पेशावर से बॉम्‍बे टॉकीज और फिर 'ट्रेजेडी किंग' तक का सफर, कुछ ऐसा है दिलीप कुमार होने का मतलब

By सुन्दरम आनंद | Published: July 7, 2021 09:20 AM2021-07-07T09:20:34+5:302021-07-07T10:05:14+5:30

दिलीप कुमार ताउम्र बेस्‍ट एक्‍टर का राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं मिला। फिर भी वे सर्वाधिक चाहे और सराहे  जाने वाले अदाकार बने रहे। एक अदाकार के तौर पर दिलीप कुमार बेमिसाल थे।

Dilip kumar dies at age 98 his life from Peshawar Pakistan to Bombay Talkies | पेशावर से बॉम्‍बे टॉकीज और फिर 'ट्रेजेडी किंग' तक का सफर, कुछ ऐसा है दिलीप कुमार होने का मतलब

दिलीप कुमार नहीं रहे (फाइल फोटो)

Highlightsबॉम्‍बे टॉकीज के बैनर तले अमिय चक्रवर्ती के निर्देशन में ‘ज्‍वार-भाटा’ (1944) से दिलीप कुमार के फिल्मी करियर की हुई थी शुरुआतदेवदास, जोगन, दीदार, अमर जैसी फिल्‍मों ने उन्हें ट्रैजिक हीरो की इमेज दी‘पद्म विभूषण’, पद्म भूषण से सम्मानित, पाकिस्तान ने भी अपने सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से उन्हें नवाजा

‘’लार्जर दैन लाइफ’’ एक ऐसा फिकरा है जिसका इस्‍तेमाल अमूमन तब किया जाता है, जब किसी व्‍यक्ति या काल्‍पनिक पात्र की लोकप्रियता, उसका आभामंडल हमारी कल्‍पना की सीमाओं को लांघ जाया करतें हैं। उससे गुज़रते हुए हम उसकी हर गतिविधि, नाज़-ओ-अदा के तले बस मंत्रमुग्‍ध से डूबते चले जाते हैं। उसके प्रभाव को बड़ी शिद्दत से महसूस तो कर लेते हैं, पर लफ़्जों में उसे बयां करना हमारे लिए बड़ा कठिन होता है। 

ज़रा कल्‍पना कीजिए कि ‘’लार्जर दैन लाइफ’’ का यह पद भी किसी शख्सियत के लिए छोटा पड़ने लगे तो आप क्‍या करेंगे? आप उसका नाम भर ले डालें। आपके सारे शब्‍दहीन भाव एक आकार के तौर पर मुकम्‍मल हो जाएंगे। दिलीप कुमार हिन्‍दी सिनेमा के इतिहास में एक ऐसी ही अज़ीम शख्सियत थे। जिनके बारे में मशहूर गीतकार जावेद अख्‍तर ने एक बार कहा था- 

‘’कोई क्‍या कहे...क्‍या-क्‍या कहे...कितना कहे...कैसे कहे दिलीप कुमार का नाम ही उनका पूरा तआर्रूफ है, पूरी तारीफ है, पूरा परिचय है।'' 

पेशावर से बॉम्‍बे टॉकीज’

जिस दिलीप कुमार को हम जानते हैं, उनका सफर यूं तो हिमांशु रॉय-देविका रानी द्वारा स्थापित ‘बॉम्‍बे टॉकीज’ से शुरू होता है पर उनकी जिन्‍दगी की कहानी पेशावर (अब पाकिस्‍तान में) से शुरू हूई। जहां 11 दिसम्‍बर 1922 को लाला गुलाम सरवर खान और आयशा बेगम के घर वे यूसुफ खान के रूप में पैदा हुए। 

गुलाम सरवर खान की पहचान पेशावर के किस्‍सा ख्‍वानी बाजार के एक जमींदार और फलों के ताजिर (मर्चेंट) के तौर पर थी। स्‍थानीय परिस्थितियों के कारण पूरे परिवार को यूसुफ के जन्‍म के कुछ अरसे बाद पेशावर छोड़कर बम्‍बई (अब मुम्‍बई) आना पड़ा। लेकिन बम्‍बई की उमस वाली आबो-हवा के कारण परिवार को वहां से हटकर नासिक के पास एक छोटी सी जगह देवलाली जाकर बसना पड़ा। 

