मनोज वाजपेयी: हिन्दी सिनेमा का मराठी मानुष

By सुन्दरम आनंद | Published: April 23, 2021 07:12 AM2021-04-23T07:12:11+5:302021-04-23T12:32:17+5:30

अभिनेता मनोज वाजपेयी का जन्म 23 अप्रैल 1969 को बिहार के पश्चिमी चंपारण में हुआ था। वाजपेयी को अभिनय के लिए तीन राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं।

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मनोज वाजपेयी: हिन्दी सिनेमा का मराठी मानुष

मशहूर फ़िल्मकार रामगोपाल वर्मा ने अपनी आत्मकथा ‘गन्स एंड थाइज़: द स्टोरी ऑफ़ माय लाइफ’ में ‘स्टार’ और ‘एक्टर’ के बीच अंतर बताते हुए लिखा है – “स्टार एक ‘पर्सनैलिटी’ है जो उसके निभाए हर किरदार में मौजूद होता है, जबकि एक्टर महज एक ‘चरित्र’ है जिससे लोग जुड़ते हैं।” 

उनका यह कथन हॉलीवुड से लेकर बॉलीवुड तक की सिने इंडस्ट्री के सन्दर्भ में कमोबेश सही नजर आता है।

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री (बॉलीवुड )में जिन कलाकारों ने ‘स्टार सिस्टम’ से इतर खुद को एक अदद अभिनेता के तौर पर स्थापित किया है, उनमें निर्विवाद रूप से एक नाम मनोज वाजपेयी का भी आता है। 

‘बैंडिट क्वीन’ (1994 ) के मानसिंह, ‘सत्या’ (1998 ) के भीखू म्हात्रे से लेकर ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ (2012 ) के सरदार खान और ‘द फॅमिली मैन’ (वेबसीरीज-2019) के श्रीकांत तक नज़र डाली जाय तो अभिनेता मनोज वाजपेयी की जगह उनके द्वारा अभिनीत ये किरदार ही हमें अपनी ओर खींचते हैं।

शायद चरित्रों में पैठने और उन चरित्रों के बारीक़ से बारीक़ विवरणों को सूक्ष्मता से परदे पर उकेरने की उनकी इसी  क्षमता से अभिभूत होकर मशहूर फिल्म निर्देशक हंसल मेहता उन्हें “भारत का सबसे वर्सेटाइल अभिनेता” मानते हैं। 

बीते दिनों  फिल्म ‘भोंसले’ (2018 ) के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना भी उनकी बेमिसाल अभिनय क्षमता को एक बार फिर से सिद्ध करता है। 

एक रिटायर्ड मराठी पुलिस कांस्टेबल के रूप  में उनके संजीदा अभिनय के लिए मनोज वाजपेयी को पहली बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है।

यूँ तो मनोज वाजपेयी ने अपने करियर में एक से बढ़कर एक आला किरदार निभाए हैं। लेकिन उनके द्वारा अभिनीत तीन मराठी किरदार ऐसे हैं जो न केवल उनके खुद के सिनेमाई सफर के लिए बल्कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में मील के पत्थर कहे जा सकते हैं।  

सत्या  का ‘भीखू म्हात्रे’

manoj vajpayee
manoj vajpayee
सन 1998 में रामगोपाल वर्मा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘सत्या’ कई मायने में हिंदी सिनेमा की एक नायाब फिल्म मानी जाती है। 

एक तो  विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘परिंदा’ (1989) से हिंदी सिनेमा में जिस यथार्थवादी गैंगस्टर फिल्मों का चलन शुरू हुआ यह उसकी महत्तम उपलब्धि है। 

सिनेकारों की भाषा में कहा जाए तो इसने हिंदी सिनेमा में ‘मुंबई नोआर’ (Mumbai Noir) के रूप में एक सिनेमाई शैली हमारे सामने लेकर आया। इसने संभवतः पहली बार हिंदी सिनेमा के दर्शकों के सामने पहली बार गैंगस्टरों की दुनिया का अनछुआ मानवीय पक्ष हमारे सामने रखा। 

बकौल रामगोपाल वर्मा- “सत्या फिल्म इस सोच से बनी थी कि अमूमन हम गैंगस्टर्स के बारे में तब सुनते हैं जब वह किसी को मारते हैं या खुद मारे जाते हैं, पर इस दरमियान वो क्या करते हैं हम उसे चित्रित करना चाहते थे.”

‘सत्या’ की दूसरी बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने एक कोलाज की तरह हिंदी सिनेमा को एक साथ कई प्रतिभाओं से परिचित कराया जिनमें मधुर भंडारकर, अनुराग कश्यप, सौरभ शुक्ला, विशाल भारद्वाज, संजय मिश्रा आदि के नाम प्रमुखता से गिनाए जा सकते हैं। 

इस फिल्म में टाइटल रोल में यूँ अभिनेता चक्रवर्ती थे पर जिसे लोगों ने जाना, सराहा और याद रखा वह ‘भीखू म्हात्रे’ का किरदार था जिसे मनोज वाजपेयी ने निभाया था। 

मूलतः बिहार से आने वाले वाजपेयी ने एक मराठी गैंगस्टर के चरित्र के हाव-भाव और लहजे की बारीकियों को जिस दक्षता से निभाया है वह इस किरदार को ‘मेथड एक्टिंग’ का एक दिलचस्प पाठ बना देता है।

