर्म के नाम पर दुनियाभर में अत्याचार हो रहे हैं. हिंसा के इस वातावरण से महिलाएं सबसे ज्यादा प्रभावित हो रही हैं. और मैं हमेशा ऐसे महत्वपूर्ण विषयों पर भी लिखता रहता हूं.
दुनिया हर किसी के लिए एक बेहतर जगह बन जाए. सद्गुरु मेरे मन में बहुत से मुद्दे हैं, तो सद्गुरु एक आध्यात्मिक गुरु पर्यावरण के मुद्दे को क्यों उठा रहे हैं? क्या पर्यावरण और आध्यात्मिकता साथ-साथ रह सकते हैं?
सद्गुरु- पर्यावरण जैसी कोई चीज नहीं होती. ये पूरा आधुनिक शिक्षा प्रणाली का संकुचित दृष्टिकोण है, जहां आप दुनिया को कई टुकड़ों में देखने की कोशिश कर रहे हैं. वरना पर्यावरण जैसी कोई चीज नहीं है. आज आधुनिक विज्ञान भी इस पर आ रहा है क्योंकि पूरी वैज्ञानिक सोच और शिक्षा मोटे तौर पर बुद्धि पर आधारित है. अगर मैं आपसे एक सवाल पूछूं कि आप अपनी बुद्धि को धारदार रखेंगे या बिना धार के, जवाब क्या होगा? विजय...
दर्डा-धारदार
सद्गुरु- धारदार. है न. तो बुद्धि एक छुरी की ही तरह है, जितनी पैनी हो उतनी अच्छी है. आप क्या कर सकते हैं? आप छुरी से सिर्फकाट सकते हैं. आप अपने कपड़े छुरी से सीने की कोशिश करेंगे तो ये तार-तार हो जाएंगे. दुनिया के साथ बस यही हो रहा है. हम जीवन के हर पहलू को अपनी बुद्धि से संभालने की कोशिश कर रहे हैं, यह सोचकर कि जीवन को संभालने का यही तरीका है. क्योंकि हमने शिक्षा प्रणाली को पश्चिम से उधार लिया है, पर्यावरण जैसी कोई चीज नहीं होती.
मैं जैसी भी कोई चीज नहीं होती. क्योंकि आप जिस शरीर में हैं वह वही मिट्टी है जिस पर आप चलते हैं. अगर आपको अभी इस बात का अहसास हो जाता है तो आप एक तरह से काम करेंगे, आप एक तरह से जीवन जिएंगे. वरना एक दिन जब हमें दफनाया जाएगा हम समझ जाएंगे कि हम धरती का एक हिस्सा हैं. जब आप जिंदा हैं तभी अगर आप इसे समझ जाते हैं तो स्वाभाविक रूप से आप उसके प्रति संवेदनशील हो जाएंगे, जो आपके जीवन का स्रोत है और वही आपका जीवन भी है.
मेरा जीवन जैसी कोई अलग इकाई नहीं होती. हमारा जीवन हर दूसरी चीज के साथ तालमेल में घटित हो रहा है. अभी हम वायरस को देख रहे हैं, लेकिन हमारे शरीर का 52 प्रतिशत से ज्यादा मुख्यतया सूक्ष्म जीवाणुओं से बना है. हमारा खुद का आनुवांशिक तत्व कम और सूक्ष्म जीवाणु ज्यादा हैं. तो मेरे और पर्यावरण जैसी चीज कहां रही? मैं पर्यावरण हूं, पर्यावरण मैं हूं. इन दोनों के बीच कोई अंतर नहीं है.
दर्डा-हां सद्गुरु. समय के साथ हमने आदमी और प्रकृति के बीच टकराव पैदा कर दिया है. इस कोरोना वायरस महामारी ने हमें धरती के साथ अधिक तालमेल में होना सिखाया है. इस सीख को कैसे और आगे ले जा सकते हैं? एक सचेतन विश्व की ओर काम कर सकते हैं?
सद्गुरु-देखिए, इस धरती पर एक ही समस्या है. वो है इंसान. मुझे बताइए क्या कोई दूसरी समस्या है ? अभी हमें लगता है कि वायरस समस्या है. नहीं, नहीं, नहीं, नहीं...सिर्फ एक ही समस्या है इंसान. इंसान के बारे में समस्या क्या है? इस पृथ्वी पर होने वाले क्रमिक विकास के पैमाने के संदर्भ में हम अभी सबसे ऊंचे स्तर पर हैं. लेकिन हमारी बुद्धिमत्ता, हमारी काबिलियत खुद हमारी ही खुशहाली के खिलाफ काम कर रही है.