यहीं ‘बार्नेस स्‍कूल’ से यूसुफ की तालीम की शुरूआत हुई। स्‍कूल के दिनों में उन्‍हें फुटबॉल खेलने का बड़ा शौक रहा। अपने पिता के कड़े ऐतराज पर ‘अक्‍ल का खेल’ शतरंज खेलना तो जरूर शुरू किया, पर दिल फुटबॉल पर ही लगा रहता। स्‍कूल के फुटबॉल क्‍लब के सेक्रेटरी भी रहे। स्‍कूल के बाद फुटबॉल से मुंह मोड़कर अपने पिता के फलों के व्‍यापार को उन्‍होंने सम्‍भालना शुरू किया। 

पूना के कैंटोनमैंट में कैंटीन मैनेजर के तौर पर भी काम किया। लेकिन किस्‍मत को कुछ और मंजूर था। फलों के व्‍यापार के सिलसिले में उन्‍हें एक बार नैनीताल जाना पड़ा, जहां उनकी मुलाकात देविका रानी से हुई, जो उन दिनों ‘बॉम्‍बे टॉकीज़’ की मालकिन थीं। देविका रानी ने उन्‍हें फिल्‍मों में काम करने का प्रस्‍ताव दिया। यूसुफ साहब ने इस प्रस्‍ताव को एक मज़ाक की तरह लिया और वापस घर आ गए। 

कुछ दिनों बाद उनकी मुलाकात बम्‍बई में लोकल ट्रेन पर डॉ. मसानी से हुई, जिन्‍होंने यूसुफ साहब से अनायास ही पूछ डाला, ‘तुम फिल्‍मों में काम क्‍यों नहीं करते’? संयोग की बात है कि यही डॉ. मसानी देविका रानी के पति हिमांशु रॉय के फिजिशियन थे। उनके इसरार पर यूसुफ खान बॉम्‍बे टॉकीज आ गए। जहां देविका रानी ने इन्‍हें तीन वर्षों के करार पर 500 रू. प्रतिमाह के वेतन पर साइन कर लिया।

दिलीप कुमार बनने की कहानी’ 

बॉम्‍बे टॉकीज के बैनर तले अमिय चक्रवर्ती के निर्देशन में ‘ज्‍वार-भाटा’ (1944) फिल्‍म से यूसुफ  खान के फिल्‍मी सफर की शुरूआत होनी थी।

उस दौर में अभिनेताओं को फिल्‍मी और इमेज को दमदार बनाने वाले नामों के साथ पर्दे पर उतारने का चलन था। मसलन कुमदलाल गांगुली, अशोक कुमार के सिनेमाई नाम से जाने जाते थे। लिहाजा यूसुफ खान के लिए भी एक नए और चमकते से रोमांटिक नाम की तज़बीज़ की गई। 

देविका रानी, पं. नरेन्‍द्र शर्मा, भगवती चरण वर्मा सरीखे लोग इस काम में लगे थे। वासुदेव, जहांगीर, दिलीप कुमार जैसे नाम सामने आए। और अंतत: यूसुफ खान ‘ज्‍वार-भाटा’ फिल्‍म के साथ लोगों के बीच दिलीप कुमार बनकर पर्दे पर आए। 

दुनिया का पहला 'मेथड एक्‍टर’ 