भीखू म्हात्रे के रोल ने मनोज वाजपेयी को एक अलहदा अभिनेता के रूप में तो स्थापित कर ही दिया। साथ ही उनके जैसे अन्य ‘एक्टर’ अभिनेताओं के लिए भी मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों के दरवाजे खोल दिए। 

इस बाबत उनके समकालीन अभिनेता केके मेनन ने 'मिंट' को दिए अपने एक इंटरव्यू में साफतौर पर  कहा है, “अगर ‘सत्या’ में मनोज ने प्रभावशाली अभिनय न किया होता तो शायद मेरे और इरफ़ान जैसे अभिनेता स्वीकार्यता के संकट से जूझते रह जाते। मनोज ने हमारे लिए रास्ते खोले हैं।” 

अलीगढ़ के ‘प्रो. सिरस’ 

Manoj Vajpayee and Rajkumar Rao
Manoj Vajpayee and Rajkumar Rao
मनोज वाजपेयी के फ़िल्मी करियर में दूसरी अहम फिल्म ‘अलीगढ़’ (2015) है, जिसमें उन्होंने मराठी चरित्र को निभाया है। 

‘समलैंगिकता’, ‘निजता’ और ‘चयन की स्वतंत्रता’ जैसे प्रश्नों को संजीदा मानवीय प्रश्नों के रूप में उठाने वाली इस फिल्म में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मराठी के प्रोफेसर श्रीनिवास रामचंद्र सिरस की भूमिका निभाई है। 

इस भूमिका में दरअसल उन्होंने स्तानिस्लावस्की द्वारा प्रस्तावित ‘एज इफ’ के अभिनय-सूत्र को जीवंत कर दिया है। इस अभिनय-सूत्र के अनुसार अभिनेता अपने आपको इस प्रकार प्रस्तुत करने का प्रयास करता है मानो वह परदे पर कोई भूमिका नहीं निभा रहा बल्कि उस पात्र के रूप में ज़िंदगी जी रहा हो। 

मनोज वाजपेयी ने रिटायरमेंट के कगार पर खड़े तिरस्कृत और अनैतिक करार दिए गए अकेलेपन से जूझते प्रो. सिरस के रोल को  इतनी शिद्दत से निभाया है कि दर्शक उसकी भाव-मुद्राओं में डूबता हुआ किरदार से जुड़ जाता है। 

प्रो. सिरस के किरदार उनके शब्द, भाव, मौन और इन सबके बीच मौजूद परतदार अंतराल को जब हम थोड़ा ठहर कर देखते हैं तो हमें एक अभिनेता की तैयारी का पता चलता है। 

इस भूमिका के लिए उनकी इस तैयारी के बारे में फिल्म के निर्देशक हंसल मेहता ने 'मिंट' को दिए अपने एक इंटरव्यू में कहा है, “आप एक चरित्र को लेकर उनकी गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं की इस भूमिका (प्रो. सिरस) को निभाने के लिए उन्होंने खुद को मराठी साहित्य में डुबो लिया था जबकि पूरी फिल्म में कहीं भी उन्हें मराठी नहीं बोलनी थी।”

भोंसले के ‘गणपत भोंसले’

Bhonsle Manoj Vajpayee
Bhonsle Manoj Vajpayee
देवाशीष मखीजा द्वारा निर्देशित ‘भोंसले’ (2018) में मनोज वाजपेयी टाइटल रोल में तो हैं ही साथ ही वह इसके एक प्रोड्यूसर भी हैं। 

यह फिल्म मुंबई में ‘मराठी मानुष को प्राथमिकता’ के नाम पर उत्तर भारतीय प्रवासियों के खिलाफ पोषित संकीर्ण राजनीति के साए में मौजूद मानवीय सम्बन्धों की शाश्वतता को स्थापित करती है। 

गणपत भोंसले के किरदार में मनोज वाजपेयी ने कुल मिलाकर सिर्फ 22 पंक्तियाँ संवाद के रूप में बोली हैं। लेकिन उनकी बोलती आँखें, शारीरिक हाव-भाव और चीखते से मौन मिलकर अपनी तरफ सम्मोहित करने वाला असर आप स्क्रीन पर पा सकते हैं।

कुल मिलाकर कहें ‘गणपत भोंसले’ का उनका किरदार एक इंसान की जिंदगी की तरह ‘भीखू म्हात्रे’ और ‘प्रो. सिरस’ को जी कर क्रमशः शांत और संजीदा होता हुआ परिपक्व किरदार नज़र आता है।

मनोज वाजपेयी होने का मतलब

बिहार की एक छोटी सी जगह से साधारण चेहरे-मोहरे और कद-काठी के साथ निकले इस शख्स में आखिर ऐसा क्या है जो सिनेमाई परदे पर निभाए इसके हर छोटे-बड़े चरित्र के मोहपाश में हम बंध से जाते हैं? 

जब हम इनके किसी उम्दा काम को देखकर उसे इनका सर्वश्रेष्ठ मानने लगते हैं तब अगली अदाकारी से ही ये हमारे उस मिथक को आखिर कैसे बार-बार तोड़ जाते हैं?

जवाब तलाशती हुई हमारी समझदारी हमें बताती है कि किरदार के लिए जुनूनी तैयारी, कथावस्तु के प्रति अटूट समर्पण, खुद को डुबो देने वाला अभिनय शायद वो कारण हैं जो मनोज वाजपेयी को पारम्परिक ‘स्टार-सिस्टम’ से इतर एक वैकल्पिक ‘स्टार-कल्ट’ का अगुआ बनाते हैं। 

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