हर जगह लोग तनाव और दबाव में हैं. तनाव, दबाव, दुख, डिप्रेशन आप इसे चाहे जो भी कहना चाहेंगे. अगर आपको बीमारी या चोट या रोग जैसी किसी चीज के कारण शारीरिक कष्ट होता है तो वह अलग बात है. लेकिन इंसान की 95 प्रतिशत पीड़ा मानसिक होती है. ये खुद ही पैदा की गई होती है. इसका मतलब है कि आपके पास एक पैनी छुरी है लेकिन आप नहीं जानते कि इसे कैसे पकड़ें. हर वक्त आप उसे खुद को ही चुभोते रहते हैं.
अगर आप एक जगह बैठकर दुखी हैं तो इसका मतलब है कि आपकी अपनी बुद्धि ही आपके दुख का आधार बन गई है. अगर हम आपका आधा भेजा निकाल लें तो आप शांत रहेंगे. आज दुर्भाग्य से ज्यादातर आध्यात्मिक शिक्षक भी यह कहते घूम रहे हैं कि मन की शांति ही आपके जीवन का अंतिम लक्ष्य है. ऐसे लोग केवल कब्र में शांति से आराम करेंगे क्योंकि शांति सबसे मौलिक चीज है.
अब शांति को चरम लक्ष्य बना दिया गया है. जो आपके जीवन की सबसे बुनियादी चीज होनी चाहिए थी. अगर आप सोचते हैं कि अक्षर अ वर्णमाला का आखिरी अक्षर है तो फिर समस्या है. है न? अब लोग कह रहे हैं कि शांति ही जीवन का चरम लक्ष्य है. ऐसा केवल इसलिए है क्योंकि हमारी शिक्षा प्रणाली में और आपकी सामाजिक संरचना में इस बारे में कोई जानकारी नहीं है.
ये समझने का कोई प्रयास नहीं किया जाता है कि अपने शरीर को, अपने मन को, अपनी बुद्धि को, अपनी भावनाओं को कैसे संभालें. हम सब दुनिया को जीतने में व्यस्त हैं. हम दूसरे ग्रहों को भी जीतना चाहते हैं. हम चांद पर जा रहे हैं, हम मंगल पर जा रहे हैं. लेकिन हम यहां पर कुछ भी नहीं जानते. हमारी यही समस्या है. क्योंकि हमारी शिक्षा प्रणाली जीतने के बारे में है. खुशहाली के बारे में नहीं. अनुभव की गहनता के बारे में नहीं.
दुनिया पर सकारात्मक प्रभाव डालने के बारे में नहीं. ये सिर्फ जीतने, जीतने और जीतने के बारे में है. इस वजह से सरल सी चीजें भी बहुत जटिल बन गई हैं.
पिछले 60-70 सालों में जैविक तत्व और कीड़ों की आबादी का 80 प्रतिशत खत्म हो गया है. रीढ़ वाले जीवों की 60 प्रतिशत आबादी खत्म हो चुकी है. और धरती पर मौजूद प्रजातियों का 20 प्रतिशत हिस्सा अभी विलुप्त होने के कगार पर है. और वे कह रहे हैं कि इस सदी के अंत तक इस धरती पर 50 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त होने का सामना करेंगी.
जब हम ये नहीं समझते कि हमारा जीवन यहां पर केवल इस धरती के हर दूसरे जीव के अनवरत कार्य की वजह से चल रहा है, जैसे सूक्ष्म जीवाणु से लेकर बैक्टीरिया, वायरस, कीडेÞ-मकोड़े, चिड़िया, जानवर, पेड़-पौधे, सभी लगातार काम कर रहे हैं, जिसकी वजह से हम जिंदा हैं.
ये समझना और इस अनुभव के आधार पर जानना बहुत महत्वपूर्ण है. लेकिन अब हम दूसरे जीवरूपों को विलुप्त होने की ओर धकेल रहे हैं. इसका मतलब है कि हमारी बुद्धि हमारे ही खिलाफ काम कर रही है. जब हमारी बुद्धि हमारे ही खिलाफ काम करती है तो दुनिया की कोई भी ताकत हमें नहीं बचा सकती. तो ये बहुत महत्वपूर्ण है कि हम लोगों की इस पीढ़ी को एक अधिक समग्र बुद्धिमत्ता वाला बनाएं. न कि एक ऐसी बुद्धि जो हर चीज को टुकड़ों में काट देती है.
इंसान अपनी बुद्धि को संभाल नहीं पा रहा है
विजय दर्डा- सद्गुरु, आपने इस बीच दो मुद्दे उठाए हैं. एक शांति और दूसरी शिक्षा. तो मैं जानना चाहता हूं कि किसी को शांति कैसे और कहां मिलती है? ये कैसे मिलती है? शांति लाना किसकी जिम्मेदारी है?
सद्गुरु- नहीं. आपको तनाव कैसे मिलता है? पहले ये बताइए.
