बनारस में आ गई विश्व प्रसिद्ध 'मलइयो' की बहार, एक बार चख लेंगे तो भूल नहीं पाएंगे इसका स्वाद
By आशीष कुमार पाण्डेय | Published: November 23, 2022 10:05 PM2022-11-23T22:05:58+5:302022-11-23T22:24:36+5:30
बीते कई दशकों से मलइयो काशी की पहचान बनी हुई है। वैसे बनारस में लौंगलता और लस्सी के साथ-साथ ठंडई का अपना अलग मिजाज है लेकिन नवंबर से जनवरी तक मिलने वाली मलइयो को खाने के लिए भी सैलानी दूर-दूर से काशी पहुंचते हैं।

फाइल फोटो
वाराणसी:वाराणसी के पारपंरिक खाद्य 'मलइयो' इस समय शहर के हर नुक्कड़ पर मिलती हुई दिखाई दे रही है। नवंबर से जनवरी महीने में मिलने वाली मलइयो को कारण भी धर्म और अध्यात्म की नगरी काशी की एक विशिष्ठ पहचान बनती है। वैसे तो बनारसी का पान, बनारस की साड़ी, गंगा के घाट, गंगा की आरती देश ही नहीं दुनिया में अपनी अलग पहचान रखते हैं लेकिन यहां पर हम बात कर रहे हैं बनारस में मिलने वाली मलइयो की।
बीते कई दशकों से मलइयो काशी की पहचान बनी हुई है। वैसे बनारस में लौंगलता और लस्सी के साथ-साथ ठंडई का अपना अलग मिजाज है लेकिन नवंबर से जनवरी तक मिलने वाली मलइयो को खाने के लिए भी सैलानी दूर-दूर से काशी पहुंचते हैं। मलइयो को बनारसी मिठाइयों की शान कहा जाता है।
दुनिया में बनने वाली कई मिठाइयों में बनारस के मलइयो की अलग पहचान है। यही कारण है कि जिसके मुंह में मलइयो का स्वाद घुल जाता है, वो इसका स्वाद कभी नहीं भूल पाता है और बार-बार खाने की चाहत में सर्दियों के मौसम में शिव की नगरी काशी में जरूर आता है।
बनारस की मलइयो साल में सिर्फ़ 2-3 महीने ही मिलती है। मलइयो की सबसे बड़ी खासियत होती है कि मुंह में जाते ही यह झट से घुल तो जाती है लेकिन वाबजूद इसके तासीर ऐसी है कि मलइयो का स्वाद घंटों ज़ुबान पर बना रहता है। लोगों को इंतजार रहता है कि ठंड का मौसम आए और वो बनारसी जाकर मलइयो का आनंद ले सकें।
ओस की बूंदो से तैयार होने वाली मलइयो के खाने का असली मजा बनारस के पक्के महाल में है, जहां आधुनिक हिंदी के जन्मदाता भारतेंदु हरिश्चद्र का जन्म हुआ था। जानकारों की माने तो मलइयो स्वादिष्ट होने के साथ-साथ सेहत के लिए भी काफी फायदेमंद होती है। कहते हैं कि इसके खाने से आंखों की रोशनी बढ़ती है और यह शरीर के पाचन क्रिया को भी मजबूत करता है। इसके अलावा इसमें मिले केसर, बादाम और पिस्ता स्किन को निखारने का काम करता है। दूध से बनने वाले मलइयो को शक्तिवर्धक भी माना जाता है।
नवंबर, दिसंबर और जनवरी में गिरने वाली ओस की बूंदों से तैयार होने वाली मलइयो के बारे में कहा जाता है कि जितनी ज्यादा ओस गिरती है मलइयो की गुणवत्ता उतनी ही बेहतर होती है। बनारस के हर गली-नुक्कड़ और चौराहे पर सुबह-सुबह इसे खाने वालों की भीड़ लगी रहती है। पक्के महाल और दूध विनायक जैसे इलाकों में तो कुछ ही घंटों में मलइयो का स्टॉक खत्म हो जाता है। नवम्बर के अंत से जनवरी के अंत तक मिलने वाली मलइयो का इंतजार काशी के लोगों को साल भर रहता है। कुछ लोग इसकी तुलना लखनऊ के मक्खन से भी करते हैं लेकिन यह उससे बिल्कुल अलग है।
मलइयो बनाने के लिए कच्चे दूध को बड़े-बड़े कड़ाहों में घंटों खौलाया जाता है। उसके बाद रात में ठंडे दूध को खुले आसमान के नीच रख दिया जाता है। पूरी रात ओस पड़ने की वजह से इसमें झाग पैदा हो जाता है और फिर सुबह मथनी से इस दूध को मथा जाता है। इसके बाद छोटी इलायची, केसर और मेवा डालकर मिट्टी के कुल्हड़ में इसे खाने के लिए परोसा जाता है।