harvard university: उम्र के 389 वें पड़ाव पर हार्वर्ड विश्वविद्यालय?, हिम्मत की दाद देनी होगी!
By विकास मिश्रा | Updated: June 10, 2025 05:35 IST2025-06-10T05:21:51+5:302025-06-10T05:35:31+5:30
harvard university: मगर दाद देनी होगी हार्वर्ड की जिसने ट्रम्प के तमाम हमलों के बावजूद झुकने से इनकार कर दिया है.

harvard university
दुनिया के शीर्ष विश्वविद्यालयों में से एक हार्वर्ड विश्वविद्यालय इस साल अक्तूबर में अपनी उम्र के 389 वें पड़ाव पर होगा. शैक्षणिक उत्कृष्टता और अनुसंधान की गुणवत्ता इसकी पहचान रही है. यह विश्वविद्यालय सरकारी नहीं है लेकिन इसे अमेरिकी सरकार काफी वित्तीय मदद देती है ताकि अनुसंधान को बढ़ावा दिया जा सके. मगर हार्वर्ड के इतिहास में यह साल उसके लिए सबसे ज्यादा संकट भरा साबित हो रहा है क्योंकि डोनाल्ड ट्रम्प ने उसके खिलाफ खुले रूप से मोर्चा खोल दिया है. मगर दाद देनी होगी हार्वर्ड की जिसने ट्रम्प के तमाम हमलों के बावजूद झुकने से इनकार कर दिया है.
हालांकि ट्रम्प ने और भी निजी विश्वविद्यालयों की नकेल कसने का अभियान चला रखा है. उनका कहना है कि इन विश्वविद्यालयों में न केवल एंटी अमेरिकी भावना को प्रश्रय दिया जा रहा है बल्कि कट्टरपंथी और वामपंथी विचारधाराओं को बढ़ावा भी दिया जा रहा है. सरकारी नकेल से परेशान तो सभी विश्वविद्यालय हैं
लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा में हार्वर्ड है क्योंकि वह ट्रम्प के सामने पूरी ताकत से खड़ा हो गया है. आपकी जानकारी के लिए बता दें कि हार्वर्ड अमेरिका का सबसे धनी विश्वविद्यालय है और 2024 में उसके पास 53.2 बिलियन डॉलर की अक्षय निधि थी. उसकी ताकत का राज भी यही है.
जैसे ही ट्रम्प प्रशासन ने अनुदान रोकने का फरमान सुनाया तो हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने दुनिया को तत्काल बताया कि अत्यंत महत्वपूर्ण शोध के लिए धन की कमी नहीं आने दी जाएगी. हार्वर्ड 250 मिलियन डॉलर खर्च करेगा. अनुदान मिले या न मिले, शोध नहीं रुकेंगे. इधर ट्रम्प अड़े हैं कि हार्वर्ड जब तक सरकार की बात नहीं मानेगा तब तक अनुदान नहीं मिलेगा.
इधर विश्वविद्यालय को लगता है कि ट्रम्प उसके स्वतंत्र विचारों पर हमला कर रहे हैं और सरकारी शिकंजे में लेने की कोशिश कर रहे हैं. हार्वर्ड के अध्यक्ष एलन गार्बर ने साफ कह दिया है कि किसी तरह का नियंत्रण स्वीकार नहीं किया जाएगा. हार्वर्ड ने ट्रम्प सरकार के फैसले को कोर्ट में चुनौती दे दी!
जब अनुदान रोकना प्रभावकारी नहीं हो पाया तो ट्रम्प ने हार्वर्ड में विदेशी छात्रों के पढ़ने के लिए सबसे आवश्यक चीज स्टूडेंट्स वीजा पर रोक लगा दी! हार्वर्ड में 21 हजार से ज्यादा विद्यार्थी पढ़ते हैं जिनमें विदेशी विद्यार्थियों की संख्या करीब 6800 है. अकेले भारत के ही 800 विद्यार्थी हैं. जब स्टूडेंट वीजा नहीं मिलेगा तो हार्वर्ड की कमाई से लेकर उसकी प्रतिष्ठा तक पर बहुत बुरा असर पड़ेगा.