दर्डा- देखिए. वो पाना आसान है, लेकिन शांति कहां से मिलती है? देखिए हमारे चारों तरफ तनाव है.
सद्गुरु-नहीं, नहीं चारों ओर तनाव नहीं है. बस इंसान अपनी बुद्धि को संभाल नहीं पा रहा है, जो दबाव और तनाव का कारण बन रहा है. अगर आप अपने मन का उपयोग करना जानते तो आप खुद के लिए खुशी पैदा करते या दुख? मान लीजिए कि आपकी दो उंगलियां बस उछलकर आपकी आंखों में घुसने लगें. तो इसका मतलब हम अपने हाथों का उपयोग करना नहीं जानते. है न? इसी तरह हम अपनी बुद्धि का उपयोग करना नहीं जानते. हमारी विकसित बुद्धि एक बड़ी समस्या बन गई है. अगर हमारे पास केंचुए का दिमाग होता तो हम भी शांत होते. मुझे बताइए बुद्धि समाधान है या समस्या?
दर्डा-बिलकुल, बुद्धि एक समाधान होना चाहिए. लेकिन ये एक समस्या बन गई है. इसका हल कैसे करें ये बहुत महत्वपूर्ण है.
सद्गुरु-इसकी वजह है कि हमारा पूरा रवैया केवल जीत हासिल करने का हो गया है...शिक्षा प्रणाली जीत हासिल करने के बारे में है. हम किंडरगार्टन से शुरू हो जाते हैं कौन फर्स्ट आया, कौन सेकंड आया. एक पांच साल के बच्चे से कहा जाता है कि तुमको कक्षा में बाकी सबसे ऊपर होना चाहिए. तुम टॉपर हो या नहीं. टॉपर का मतलब क्या है? ये कि स्कूल में हर दूसरे बच्चे को आपसे नीचे होना चाहिए. इस रवैये के साथ हम दुख पाएंगे.
दर्डा-हमें सिखाया गया है कि हमें सबसे बेहतर होना चाहिए. आपको ज्यादा से ज्यादा नंबर मिलने चाहिए. लेकिन वो मूल्यों की बात नहीं करते. वे जीवन मूल्यों की बात नहीं करते. वे सामाजिक मूल्यों की बात करते हैं. वे परिवार के मूल्यों की बात ही नहीं करते हैं. वे बस यही सिखाते हैं कि नंबर हासिल करो.
सद्गुरु-नहीं. वो बाद की बात है. सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात यह है कि एक इंसान के रूप में आपके हाथ हैं, पैर हैं, दिमाग है. आपको पता होना चाहिए कि इसका उपयोग अपनी भलाई के लिए कैसे करें. है न? अगर आपका हाथ आपके चेहरे पर मारना शुरू कर दे तो क्या यह भलाई है? इसी तरह अगर आपका दिमाग आपको पीटने लगता है तो आप इसे तनाव, चिंता, ये वो कुछ भी कह सकते हैं, लेकिन मूल रूप से दिमाग आपको मार रहा है. है न?
दर्डा-तो सद्गुरु, देखिए इतनी आबादी के साथ इस देश की लगभग 80 प्रतिशत आबादी दो समय के भोजन और पानी के लिए लड़ रही है.
सद्गुरु-वो भी एक समस्या है. 1947 में हम 33 करोड़ लोग थे. आज हम 125 करोड़ हैं. हम 74 साल में चार गुना क्यों हो गए? ठीक है औसत आयु बढ़ गई है, जो अच्छी बात है. 1947 में 28 साल की औसत उम्र से आज 72 या 73 पर आ गए हैं जो एक राष्ट्र के लिए शानदार उपलब्धि है. मैं कोई फिलॉसफी नहीं बता रहा हूं, क्या यह समझना सरल सा गणित नहीं है कि अगर मैं अपनी मृत्यु को टालता हूं तो मुझे अपना जन्म भी टालना होगा.
दर्डा-सद्गुरु, पूरे महाराष्ट्र और विशेष रूप से विदर्भ में किसानों की आत्महत्या की बढ़ती संख्या से वहां भारी दुख है. किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए महाराष्ट्र के लोग क्या कर सकते हैं?
सद्गुरु-सबसे पहले, मैं बुनियादी पहलू पर बात करूंगा. विदर्भ क्षेत्र एक बेसाल्ट क्षेत्र है. तो ये केवल कुछ प्रकार के पेड़ों और पौधों के लिए ठीक है. ये एक ही फसल वाली खेती के लिए ठीक नहीं है. पर हम वही करने की कोशिश कर रहे हैं. तो किसान दुखी है क्योंकि वह उस जमीन में पैसे लगाता है जहां आसानी से पैदावार नहीं होगी. और वह साल-दर-साल पैसा खोता जाता है. और वो इतना हताश हो जाता है कि फिर आत्महत्या ही एक दुर्भाग्यपूर्ण तरीका बचता है. और दुर्भाग्य से यह यवतमाल क्षेत्र देश की आत्महत्या राजधानी बन गया है. तो इसीलिए हम वहां गए. मुझे 100 प्रतिशत यकीन है हम इस प्रक्रिया को बदल देंगे. पिछले छह या आठ महीनों में मुझे नहीं लगता है कि उस क्षेत्र में एक भी आत्महत्या हुई है. हमारे स्वयंसेवक हर परिवार के साथ फोन पर जुड़े हुए हैं. कम से कम एक भावनात्मक शक्ति और प्रेरणा मौजूद है, ताकि वे लगे रहें.
