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बच्चे के संरक्षण के लिए दायर की गई याचिकाओं में से 40-50 प्रतिशत “फर्जी” और “आडंबर युक्त”: न्यायाधीश

By भाषा | Updated: December 22, 2020 15:11 IST

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(उषा रानी दास)

नयी दिल्ली, 22 दिसंबर संबंध विच्छेद करने वाले दंपत्तियों की ओर से बच्चे के संरक्षण के लिए दायर की गई याचिकाओं में से 40-50 प्रतिशत याचिकाएं “फर्जी” और “आडंबर युक्त” होती हैं जिनका उद्देश्य बच्चों का हित नहीं बल्कि कोई छिपा हुआ एजेंडा होता है।

एक जिला न्यायाधीश ने अपनी पुस्तक में बताया है कि अलग होने वाले माता पिता की ओर से दायर ऐसी याचिकाओं से बच्चों की मनःस्थिति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे वह गहरे सदमे में चले जाते हैं और उन्हें समझ में नहीं आता कि क्या करें।

प्रधान जिला न्यायाधीश पूनम ए बाम्बा ने अपनी पुस्तक “पेरेंट्स एट वॉर- कस्टडी बैटल्स इन इंडियन कोर्ट्स” में अदालत के अपने अनुभवों के बारे में लिखा है जिसमें बच्चे के संरक्षण के लिए कानूनी लड़ाईयों का चित्रण है।

पीटीआई-भाषा को विशेष रूप से दिए गए साक्षात्कार में न्यायाधीश ने कहा कि बच्चे के संरक्षण के लिए दायर की गई फर्जी याचिकाएं, न्यायिक व्यवस्था के लिए बोझ हैं, बच्चों पर इनका विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा सभी पक्षों का समय और धन बर्बाद होता है।

उन्होंने कहा कि उनकी पुस्तक में उन बच्चों की पीड़ा को बाहर लाने का प्रयास किया गया है जिनके माता पिता उनके संरक्षण के अधिकार के लिए कानूनी लड़ाई लड़ते हैं।

न्यायाधीश बाम्बा ने कहा, “लोग तलाक के बाद अलग हो जाते हैं और उसके बाद बच्चे के संरक्षण की लड़ाई शुरू होती है। फिर यह जंग और तेज हो जाती है। दोनों पक्ष चाहते हैं कि बच्चा उनके पास रहे। यहां सबसे ज्यादा दुर्गति बच्चे की होती है। वह चौराहे पर होता है। माता पिता अनजाने में बच्चे के जीवन को स्थायी रूप से खराब कर देते हैं। यह किताब ऐसे माता पिता को यह संदेश देने के लिए लिखी गई है कि बच्चे का हित सर्वोपरि है।”

न्यायाधीश बाम्बा ने अपनी पुस्तक में वास्तविक जीवन के अनुभव साझा करते हुए लिखा है कि छिपा हुआ एजेंडा, तलाक की अर्जी देने वाले पक्ष से बदला लेने की इच्छा से लेकर दहेज के मामले तक का होता है।

उन्होंने लिखा कि कई बार यह मामला, पत्नी द्वारा घरेलू हिंसा कानून के तहत दर्ज कराई गई शिकायत का भी होता है।

उन्होंने लिखा, “मैं कहना चाहती हूं कि दवाओं की तरह ही संरक्षण याचिकाएं भी नकली हो सकती हैं। इस प्रकार के मामले प्रथम दृष्टया वास्तविक प्रतीत होते हैं लेकिन सभी असली नहीं होते। हालांकि मैंने इस पर अध्ययन नहीं किया है। फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि 40 से 50 प्रतिशत संरक्षण याचिकाओं का मकसद बच्चे का संरक्षण प्राप्त करना नहीं होता।”

न्यायाधीश बाम्बा ने लिखा, “संरक्षण याचिका अधिकतर केवल किसी छिपे मकसद को पूरा करने के लिए रचा गया आडंबर होता है। इसमें तलाक की अर्जी देने वाले पक्ष से बदला लेने की इच्छा से लेकर दहेज का मामला तक हो सकता है। किसी पत्नी द्वारा घरेलू हिंसा कानून के तहत दर्ज कराया गया मामला भी छिपे हुए मकसद का कारण हो सकता है।”

उन्होंने लिखा, “इस प्रकार की फर्जी संरक्षण याचिका, जहां असल मकसद कुछ और हो, न्याय व्यवस्था पर बोझ होती हैं। इससे अगले पक्ष को भौतिक, मानसिक और वित्तीय रूप से नुकसान होता है। ऐसी याचिका से बच्चों को भी तनाव झेलना पड़ता है।”

परिवारिक अदालत में न्यायाधीश द्वारा अनुभव की गई कई कहानियों का संकलन इस पुस्तक में किया गया है।

न्यायाधीश बाम्बा ने लिखा, “अदालत का काम और सरल हो जाता यदि उनके पास प्रेम को मापने का मीटर होता जिससे वह बच्चों के प्रति माता पिता के प्रेम को माप सकते।”

पुस्तक में 240 पृष्ठ हैं और इसमें कानूनी बारीकियों को भावनात्मक कहानियों में पिरोया गया है तथा आमजन की भाषा में कानूनी प्रकिया को समझाने का प्रयास किया गया है।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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