दिलीप साहब के लिए अदाकारी की दुनिया कोई आसान नहीं थी। जरा सोचिए जिस घर में उनकी पैदाइश और परवरिश हुई, वहां सिनेमा को हिक़ारत की नज़र से देखा जाता था। खुद उन्‍होंने 14 वर्ष की उम्र तक कोई फिल्‍म नहीं देखी थी। आगे भी जो पहली फिल्‍म देखी वह एक वॉर डॉक्‍यूमेंट्री थी। ऐसे शख्‍स के लिए सिनेमा और अदाक़ारी एक दूसरी ही दुनिया थी। लेकिन काम के प्रति लगन, सीखने के जज्‍़बे तथा अशोक कुमार और एस. मुखर्जी जैसे आला लोगों की सोहबत में वे अदाकरी की बारीकी को समझने की कोशिश में लग गए। 

एक्टिंग की बारीकियां सीखने में अशोक कुमार की एक सलाह उनके बड़े काम आई, जिसका जिक्र उन्‍होंने अपनी आत्‍मकथा ‘दिलीप कुमार : द सब्‍सटेंस एंड शैडो’ में कुछ यूं किया है- ‘’यह (अदाकारी) बहुत आसान है। तुम बस वह करो जो उस दी गई परिस्थिति में तुम खुद करते।‘’ 

इस सूत्र वाक्‍य को आत्‍मसात करते हुए और दुनिया की बेहतरीन फिल्‍मों तथा साहित्‍यों को देखते-पढ़ते हुए दिलीप साहब ने सहज अभिनय की उस परंपरा की नींव रखी जिसमें अभिनेता कैरेक्‍टर को प्‍ले नहीं करता बल्कि खुद कैरेक्‍टर बनने की कोशिश करता है। सिनेमाई व्‍याकरण में इस परिपाटी को ‘मेथड एक्टिंग’ के तौर पर जाना जाता है। 

सिने पंडितों का मानना है कि रूस के मशहूर नाट्य अभिनेता-निर्देशक स्‍तानिस्‍लेवस्‍की ने इस विधा के बारे में दुनिया को सबसे पहले रूबरू कराया। और हॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता मर्लन ब्रांडो ने इसे सबसे पहले सिनेमा के पर्दे पर एलिया कज़ान की फिल्‍म ‘ए स्‍ट्रीटकार नेम्‍ड डिज़ायर’ (1951) के ज़रिये प्रचलित किया। लेकिन जी अनमोल के मशहूर शो ‘ क्लासिक लीजेंड्स’ में जावेद अख्तर ने पश्चिमी सिने पंडितों की मान्‍यता को खारिज़ करते हुए कहा है- ‘’दरअसल दिलीप कुमार दुनिया के पहले एक्‍टर हैं, जिन्‍होंने सिनेमा स्‍क्रीन पर मेथड एक्टिंग की।‘’  

दिलीप कुमार: ‘ट्रेजेडी किंग’ 

हालांकि शुरूआत फ्लॉप फिल्‍मों के बाद जुगनू (1947) और मिलन (1947) जैसी हिट फिल्‍मों के साथ दिलीप साहब का कैरियर उठान की तरफ हो चला था। पर इसी दौर में एक क्रांतिकारी के जीवन पर बनी उनकी फिल्‍म ‘शहीद’ (1948) आई। इस फिल्‍म के ज़रिये उनकी अदाकारी का वो पहलू दुनिया के सामने आया जिसके लिए आज भी उन्‍हें ‘ट्रेजेडी किंग’ कहा जाता है। 

जोगन (1950), दीदार (1951), अमर (1954) जैसी फिल्‍मों ने उनके ट्रैजिक हीरो की इमेज को मजबूत किया। लेकिन जिस फिल्‍म ने उन्‍हें ट्रेजेडी का बादशाह बनाया वह फिल्‍म थी बिमलरॉय के निर्देशन में शरतचन्‍द के मशहूर उपन्‍यास ‘देवदास’ पर इसी नाम से सन् 1955 में बनी फिल्‍म। 

हालांकि ‘देवदास’ लिखे जाने के बाद आज तक तकरीबन दर्जन बार पर्दे पर उतारी गई। पर जो अज़मत और मकबूलियत इस फिल्‍म को हासिल हुई, शायद उसका कोई जोड़ नहीं है। त्रासदिक किरदारों में, दिलीप साहब की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि वह ‘’सही मायने में दर्शकों में वो ‘दर्द का मज़ा’ पैदा कर डालते हैं जिसे अरस्‍तू ने ‘कैथार्सिस’ कहा है।