दर्डा-पर, जलवायु वाकई उन्हें बहुत परेशान कर रही है.
सद्गुरु-नहीं, असल वजह है मिट्टी की क्वालिटी. वो बेसाल्ट है, तो लोग बेसाल्ट क्षेत्र में खेती क्यों कर रहे हैं? केवल इसलिए कि जनसंख्या का दबाव ही ऐसा है. अगर हम जनसंख्या के दबाव के बारे में कुछ नहीं करते तो लोग स्वाभाविक रूप से अनउपजाऊ मिट्टी में खेती करने की कोशिश करते हैं. जब आप अनउपजाऊ मिट्टी में खेती करते हैं तो हताश हो जाएंगे. बैंक लोन लेते हैं, वे पैसे लगाते हैं और वापस भुगतान नहीं कर पाते हैं और वो मुसीबत में आ जाते हैं. फिर वो साहूकारों के पास जाकर ज्यादा दबाव में आ जाते हैं. असली समस्या है कि मिट्टी उपजाऊ नहीं है.
इसे उपजाऊ बनाना चाहते हैं तो पर्याप्त मात्रा में हरियाली चाहिए. मिट्टी में जैविक पदार्थ डाले बिना यह उपजाऊ नहीं बनेगी. जैविक पदार्थ सिर्फ दो स्रोतों से आ सकते हैं. एक है पेड़ों का हरा कूड़ा, दूसरा है पशु का गोबर. पेड़ बहुत पहले कट गए. सारे पशु अब विदेश जा रहे हैं. वे अब खेत पर नहीं हैं. तो मिट्टी को उपजाऊ बनाने का कोई तरीका नहीं है. ऐसा केवल यवतमाल में नहीं है. यह स्थिति देश के कई हिस्सों में बढ़ेगी. क्योंकि भारत की 52 प्रतिशत मिट्टी को खराब मिट्टी घोषित कर दिया गया है.
लगभग 40 प्रतिशत मिट्टी को बंजर घोषित कर दिया गया है. अगर इसे पलटना चाहते हैं तो यह बहुत महत्वपूर्ण है कि पेड़ लगाना खेती का एक हिस्सा बन जाए. कावेरी घाटी में पिछले 50 सालों में 82 प्रतिशत हरियाली हटा दी गई है. गंगा घाटी में जो भारत के भूगोल का 25 प्रतिशत है, हमने 90 प्रतिशत से अधिक हरियाली हटा दी है. अब सरकार इस पर सहमत है कि नदियों को पुनर्जीवित करने का एक तरीका है नदी की घाटी में वापस पेड़ लगाना.
विजय दर्डा-क्या आपने सरकार को मना लिया है?
सद्गुरु-हां, अब ये नीति में शामिल हो चुका है क्योंकि नदी अभियान की मीटिंग यही थी. और अब उन्होंने इसे आधिकारिक नीति बना दिया है.
दर्डा- बहुत बढ़िया. सरकार को मनाना आसान काम नहीं है.
सद्गुरु-सरकार मान गई क्योंकि लोग मान गए थे. जब मैंने नदी अभियान आंदोलन किया तो आंदोलन में 16.2 करोड़ लोगों ने भाग लिया. जब उन्होंने इस तरह की संख्याएं देखीं तो उन्होंने सभी 28 राज्यों के लिए इसे आॅफीशियल नीतिगत सिफारिश बना दिया है. कुछ राज्य सक्रिय रूप से आगे बढ़ रहे हैं. दुर्भाग्य से वायरस की वजह से रफ्तार धीमी हो गई है.
30 वर्षों में भारत की 52 प्रतिशत भूमि रेगिस्तान बन सकती है
दर्डा-सद्गुरु, नदी अभियान और कावेरी पुकारे अभियान से आप पूरी दुनिया का ध्यान भारत की सूखती नदियों की तरफ दिला रहे हैं. इसमें सरकार की क्या भूमिका होनी चाहिए?
सद्गुरु-जैसा कि मैंने पहले कहा था, देखिए कर्नाटक सरकार ने कुछ आक्रामक कदम उठाए हैं. बहुत ही सक्रिय कदम.
