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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: काठ की हांडी फिर चढ़ाने की हो रही कवायद

By अभय कुमार दुबे | Updated: October 24, 2018 03:52 IST

क्या भागवत यह नहीं जानते होंगे कि वे यह सलाह देर से दे रहे हैं? उन जैसा राजनीतिक रूप से कुशल व्यक्ति यह समझने में गलती कर ही नहीं सकता। तो फिर क्या वे भाजपा के लिए राममंदिर मुद्दे को चुनावी रंग देने की पूर्व-पीठिका तैयार कर रहे हैं? 

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने आजकल कमाल कर रखा है। वे बार-बार जो भी बोलते हैं, वह राष्ट्रीय स्तर की सुखयों में प्रमुख स्थान पाता है। न केवल यह, बल्कि उनकी हैसियत चुनाव न लड़ने वाले (लेकिन लड़वाने वाले) एकमात्र ऐसे नेता की हो गई है जो अपने वक्तव्यों में पूरे राष्ट्र को संबोधित करता नजर आता है। 

संघ की बागडोर तो उनके हाथ में 2009 से है, लेकिन उनका यह संस्करण बिल्कुल नया है। इससे फूटने वाला आत्मविश्वास भी नया है, इसके रणनीतिक पहलू भी एकदम नवीन हैं और इसका प्रभाव भी ऐसा है जो पहले कभी नहीं था। 

परंतु, यह समझ में नहीं आता कि अपने इस सुनियोजित और सफल नवीकरण के बावजूद उन्होंने केंद्र सरकार को राममंदिर बनाने के लिए कानून बनाने का रास्ता अपनाने की सलाह क्यों दी? 

राजनीति की जरा सी भी जानकारी रखने वाला समझ सकता है कि भाजपा की सरकार यह सलाह मानने की स्थिति में है ही नहीं। हुआ भी यही, भाजपा ने साफ कह दिया कि मंदिर बनवाने के विधायी विकल्प पर वह सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से पहले गौर नहीं कर सकती। 

वस्तुस्थिति यह है कि मोदी की सरकार किसी भी परिस्थिति में इस विकल्प को नहीं अपना सकती। इसके लिए उसके पास समय ही नहीं बचा है। लोकसभा चुनाव के लिए करीब छह महीने ही बचे हैं, और चुनावी आचार संहिता की अवधि को घटा दिया जाए तो समय और भी कम रह जाता है। अगर भागवत कानून बना कर राममंदिर बनवाना चाहते थे, तो उन्हें यह सलाह कोई डेढ़ साल पहले देनी चाहिए थी। 

तब शायद मोदी सरकार उस पर गंभीरता से विचार कर सकती थी। आज तो स्थिति यह है कि अगर सरकार ने कानून बनाने हेतु विधेयक लाने की कोशिश की तो वह संसद में फंस जाएगा।

 राज्यसभा में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन उसके पास वहां पूर्ण बहुमत नहीं है। और, अगर अध्यादेश लाने की कोशिश की गई तो उसे अदालत में लाजिमी तौर पर चुनौती मिलने के बारे में कोई शक नहीं किया जा सकता। 

क्या भागवत यह नहीं जानते होंगे कि वे यह सलाह देर से दे रहे हैं? उन जैसा राजनीतिक रूप से कुशल व्यक्ति यह समझने में गलती कर ही नहीं सकता। तो फिर क्या वे भाजपा के लिए राममंदिर मुद्दे को चुनावी रंग देने की पूर्व-पीठिका तैयार कर रहे हैं? 

अगर यह अंदाजा सही है तो हमें यह सोचना होगा कि क्या राममंदिर का मुद्दा मोदी सरकार को राष्ट्रीय स्तर का वह उछाल दे सकता है जिसकी भाजपा और संघ के रणनीतिकार पिछले आठ-दस महीने से तलाश कर रहे हैं।

 कभी सर्जकिल स्ट्राइक की जयंती मनाई जाती है, और कभी असम नेशनल सिटिजनशिप रजिस्टर को चुनाव में उठाने का मंसूबा व्यक्त किया जाता है। फिर कुछ दिन बाद इस तरह की बातें भाजपा नेताओं और प्रवक्ताओं द्वारा करनी रोक दी जाती हैं। जाहिर है उन्हें लगता है कि बात चिपक नहीं रही है इसलिए वे किसी और मुद्दे को टटोलने लगते हैं।

 भागवत ने पिछले दो महीने में कम से कम छह बार राममंदिर का मुद्दा उठाया है। यानी, वे यह मानते हैं कि अगर मतदाताओं से दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के नाम पर वोट डालने की अपील करनी है तो वह राममंदिर पर ही करना उचित होगा। संभवत: इसीलिए वे भाजपा को अपने वक्तव्यों के जरिए यह संदेश देना चाह रहे हैं।  

अगर ऐसा हो तो भी सरसंघचालक की राजनीतिक-बुद्धि कुछ सवालिया निशानों का सामना करते हुए दिखती है। नब्बे के दशक में भाजपा का चुनावी उभार मुख्य तौर से रामजन्मभूमि आंदोलन के कारण ही हुआ था। अर्थात् राममंदिर एक ऐसी हांडी है जो एक बार चुनावी चूल्हे पर चढ़ चुकी है। 

क्या यह काठ की हांडी नहीं है- जो इसे भागवत द्वारा दोबारा चढ़ाने का सुझाव दिया जा रहा है? जिस समय इस मुद्दे का चुनावी फायदा हुआ था, उस समय इसके इर्दगिर्द जबर्दस्त रूप से टकराव की राजनीति हो रही थी। भाजपा उस समय हिंदुओं की एकमात्र प्रवक्ता बन कर उभरने की कोशिश कर रही थी, और बाकी पार्टयिों को इस क्षेत्र में उससे प्रतियोगिता करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उस समय वे ‘सेक्युलरवाद’ की नुमाइंदगी करना चाहती थीं। आज स्थिति विपरीत है। आज सेक्युलरवाद में किसी की दिलचस्पी नहीं बची है। सभी पार्टयिां हिंदू बहुसंख्या की नुमाइंदगी करना चाहती हैं। सभी नेता मंदिर और पूजा के जरिए राजनीति करना चाहते हैं। आज भाजपा उत्तरोत्तर हिंदुओं की ‘सोल स्पोक्समेन’ रहने की हैसियत से वंचित होती जा रही है।

 राममंदिर बनवाने के सवाल पर कोई टकराव नहीं है। उल्टे भाजपा से ही पूछा जा रहा है कि भाई चार साल से ज्यादा हो गए, मंदिर कब बनवाओगे? वोट तभी मिलते हैं जब टकराव होता है। इसीलिए भागवत और भाजपा को समझना चाहिए कि मंदिर का मुद्दा काठ की हांडी ही साबित होने  वाला है।  

टॅग्स :आरएसएसमोहन भागवत
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