लगातार त्रासदिक फिल्‍में करते हुए दिलीप कुमार खुद भी उस ‘इमेज ट्रैप’ में फंस से गए थे। संजीत नार्वेकर से अपनी जीवनी ‘दिलीप कुमार : द लास्‍ट एम्‍परर’ में बात करते हुए दिलीप कुमार ने खुद कहा था - 

‘’वह मेरी नसों और ग्रंथियों में समाने लगा था और मेरे अंदर की शांति छिन्‍न-भिन्‍न होने लगी थी। क्‍योंकि मुझे ऐसा लगने लगा था कि मेरा जन्‍म ही दु:ख सहते हुए मरने के लिए हुआ है।‘’ 

इस ‘ट्रेजेडी किंग सिंड्रोम’ से बचने के लिए उन्‍होंने लंदन के मशहूर मनोचिकित्‍सकों तथा ड्रामा ट्रेनरों से संपर्क किया। उन सबकी सलाह पर उन्‍होंने हल्‍के-फुल्‍के और कॉमिक फिल्‍मों की तरफ रुख किया। आज़ाद (1955) इसी किस्‍म की एक उल्‍लेखनीय फिल्‍म है। 

हिन्‍दी सिनेमा के 'साहिबे-आलम' 

1950 के दशक के आधे हिस्से तक यूं तो दिलीप कुमार ‘ट्रेजडी किंग’ और 'मेगास्टार' बन चुके थे। पर इस दशक के अंतिम हिस्से में उन्होंने हिंदी सिनेमा को कुछ ऐसे नायाब तोहफे दिए जिस कारण हम आज भी यह कहने पर विवश हो जाते हैं कि बिना दिलीप कुमार के हिंदी सिनेमा पर की गई बात अधूरी होगी। 

जिन दिनों दिलीप साहब त्रासदिक फिल्‍में कर रहे थे, उसी दौर में मशहूर फिल्‍म निर्माता-निर्देशक बी.आर. चोपड़ा आदमी-मशीन के संघर्ष पर आधारित एक सोशल ड्रामा की कहानी लेकर उनके पास पहुंचे। इस कहानी को पहले कई लोग ‘डाक्‍यूमेंट्री’ कहकर खारिज़ कर चुके थे। 

दिलीप साहब को भी यह कहानी कुछ खास पसंद नहीं थी। लेकिन एक बार जब चोपड़ा साहब पूरी स्क्रिप्ट के साथ मिले तो दिलीप कुमार इस कहानी के मुरीद हो गए। और 1957 में हिन्‍दी सिनेमा की क्‍लासिक्‍स में शुमार वह फिल्म आई जिसे हम ‘नया दौर’ के नाम से जानते हैं। 

सन् 1958 में बिमल रॉय की पुनर्जन्म पर आधारित ‘मधुमति’ आई। और फिर आया हिन्दी सिनेमा का ‘’मैग्‍नम ऑपस’’- ‘मुगले-आज़म (1959)। 

हिन्‍दी सिनेमा का इतिहास वैसे तो ऐतिहासिक, मिथ‍कीय, प्रेमगाथाओं, पिता-पुत्र संबन्‍धों, युद्धों, अदावतों की कहानियों से भरा पड़ा है। पर ये तमाम सिनेमाई तत्‍व पूरे शबाब और उत्‍स के साथ जहाँ मिश्रित हुए हैं- वह बेशक ‘मुगले-आज़म’ ही हो। 

अवांतर कथाओं पर न जाते हुए दिलीप कुमार की अदाकारी के नजरिये से इन तीनों फिल्‍मों को देखा जाए तो ‘नया दौर’ में जहां वे एक अनपढ़ तांगेवाले के किरदार में हैं, तो वहीं मधुमति में एक पढ़े-लिखे शहरी बने हैं और मुगले-आज़म में इश्‍क में डूबे एक मुगल शहज़ादे के तौर पर दिखे है। पर आप उनके हाव-भाव, चाल-ढाल और संवाद कौशल को देखें तो कहीं भी दिलीप कुमार को न पाएंगे बल्कि वो किरदार ही आपके ज़ेहन में होगा। 