दर्डा-सद्गुरु, मैंने देखा है आप कर्नाटक सरकार के बारे में बात करते रहे हैं. आपको लगता है कि महाराष्ट्र सरकार इस दिशा में काम नहीं कर रही है?
सद्गुरु-मैं उस पर आऊंगा. महाराष्ट्र सरकार ने बहुत सारे पेड़ लगाए हैं. उन्होंने लगभग 50 करोड़ पेड़ लगाए हैं. मैं यह कहना चाहता हूं कि 84 प्रतिशत भूमि किसानों के हाथ में है. वहां पेड़ लगने चाहिए. पेड़ वहां तभी लग सकते हैं जब ये उसके लिए व्यावसायिक रूप से सफल हो. तो हम इस दिशा में काम करते रहे हैं. एक बात है, कृषि उत्पादक कंपनियों पर लगने वाला टैक्स हटाना अच्छा कदम है, जो सरकार ने लगभग दो साल पहले कर दिया है. एक और बात सब्सिडी देने की है, जो अभी केवल कर्नाटक और उत्तर पूर्वी राज्यों ने किया है. लेकिन दूसरे राज्यों को यह करना अभी बाकी है. महाराष्ट्र में जो महत्वपूर्ण काम किया गया है कि उन्होंने यवतमाल के लिए एक विशेष प्रयोजन वाहन (स्पेशल पर्पज व्हीकल) का गठन किया है, जो इसे करने का सही तरीका है. इन विशेष प्रयोजन के वाहनों के बिना सरकार के 12 विभिन्न मंत्रालयों के साथ काम नहीं कर सकते. एक अच्छे अधिकारी के साथ यह विशेष प्रयोजन वाहन जादू करेगा.
दर्डा-हमने सुना है कि आपने महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट में बड़े पैमाने पर यात्रा की है. उस घाट में आपका पसंदीदा स्थान कौन सा है?
सद्गुरु-(हंसते हुए) मैंने घाटों पर बहुत समय बिताया है. एक चीज है मोटर साइकिल चलाना दूसरी चीज है ट्रैकिंग...
दर्डा-ट्रैकिंग?
सद्गुरु-हां. बहुत ट्रैकिंग. मैं पश्चिमी घाट के कर्नाटक भाग में लगभग सभी चोटियों पर चढ़ चुका हूं. मुझे एक से ज्यादा बार वापस बुलाने वाला स्थान है गोरखनाथ गुफाएं. वहां मैंने कुछ समय बिताया है. और मैंने यात्राएं की हैं. गोवा से कन्याकुमारी तक मोटरसाइकिल पर. 11 बार ऊपर से नीचे और वापस. तो...
दर्डा-क्या आप चाहेंगे कि कोई भी जगह जो आपकी पसंद हो, जो आपके लिए विशेष हो?
सद्गुरु-अभी हम चाहते हैं कि लोणावला के पास एक जगह स्थापित करें. पुणे के करीब. लेकिन लोणावला से थोड़ी दूर. पुणे की ओर. हम एक केंद्र स्थापित करने की योजना बना रहे हैं. लेकिन हमें देखना होगा भूमि और दूसरी चीजें एक साथ मिलना जरूरी है, हमें आप जैसे लोगों से मदद की जरूरत है. क्योंकि हमारे पास महाराष्ट्र में जमीन के सौदे करने के उपाय नहीं हैं.
दर्डा-हम हमेशा आपके साथ हैं क्योंकि आप जबर्दस्त काम कर रहे हैं. मेरा मतलब आप हर राज्य को प्रेरणा दे रहे हैं, मुझे कहना चाहिए. सद्गुरु मेरे मन में एक सवाल है कि शिरडी सार्इंबाबा की समाधि का आशीर्वाद लेने के लिए हर साल लाखों भक्त शिरडी आते हैं. क्या आप इसका आध्यात्मिक महत्व बता सकते हैं?
सद्गुरु-मुझे लगता है वे संत सभी को प्रेरित करते हैं. मैं वहां नहीं गया हूं क्योंकि मैं लोकप्रिय मंदिरों में नहीं जाता हूं. आमतौर पर मैं नहीं जाता. मुझे लगता है कि ये उस एक आदमी की प्रेरणा है जिसने पीढ़ियों तक लोगों को जागरूक रखा है. और उनकी कृपा और आशीर्वाद ने कई लोगों का पोषण किया है. तो ये...ये एक व्यक्ति की शक्ति है, जब वह कुछ सीमाओं को पार करता है तो वो लाखों लोगों के जीवन को स्पर्श कर सकता है. यही अद्भुत है.
दर्डा-सद्गुरु, क्या आप सोचते हैं मीडिया आपके प्रोजेक्ट में कैसे मदद कर सकता है?
सद्गुरु-महाराष्ट्र में निश्चित रूप से हमें हरसंभव मदद की जरूरत है. क्योंकि...
