जन्मदिन विशेषः सुदामा पांडे 'धूमिल' का सफरनामा और मोचीराम का प्रजातंत्र

By आदित्य द्विवेदी | Published: November 9, 2018 08:58 AM2018-11-09T08:58:45+5:302018-11-09T16:22:15+5:30

सुदामा पांडे 'धूमिल' ने सिर्फ तीन कविता संग्रह ही लिखे लेकिन प्रजातांत्रिक व्यवस्था और देश की स्थितियों को नापने में सफल रहे हैं। हिंदी साहित्य में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। उनकी कविता 'मोचीराम' एक हस्ताक्षर है।

Birthday Special: Sudama Pandey 'Dhoomil' life journey and his poem Mochiram | जन्मदिन विशेषः सुदामा पांडे 'धूमिल' का सफरनामा और मोचीराम का प्रजातंत्र

सुदामा पांडे 'धूमिल'

आजादी के बाद के 15-20 सालों में देश अलग तरह की चुनौतियों से गुजर रहा था। अंग्रेज देश छोड़कर जा चुके थे। आजादी मिल चुकी थी लेकिन सामाजिक आजादी का सफर एक रात का नहीं होता। प्रजातंत्र आ चुका था लेकिन स्थिति डांवाडोल थी। ऐसे वक्त में सुदामा पांडे 'धूमिल' जैसे कवियों की भूमिका बहुत अहम हो जाती है। उनकी एक-एक कविता उस वक्त की स्थिति का हस्ताक्षर है। सुदामा पांडे 'धूमिल' ने सिर्फ तीन कविता संग्रह ही लिखे लेकिन प्रजातांत्रिक व्यवस्था और देश की स्थितियों को नापने में सफल रहे हैं। हिंदी साहित्य में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है।

सुदामा पांडेय 'धूमिल' का जन्म 9 नवंबर 1936 को वाराणसी के निकट गाँव खेवली में हुआ था। धूमिल के पिता शिवनायक पांडे एक मुनीम थे व इनकी माता रजवंती देवी घर-बार संभालती थी। जब धूमिल ग्यारह वर्ष के थे तो इनके पिता का देहांत हो गया। 12 वर्ष में ही धूमिल का विवाह हो गया। उनका बचपन कठिनाइयों भरा था इसके बावजूद उन्होंने हाईस्कूल उत्तीर्ण किया। काम के सिलसिले में वो कलकत्ता गए लेकिन उनके तेवरों ने वापस वाराणसी वापस आने पर मजबूर कर दिया। 

वापस आकर उन्होंने काशी विश्वविद्यालय के औद्योगिक संस्थान से डिप्लोमा किया और इसके बाद वहीं विद्युत अनुदेशक के पद पर तैनाती मिल गई। अक्टूबर 1974 में धूमिल के सिर में असहनीय दर्द उठा जिसके बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। ब्रेन ट्यूमर की सर्जरी के बाद वो दोबारा उठ नहीं सके और 10 फरवरी 1975 को काल के भाजक बने।

धूमिल के जन्मदिन पर पढ़िए उनकी चर्चित कविता मोचीराम। धूमिल ने जितना भी लेखन किया है उसका लेखा-जोखा ‘मोचीराम’ कविता में है और ‘मोचीराम’ कविता के आधार पर धूमिल की काव्य संवेदना पर प्रकाश डाला जा सकता है।

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मोचीराम

राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।

और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।

यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है।

‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो।’
आप यकीन करें,उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।

एक जूता और है जिससे पैर को
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है

‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है

अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।

मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है

और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है

सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है

और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है

जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है

कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

Web Title: Birthday Special: Sudama Pandey 'Dhoomil' life journey and his poem Mochiram

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