ट्रम्प प्रशासन कह रहा है कि विभिन्न देशों से जो विद्यार्थी हार्वर्ड में पढ़ने आते हैं, उनसे अमेरिका को खतरा हो सकता है. इसके लिए गाजा में इजराइली हमले के खिलाफ और फिलिस्तीनियों के समर्थन में अमेरिकी विश्वविद्यालयों में हुए प्रदर्शनों का उदाहरण दिया जा रहा है. इनमें हार्वर्ड भी शामिल था.
दरअसल अमेरिका में खुद को राष्ट्रवादी सोच का प्रतिनिधि बताने वाला एक बड़ा वर्ग यह महसूस करता रहा है कि अमेरिकी विश्वविद्यालय कुछ ज्यादा ही उदार हैं जो हर किसी को प्रदर्शन और हर तरह के विचारों की अभिव्यक्ति की इजाजत देते हैं. अभिव्यक्ति की इजाजत का मतलब यह तो नहीं हो सकता कि आप किसी देश की विचारधारा के खिलाफ चले जाएं.
यही सोच संभवत: ट्रम्प की भी है. वैसे ऐसी सोच केवल अमेरिका में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई अन्य देशों में भी है और उन देशों में भी शैणणिक संस्थानों की नकेल वहां की सरकारें कसने की कोशिश करती रहती हैं. सरकारें यह मानती हैं कि शैक्षणिक संस्थाओं का काम केवल शिक्षा देना है, नए शोध करने हैं ताकि यह दुनिया और बेहतर बन सके.
लोगों की जिंदगी को सुगम बनाया जा सके. किसी तरह की राजनीति या विचारों के प्रोपगैंडा के लिए शैक्षणिक संस्थाओं में कोई जगह नहीं होनी चाहिए. दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जो यह मानते हैं कि विश्वविद्यालयों से ही भविष्य के नेतृत्वकर्ता निकलते हैं इसलिए वहां विभिन्न मुद्दों पर स्वस्थ बहस होनी चाहिए.
इसीलिए दुनिया भर में इस तरह के वैचारिक संघर्ष चलते रहते हैं. विश्वविद्यालयों के पास चूंकि सरकार के प्रतिरोध की ताकत नहीं होती इसलिए वे चुप ही रहते हैं. फिलहाल अमेरिका का मामला ज्यादा इसलिए छा गया क्योंकि हार्वर्ड विचारों की निजता और स्वतंत्रता का झंडा लेकर खड़ा हो गया! ट्रम्प सरकार के ताजा फैसले पर उसने कहा कि अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थियों के लिए वह लड़ेगा.
अब जब इस तरह का संघर्ष चल रहा हो तो कुछ लोग तरह-तरह की बातें भी बनाएंगे. उनमें कितनी सच्चाई है और कितनी गप्पबाजी है, यह कहना कठिन है. एक सज्जन हैं वोल्फ, जिन्होंने ट्रम्प के राष्ट्रपति के रूप में कार्यकाल को लेकर कई किताबें लिखी हैं. वो दावा कर रहे हैं कि ट्रम्प ने हार्वर्ड में अपने बेटे बैरन के एडमिशन की कोशिश की थी मगर ऐसा हो नहीं पाया.
वे इसी कारण नाराज हैं. वोल्फ तो यहां तक भी कह रहे हैं कि ट्रम्प खुद भी हार्वर्ड में पढ़ना चाहते थे लेकिन वे एडमिशन नहीं पा सके थे. कुंठा इसी को लेकर है. वैसे व्हाइट हाउस वोल्फ के आरोपों को सिरे से खारिज कर चुका है. मगर सवाल यह नहीं है कि वोल्फ झूठ बोल रहे हैं या सच बोल रहे हैं.
सवाल तो यह है कि अमेरिका का एक राष्ट्रपति और अमेरिका का ही एक विश्वविद्यालय एक-दूसरे के सामने क्यों खड़े हो गए हैं? इससे दोनों की छवि को ही नुकसान होगा. ट्रम्प तो चार साल का कार्यकाल पूरा करके चले जाएंगे लेकिन हार्वर्ड का अपने मूल स्वरूप में बचे रहना न केवल अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया के लिए बहुत जरूरी है.