दर्डा-मैं आपके साथ हूं.
सद्गुरु-देखिए लोगों की भागीदारी के बिना आप ऐसे प्रोजेक्ट को सफल नहीं बना सकते. ये सिर्फ एक सरकार द्वारा नहीं किया जा सकता. क्योंकि इसके लिए लोगों के साथ काम करना जरूरी है. चीजों को करने के एक तरीके को दूसरे में बदलना नीतियों को बदलने से नहीं होगा. नीतिगत बदलाव हम लाए हैं. हमें एपीएमसी एक्ट में छूट मिली. अब किसान अपनी उपज को जहां चाहे बेच सकता है. लकड़ी के कानून बदले गए जो मौजूद थे.
देखें देश में कानून ऐसे थे कि अगर आप अपनी जमीन में एक पेड़ उगाते हैं और आप इसे जरूरत पड़ने पर इसे काटते हैं आप गिरफ्तार हो सकते हैं. ये कानून था. तो अब हमें यह सुकून मिल गया है कि अगर आप अपनी भूमि में पेड़ उगाते हैं तो आप इसे काट सकते हैं और देशभर में पहुंचा सकते हैं. केवल अब...लगभग 20 या 25 दिन पहले इस कानून में ढील दी गई है. अब आप देश के किसी भी हिस्से से लकड़ी कहीं भी ले जा सकते हैं. ये बहुत महत्वपूर्ण है और अब पर्यावरण मंत्रालय ने एक डिजिटल प्लेटफॉर्म बनाया है, जहां आप अपनी लकड़ी को बेच सकते हैं. इन अड़चनों को हटाना बहुत महत्वपूर्ण था.
दर्डा-तो आप सुझाव देते हैं किसान को अपने खेत में लकड़ी या बांस जैसे पेड़ उगाने चाहिए?
सद्गुरु- यह केवल पेड़ बढ़ाने की बात नहीं है. अब आप बीच की जगह में फसल उगा सकते हैं तो जब आपकी फसल को सूर्य के प्रकाश की जरूरत होती है तो आप पेड़ों को छांट देते हैं ताकि रोशनी सीधी जाए. ताकि सूरज की रोशनी फसलों पर पड़े. जब फसलों को धूप की जरूरत न हो तो आप पेड़ों को बढ़ने देते हैं. जितना ज्यादा आप इसे छांटते हैं उतना ही लंबा यह हो जाता है, क्योंकि यह पेड़ की प्रकृति है. तो एक किसान का इससे क्या होगा...देखिए अभी 63,000 करोड़ रु. से ज्यादा की लकड़ी का देश में आयात हो रहा है.
देश में 112 करोड़ रु . से अधिक के लकड़ी के उत्पाद आ रहे हैं. तो किसान को लाभ क्यों नहीं होना चाहिए? अभी अगर आप दिल्ली से चेन्नई तक हवाई जहाज की सवारी करते हैं... अगर आप हर पांच मिनट में नीचे देखते हैं...पश्चिमी घाट को छोड़ सबकुछ भूरे रेगिस्तान सा दिखता है. कहीं भी पेड़ नहीं है. पहले मानसून की बारिश 75 से 140 दिनों के बीच होती थी. आज 40 से 80 दिन के बीच हो रही है. पानी की समान मात्रा बारिश के रूप में आ रही है. पर कम समय में नीचे आ रही है. इस वजह से हर साल बाढ़ आती है. पानी पृथ्वी में घुसना चाहिए, पर यह सतह पर बह रहा है. भूमि पर पर्याप्त पेड़ होने चाहिए. वरना पानी जमीन में नहीं जाएगा. ये सतह पर बहेगा.
आपको झुकना और मुड़ना है, इसमें आपका धर्म कहां आता है
दर्डा-सद्गुरु, मैं युवाओं के बारे में सवाल पूछना चाहता हूं. क्योंकि मैं हर जगह देखता हूं कि वे बहुत ज्यादा निराश हैैं. उनके पास नौकरी नहीं है, अगर नौकरी थी तो उन्होंने इस कोविड-19 के चक्कर में अपनी नौकरी खो दी. तो ये हताशा हिंसा की ओर जा रही है और मैं ये भी देख रहा हूं कि बहुत सारी घरेलू हिंसा भी इसी वजह से होती है. तो आप युवाओं को क्या सुझाव देंगे? क्या सीख देंगे? आप उन्हें क्या संदेश देना चाहेंगे?