शायद इसीलिए दिलीप साहब की आत्मकथा ‘दिलीप कुमार: द सब्सटेंस  एंड शैडो’ की लॉन्चिंग के मौके पर  अमिताभ बच्‍चन ने कहा था - ‘’किसी अदाकार के किसी किरदार को आप देखें तो आप कह सकते हैं कि     इसे ऐसे किया जा सकता था, वैसे किया जा सकता था। पर दिलीप साहब ने जो किरदार कर दिया हो, वहां कोई ऐसी गुंजाइश नहीं रह जाती। दरअसल एक्टिंग की दुनिया में दिलीप साहब को कोई विकल्‍प नहीं है।‘’ 

प्राड्यूसर दिलीप कुमार 

वैसे तो दिलीप कुमार अपनी फिल्‍मों में कैमरे के आगे और पीछे पूरी शिद्दत से जुड़े होते थे। इसलिए उनके कई सहकर्मी और आलोचक उन पर ‘दखलअंदाजी’ करने का भी आरोप लगाते थे। वहीं मुकरी और प्राण साहब जैसे उनके सहकर्मी उनके इस स्‍वभाव को काम के प्रति लगन और समर्पण के तौर पर देखते थे। 

बहरहाल अदाकारी और प्रोडक्‍शन में गहरी दिलचस्‍पी के बावजूद अपने समकालीन राजकपूर और देव आनंद की तरह उन्‍होंने अब तक किसी फिल्‍म का निर्माण नहीं किया था। पर अपने मित्रों (जिनमें मशहूर संगीतकार नौशाद भी थे) के बहुत इसरार पर अपनी लिखी कहानी पर वो फिल्‍म निर्माण की तरफ मुड़े। 

निर्देशन के लिए अपने पुराने निर्देशक नितिन बोस (जिनके साथ मिलन की थी) को बुलाया, संवाद लिखने के लिए वज़ाहत मिर्ज़ा (‘मदर इंडिया’ और मुगले-आज़म के डायलॉग लेखक) को शामिल किया। अंतत: उनके ‘सिटीजन्‍स फिल्‍म्‍स’ के बैनर तले एक डकैत की जिंदगी पर आधारित फिल्‍म गंगा जमुना (1961) आई। 

गौरतलब है कि इस फिल्‍म के सारे संवाद अवधि भाषा में लिखे गए हैं। इसी के बाद से डकैतों या कम पढ़े लिखे किरदारों के लिए हिन्‍दी फिल्‍मों में अवधि या पूर्वी हिन्‍दी का चलन एक रूढि़ बन गया। 

‘दिलीप कुमार होने का मतलब’ 

एक अदाकार के तौर पर दिलीप कुमार बेमिसाल थे। इसमें शायद ही कोई शक किसी को हो। पर इतना मुख्‍़तसर सा बायोडाटा क्या उनका हो सकता है? क्‍या वे हमारी तीन चार-पीढ़ियों की उम्‍मीदों और सपनों  के साझी विरासत नहीं थे? जिसके लिए उन्‍हें जावेद अख्‍तर 'हिन्‍दी सिनेमा की एक्टिंग का पाणिनी' कहते हैं। 

उन्‍हें ताउम्र बेस्‍ट एक्‍टर का राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं मिला। फिर भी वे सर्वाधिक  चाहे और सराहे  जाने वाले अदाकार बने रहे । वे एक साथ ' निशाने-पाकिस्तान' और ‘पद्म विभूषण’ दोनों  थे | इससे कहीं ज्यादा वे  'डिग्निटी पर्सोनिफाइड' हैं | जो शायद दिलीप कुमार होने का मतलब है। 

Web Title: Dilip kumar dies at age 98 his life from Peshawar Pakistan to Bombay Talkies

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