सद्गुरु-घर से काम करने के कारण घर की स्थिति खराब हो रही है. देखिए हम पश्चिमी समाजों से इसे उठा रहे हैं कि जीवन केवल मेरे, मेरे और मेरे बारे में बनकर रह गया है. भारत की संस्कृति की प्रकृति ये है कि ‘हमारी’ प्रतिबद्धता हमेशा ‘मुझ’ से बड़ी होती है. अगर युवा सही तरीके से संवाद करने की क्षमता का उपयोग करते हैं. सही अर्थों में कि यह उन्हें और यह बाकी हर किसी को भी फायदा पहुंचाए तो ये तकनीक सबसे बड़ी संभावना हो सकती है. क्योंकि इससे पहले कभी भी हम पूरी दुनिया तक अपनी बात इस तरह से नहीं पहुंचा सकते थे, जैसा हम आज कर सकते हैं. देखिए, आप अभी नागपुर में बैठे हैं ,मैं टेनिसी में बैठा हूं, लेकिन हम बात कर पा रहे हैं. ऐसा कब संभव था. तो इस समय अगर आप सही विचारों, सही मानसिकता, जीवन को देखने का सही तरीका नहीं फैलाते हैं तो हम इसे एक आपदा बना देंगे.
सोशल मीडिया वगैरह के रूप में जो कुछ चल रहा है वह काफी गति से भागती गाड़ी की तरह है. ये बस बिना किसी दिशा में भाग रहा है. और पर्दे के पीछे से हर तरह के लोग इसे कई अलग-अलग तरह से नियंत्रित कर रहे हैं. तो मैं युवाओं के बारे में कहना चाहूंगा कि उन्हें समझना होगा कि उनकी खुशहाली हर दूसरे जीवन की खुशहाली से अलग नहीं है. चाहे वह कोई दूसरा इंसान हो या कोई दूसरा जीवरूप जैसे एक कीड़ा, पक्षी, जानवर या पेड़. जीवन में संतुलन लाने के लिए जरूरी अभ्यास, जरूरी रवैया और जरूरी पालन-पोषण बिलकुल गायब हैं. बिलकुल गायब. अगर आप कहते हैं कि स्कूल में एक सरल सा योग करें तो धार्मिक मामले सामने आ जाएंगे. आपको झुकना और मुड़ना है, इसमें आपका धर्म कहां आता है, बताइए?
आपके धर्म का उद्देश्य अकड़ जाना है. नहीं. आप जिस धर्म का चाहें उसका पालन करें या अगर आप चाहें तो किसी भी धर्म का पालन न करें. जरूरी बात यह है कि एक इंसान के रूप एक जीवन के रूप में आपको खुशहाली के चरम पर होना चाहिए. विजयजी कृपया बताइए कि आप और हर वो व्यक्ति जिसके साथ आप काम करते हैं, क्या यह सच है कि जब कोई व्यक्ति बहुत खुश होता है तो वह अपना सर्वश्रेष्ठ करते हैं? जब आप खुश होते हैं तो आप अपना सर्वश्रेष्ठ करते हैं? जब आप दुखी होते हैं तो आप सबसे बुरा करते हैं.
दर्डा- बिलकुल...बिलकुल
सद्गुरु-तो हमने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया है कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पूरी भारतीय आध्यात्मिक प्रक्रि या, भारत की भूमि हमेशा आनंद पर केंद्रित रही है. इसका मतलब है कि आपको आनंदित होना चाहिए. अगर आप आनंदित हैं तो आप स्वाभाविक रूप से अपना सर्वश्रेष्ठ करेंगे. अगर आप दुखी हैं तो आप स्वाभाविक रूप से सबसे बुरा करते हैं. तो हम समाज को नैतिकता के साथ, मूल्य के साथ, हर तरह के मूर्खतापूर्ण सदाचार के साथ, नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं. नहीं. जरूरत इस चीज की है कि एक इंसान को अद्भुत महसूस करना चाहिए.
दर्डा- हां. हां. बिलकुल सही, लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि हमें अधिक और अधिक बातचीत इस पीढ़ी के साथ, और अधिक संवाद की जरूरत है. सद्गुरुजी आखिरी सवाल, केवल आखिरी सवाल...
सद्गुरु-मुझे आपको यह बताना होगा कि अभी हमने हमारे इनर इंजीनियरिंग कार्यक्र म का भी मराठी में अनुवाद या डबिंग की है. तो जो लोग अंग्रेजी नहीं समझते वे भी इसमें भाग ले सकते हैं.
दर्डा-सच में बधाई हो. बधाइयां, आपको बहुत-बहुत धन्यवाद. इससे पहले कि मैं इस सत्र का अंत करूं, एक सवाल जो मेरे दिमाग में काफी गहरा है. इस दुनिया की महिलाएं सबसे ज्यादा पीड़ित हैं. उन्हें पीड़ा में देखना मेरे लिए असहनीय है. मेरा मतलब है कि जब मैं धर्म के बारे में पढ़ता हूं, जब मैं अलग-अलग देशों को देखता हूं, इस धर्म के देशों के अलग-अलग हिस्से हैं तो सबसे अधिक दुख और तकलीफ महिलाओं को ही मिल रही है. सद्गुरुजी इस बारे में आप क्या कहेंगे?
सद्गुरु-हां. दुर्भाग्य से ऐसा है. लेकिन एक बुनियादी अर्थ में समस्या केवल महिलाओं के बारे में नहीं है. समस्या यह है कि जो कोई भी शारीरिक रूप से हमसे कमजोर है, हम उसे कुचलना चाहते हैं. दुर्भाग्य से महिलाएं शारीरिक रूप से थोड़ी कमजोर होती हैं. हालांकि उनके बिना हम पैदा भी नहीं हो सकते. इसके बावजूद चूंकि वे शारीरिक रूप से कमजोर हैं, दुर्भाग्य से हम उन्हें कुचलने की कोशिश करते हैं. तो ये केवल महिलाओं के बारे में नहीं है. हमें समझना होगा कि हमें अपने भीतर एक विकास की जरूरत है कि अगर आप कुछ ऐसा देखते हैं कि जो आपसे कमजोर है तो आप उसे पोषित करके ताकतवर बनाएंगे. उसे कुचलेंगे नहीं. इस मौलिक चेतना को आना होगा. तो केवल महिलाएं ही नहीं, कीड़े चिल्ला रहे हैं कि उनका सबसे अधिक शोषण हो रहा है.
दुर्भाग्य से इंसान इस ‘मोड’ में है जो भी हमसे थोड़ा कमजोर है हम उसे कुचलना चाहते हैं. भले ही वो हमारी प्रजाति का हो, हम उसे कुचलना चाहते हैं. जिस भी चीज पर हम हावी हो सकते हैं और काबू कर सकते हैं और उसे अर्थहीन बना सकते हैं...दुर्भाग्य से हम उस ‘मोड’ में हैं. इसके लिए जो आवश्यक है वो है चेतना...क्योंकि चेतना का मतलब है कि आपकी पहचान आपकी भौतिक प्रकृति से नहीं है, आपकी पहचान उससे कहीं बड़ी है. आपका अनुभव आपके शारीरिक स्वरूप के मुकाबले कहीं ज्यादा बड़ा है.
एक बार ऐसा हो गया फिर किसी महिला या किसी और जीवन को नियंत्रित करने या कुचलने की जरूरत चली जाएगी. यही वजह है कि हमें एक सचेतन विश्व की जरूरत है. एक सचेतन विश्व बनाने के इस प्रयास में हम दुनियाभर में एक बड़ा वैश्विक आंदोलन शुरू कर रहे हैं, ताकि दुनिया की आबादी के कम से कम 60 प्रतिशत लोगों को शामिल किया जा सके. हम दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी को शामिल करना चाहते हैं. कम से कम. क्योंकि जब लोग साथ होंगे तो सभी लोकतांत्रिक सरकारें इस पर ध्यान केंद्रित करेंगी. इसका एक नतीजा होगा पर्यावरण का कल्याण.
अगर इंसान वास्तव में जागरूक हो जाए तो हावी होने की जरूरत, टकराव की जरूरत, लड़ाई की जरूरत, हिंसा की जरूरत आपके भीतर से चली जाएगी. हम सचेतन इंसानों और एक सचेतन विश्व का निर्माण करेंगे. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद विजय जी.
दर्डा-बहुत-बहुत धन्यवाद. मैं आपका बहुत आभारी हूं. मेरी तरफ से, महाराष्ट्र की तरफ से, 13 करोड़ की आबादी की तरफ से क्योंकि लोकमत उन सबका प्रतिनिधित्व करता है. और आपके जन्मदिन पर एक बार फिर हम आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाएं देते हैं. भगवान आपका भला करे और आप हमेशा उन सभी लोगों को आशीर्वाद देते रहें जो आपसे प्यार करते हैं.
सद्गुरु-मेरा आशीर्वाद आपके और महाराष्ट्र के लोगों के साथ है. खासकर वाघाड़ी के लोगों के साथ. मैं आने वाले सालों में कभी वाघाड़ी का दौरा करूंगा. और कृपया कभी ईशा योग केंद्र कोयम्बटूर आएं. आपको जरूर आना चाहिए.
दर्डा-मैं निश्चित रूप से आऊंगा. मैं बहुत जल्द आकर आपके साथ रहूंगा. जैसे ही यह खुलता है, लेकिन मैं यवतमाल आने के लिए आपको आमंत्रित करता हूं. और हम बहुत-बहुत खुश होंगे. बहुत-बहुत धन्यवाद गुरुजी. एक बार फिर से आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. नमस्कार, जयहिंद.
सद्गुरु-आपको और आपके परिवार को मेरा आशीर्वाद.
विजय दर्डा-आपका बहुत-बहुत धन्यवाद.